कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ५० – पांडव दूत – भाग २

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः

श्रृंखला

<< विदुर पर कृपा

कौरवों की सभा में जो हुआ आइए उसका आनन्द लें।
जब कृष्ण दूत बनकर वहां पधारे, तब धृतराष्ट्र ने सोचा कि वह कृष्ण को बहुत-सा धन देकर उन्हें अपने पक्ष में कर लेंगे परन्तु तुरन्त ही उनको अनुभूति हो गई कि यह विचार ही निरर्थक था।

जैसे ही दुर्योधन को कृष्ण के आगमन की सूचना मिली तब उसने एक अवास्तविक आसन बनाया जिसके नीचे एक कक्ष था। उसने सोचा कि कृष्ण को वहाँ विराजमान होने पर नीचे की ओर धकेल देगा और बन्दी बना लेगा। उस भूमि गत कक्ष में पहले से ही कुछ मल्लों को रहने के लिए कहा था। जैसे ही कृष्ण के द्वारा उस आसन पर बैठने से नीचे को धंसने लगे तभी कृष्ण ने अपना विश्वरूप प्रकट किया और सभी अचम्बित कर दिया।

तत्पश्चात् कृष्ण ने धृतराष्ट्र के शांति वार्ता आरम्भ की। उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर ही राज्य चलाने के योग्य व्यक्ति हैं। अस्थाई शासक धृतराष्ट्र को यह पसंद त्याग देना चाहिए। परन्तु दुर्योधन ने मध्य में ही रोककर कहा कि पांडवों को राज्य नहीं दे सकते और पांडवों का राज्य पर अधिकार नहीं है।‌ कृष्ण ने कहा यदि पांडवों को पाँच गाँव भी दे दिए जाए तब भी वे सन्तुष्ट हो जाएँगे। परन्तु दुर्योधन वह देने में भी असहमत था और यह कहा कि उन्हें भूमि का एक छोटा खंड भी नहीं दिया जा सकता। यह सुनकर कृष्ण ने कहा, “तो युद्ध ही एकमात्र विकल्प है।” दुर्योधन सहमत हुआ और कहा, “हाँ। हम युद्ध के लिए तैयार हैं।”

विदुर जी ने दुर्योधन को अच्छी मन्त्रणा देते हुए कहा, “आपको कृष्ण से इस प्रकार बात नहीं करनी चाहिए और न ही पांडवों के वैध अधिकार को अस्वीकार नहीं करना चाहिए।” दुर्योधन क्रोधित हो गया और विदुर जी का अपमान किया। विदुर जी दु:खी होकर बोले, “मैं उन लोगों के साथ नहीं रहूँगा जो अधर्मी हैं। साथ ही मैं इस युद्ध में भाग नहीं लूँगा” और उन्होंने अपना विष्णु धनुष तोड़ दिया। यदि विदुर जी ने दुर्योधन का साथ दिया होता तो पांडवों के लिए बहुत बड़ी विपत्ति आ जाती।
इस प्रकार कृष्ण दूत बनकर गये और युद्ध सुनिश्चित किया।

आऴ्वारों ने कई पासुरों में कृष्ण को दूत बनकर जाने का आनन्द लिया। पोय्गै आळ्वार् ने अपने मुदल् तिरुवन्दादि में कहा, “सॆट्रॆऴुन्दु तीविऴित्तुच् चॆन्ऱ इन्द एऴुलगुम्”। नम्पिळ्ळै ने कृष्ण द्वारा दुर्योधन की सभा में विश्वरूप प्रकट करने की लीला के संदर्भ में इसकी व्याख्या की। पेरियाळ्वार् ने अपने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में वर्णन करते हैं, “तूदु सॆन्ऱाय्! कुरु पाण्डवर्क्काय् अङ्गोर् पॊय्सुट्रम् पेसिच् चॆन्ऱु बेदम् सॆय्दु ऎङ्गुम् पिणम् पडुत्ताय्! तिरुमालिरुञ्जोलै एन्दाय्”– कहते हुए, “हे मेरे प्रभु जो तिरुमालिरुञ्जोलै में निवास करते हैं, आप कौरवों और पाण्डवों के मध्य रहकर दूत बनकर गये और युद्ध का कारण बने और दुर्योधन का विनाश किया।” तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने अपने पेरिय तिरुमोऴि में वर्णन किया, “अरव नीळ् कॊडियोन् अवैयुळ् आसनत्तै अञ्जिडादेयिड अदऱ्-कुप् पॆरिय मामेनि अण्डम् ऊडुरुवप् पॆरुन्दिसै अडङ्गिड निमिर्न्दोन्”– वर्णन करते हैं “भगवान दुर्योधन की सभा में गये जहां उन्हें आसन दिया गया और उन्होंने वहां विश्वरूप दर्शन दिया।”

सार-

  • भगवान सहज ही उन लोगों को जीत लेते हैं जो उनके विरुद्ध होकर विनाश करने का प्रयास करते हैं।
  • जब भगवान कोई प्रण करते हैं तो उसे पूरा करने का प्रयास करते हैं। कोई भी उनके संकल्प में बाध्य नहीं हो सकता अर्थात् उनका उल्लंघन नहीं कर सकता।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी।

आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/26/krishna-leela-50-english/

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