आचार्य हृदयम् – ४

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः 

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अवतारिका (परिचय)

क्योंकि यह सुख और दु:ख प्रत्येक के कर्म और परिस्थिति के परिणामस्वरूप होते हैं, इसलिए यहाँ चरम सीमा की व्याख्या है।

चूर्णिका-४

इवट्रुक्कु ऎल्लै इनबुतुन्बळि पन्मामायत्तु अऴुन्दुगैयुम् कळिप्पुम् कवर्वुमट्रुप् पेरिन्बत्तु इन्बुऱुगैयुम्

सामान्य व्याख्या

इस भौतिक संसार में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध जैसे महान स्तब्ध करने वाले विषयों में लीन होना जो दु:ख के कारण है, और सभी कर्मों और दु:खों से मुक्ति प्राप्त कर उस परमपद में सुख प्राप्त होना, जो परमानन्द का कारण है, ये सुख और दु:ख की चरम अवस्था है।

व्याख्यान (टीका टिप्पणी)

दुक्कत्तुक्कुप् परमावदि इन्बु तुन्बळि पन्मा मायत्तु अऴुन्दुगै।

“इंबु तुन्बळि” से आरम्भ करते हैं -प्रकृति अर्थात् यह संसार जो सुख और दु:ख का कारण है, जो शाश्वत है, जिसके उस पार जाना कठिन है, इसके संपर्क में आने से मनुष्य जन्मों में बंध जाता है; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध जो विविध हैं ये उन लोगों को भ्रमित कर देते हैं जो सदैव इनमें लीन होकर बंधे रहते हैं। जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ७.१.८ में कहा गया है, “इन् अमुदेनत् तोन्ऱि” (मधुर अमृत के समान प्रतीत होना) यह आत्माओं को पुनर्जन्म लेने से मुक्त होने में बाधक है। ऐसे शब्द में लिप्त होना जैसे कि तिरुवाशिरियम् ६ “अऴुन्दुमा” (पूर्णतः डूब जाना)इस भौतिक संसार में डूब जाना जिसको “अनन्त क्लेश भजनम्” (अन्त हीन दु:खों का आलय) कहा गया है।

सुकत्तुक्कुप्परमावदि कळिप्पुम् कवर्वुम् अट्रुप् पेरिन्बत्तु इन्बुऱुगै।

तिरुवाय्मोऴि २.३.१० में, “कळिप्पुम् कवर्वुम् अट्रु” (भौतिक आनन्द (सांसारिक सुख के बढ़ने) और लालसा (उनके कम होने)) से मुक्त होना, से आरम्भ करते हुए, १) भौतिक सुखों को प्राप्त करने पर जो अहंकार आता है उससे मुक्त होना जिसमें हीनता, अस्थिर होना जैसे दोष हैं, और (२) इन सुखों के प्राप्त न होने पर जो दु:ख होता है, इनमें से मुक्त छः प्रकार के परिवर्तनों को (वर्तमान स्थिति में होना, जन्म लेना, बढ़ा होना आदि) समाप्त करने के पश्चात्, शुद्ध सत्वम् (सात्विकता) से भरपूर दिव्य रूप को प्राप्त करना, उज्जवल होकर, परमपद में भक्तों के साथ मिलकर उस परमानन्द से भर जाता है, जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १०.९.११ में कहा गया है, “अन्दमिल् पेरिन्बत्तु” (नित्यानंद)। ऐसी स्थिति में रहकर सभी भारों से मुक्त होकर, भगवान के अविरल अनुभव में आनन्दित होना जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ८.१०.५ में वर्णित है “सुऴिपट्टोडुम् सुडर्च् चोदि वेळ्ळत्तु इन्बुट्रु” (परमपद जिसमें चक्र रूप में और नित्य रहने वाला प्रकाश (चमक) है)।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2024/02/27/acharya-hrudhayam-4-english/

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