आचार्य हृदयम् – ११

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः 

श्रृंखला

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अवतारिका (परिचय)

इन दोनों सम्बन्धों का प्रभाव आत्मा पर जो पड़ता है यहाँ वर्णित है।

चूर्णिका – ११

इवै किट्टमुम् वेट्टुवेळानुम् पोले ऒण् पॊरुळ् पॊरुळ् अल्लाद ऎन्नादे नानिलाद यानुम् उळनावन् ऎन्गिऱ रहस्य चतुष्टयम् साम्यम् पॆऱत् तिन्ऱूदि अन्दमुम् वऴ्वुमागिऱ हानि सत्तैगळै उण्डाक्कुम्।

सामान्य व्याख्या

जैसे लोहे का मल अर्थात् जंग प्रकाशमान रत्न के सम्पर्क में आने से उसके स्वरूप का नाश कर देता है, और जैसे ही भ्रमर के सम्पर्क में कीड़ा आ जाए तो उसे अपने जैसा कर देता है, उसी प्रकार अचित् के सम्पर्क से आत्मा पूर्णतया अज्ञानी बन जाता है, और भगवान के सम्बन्ध से आत्मा मुक्त हो जाता है।

व्याख्यान (टीका टिप्पणी)

अर्थात,

अचित से सम्बन्ध 

लोहे का जंग अपने सम्पर्क में आने वाले प्रकाशमान रत्न को नष्ट कर देता है, रत्न को जंग जैसा ही बना देता है। आत्मा जो विशिष्ट ज्ञान को एक गुण के रूप में रखता है और स्वयं प्रकाशित है, उसकी श्रेष्ठता को न देखना, जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १.२.१० में वर्णित है “अन्नलत्तु ऒण्पॊरुळ्” (अनन्त जीवात्मा, जिनमें आनन्द आदि शुभ गुण हैं); अचित् को तिरुवाय्मोऴि १.२.४ में “इल्लादु” (अस्तित्व हीन) और श्रीविष्णु पुराण १.१२.३७ में “यन्नास्ति” (अस्तित्व हीन) कहा गया है, वह आत्मा का नाश कर उसे ज्ञान हीन बना देता है और अचित् के समान बना देता है जैसे कि तिरुच्चन्द विरुत्तम् ६५ में वर्णन किया है “नानिलाद” (अस्तित्व हीन मैं)‌ और हानि (नाश) उत्पन्न करता है -अर्थात् अस्तित्व में ही दोष उत्पन्न करता है जैसा कि तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है “असन्नेव स भवति” (जो भगवान का अनुभव नहीं करता वह अस्तित्व हीन कहलाता है)।

अयन (नारायण) से सम्बन्ध 

जैसे कि कहा गया है कि “कीट: पेशकृता रुद्ध: कुट्यान्तरनुचिन्तयन्, सम्रम्ब भययोगेन विन्दते तत्सरूपताम्” (भ्रमर के द्वारा लाया गया कीड़ा, तनाव और भय के कारण, अपने आप‌को चार दीवारों के बीच सुरक्षित न मानकर, उस भ्रमर का स्वरूप पाता है) भ्रमर कोई अन्य कीड़ा अपने घर में रखकर उसे डंक मारकर, उस कीड़े को अपने जैसा बना देता है। इसी प्रकार आत्मा अज्ञानी होने के कारण अचित् के समान था, जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ५.७.३ में कहा गया है “पॊरुळल्लाद ऎन्नैप् पॊरुळाक्कि” (मैं जो एक वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता था जैसे कि “असन्नेव” (अचित के जैसे) में कहा गया है, मुझे ऐसे रुपान्तरित कर दिया कि मैं अपने स्वरूप को समझ सकूँ);  आत्मा की निम्न प्रकृति को देखते हुए, मुण्डकोपनिषद ३.२.३ “निरञ्जन:परमम् साम्यमुपैति” (उसकी शरण में आने के बाद, वे (जीवात्मा) उसी मात्रा में उनके गुणों को प्राप्त करते हैं), भगवान स्वाभाविकता से सर्वव्यापी हैं, आत्मा को भी आत्मा के सुविस्तृत ज्ञान के माध्यम से सर्वव्यापी बना देंगे, जैसे कि पेरिय तिरुवन्दादि ७६ में कहा गया है, “उळ्ळ उलगळवुम् यानुम् उळनावन्” (मैं सर्वलोक में व्याप्त हूँ ऐसा प्रतीत होता है), निरन्तर डंक मारकर (सकारात्मकता से) और वाऴ्वु (विशेष जीवन) देकर, जो आत्मा का पोषण है। ऐसा कहा गया है कि भगवान के विषय में ज्ञान प्राप्त होने से, आत्मा को अस्तित्व की प्राप्ति होती है जैसे कि तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णन है, सन्तमेनं ततो विदुः”‌ (भगवान के बारे में ज्ञान हो जाने पर, उस एक कारण मात्र के लिए, जीवात्मा का अस्तित्व माना जाता है)।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2024/03/06/acharya-hrudhayam-11-english/

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