श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
यहाँ तक कि ये (पिछले सूत्र में उल्लिखित) भी प्राथमिक दोष नहीं हैं; प्राथमिक दोष एक अलग है।
सूत्रं – २०
द्रौपदी परिभवम् कण्डिरुन्ददु कृष्णाभिप्रायत्ताले प्रधान दोषम्
सरल अनुवाद
भगवान श्रीकृष्ण की राय अनुसार द्रौपदी के अपमान के समय अर्जुन का मूक दर्शक बने रहना प्राथमिक दोष है।
व्याख्यान
द्रौपदी …
सबसे पहले, जब दुर्योधन और अन्य जन द्वारा द्रौपदी का अपमान किया गया था, तो धर्म का उल्लंघन करने के डर से, जुए के खेल में हारने के बाद अर्जुन [और अन्य] मूक दर्शक बना रहा [कि हारने वाले को बोलने का कोई अधिकार नहीं है]। यह कम से कम सहनीय है। लेकिन जब द्रौपदी के कृष्ण के प्रति समर्पण किया जैसा कि महाभारत सभा पर्व ६६ में कहा गया है “गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां शरणागतां” (हे गोविन्द! हे पुण्डरीकाक्ष! मेरी रक्षा करो जिसने आपकी शरणागति की है), इसके बाद भी उन्होंने उसका अपमान करना जारी रखा, उसे तुरंत उठना चाहिए था और अपमान को रोकना चाहिए था, (अ) शास्त्र के विशेष नियम के अनुसार जैसे कि “यदि भगवान के भक्त का अपमान किया जाता है और यदि कोई सक्षम है, तो उसे इसे रोकना चाहिए, और यदि कोई असमर्थ है, तो उसे उस स्थान को पीड़ा से ग्रस्त होकर छोड़ देना चाहिए”, या (आ) कृष्ण की मित्रता और स्वयं के प्रति पक्षपात के बारे में सोचना चाहिए था और सोचना चाहिए था, “यदि मैं उस व्यक्ति की रक्षा नहीं करता जो कृष्ण के प्रति समर्पित है, तो मैं कृष्ण को कैसे मुख दिखा सकता हूँ?” ऐसे करने के बजाय वह पहले की तरह मूकदर्शक बना रहा। यही वह बात है जिसे कृष्ण ने दोषों में सबसे प्रमुख के रूप में अपने दिव्य हृदय में धारण किया। इसके कारण, यह कहा जाता है “कृष्णाभिप्रायत्ताले प्रधान दोषम्”। दोष की प्राथमिक प्रकृति उसकी क्रूरता के कारण है। अन्य दोषों के विपरीत, यह दोष भगवान को वराह पुराण के अनुसार “न क्षमामि” (मैं कभी क्षमा नहीं करूँगा) कहने पर विवश कर देगा।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/29/srivachana-bhushanam-suthram-20-english/
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