श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
इसके पश्चात, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक प्रपत्ति की प्रकृति की व्याख्या कर रहे हैं जो कि उपाय (भगवान) की खोज है और जिसे संयोग से उनके द्वारा सूत्र २२ “प्रपत्ति उपदेशम् पण्णिट्रुम्” में उजागर किया गया है। उसमें, सबसे पहले, वह दयापूर्वक इस संदेह का समाधान कर रहे हैं कि “कृष्ण समय की जाँच किए बिना और अर्जुन के स्नान आदि से स्वयं को शुद्ध किए बिना युद्ध के मैदान में प्रपत्ति को निर्देश क्यों दे रहे हैं? क्या प्रपत्ति के लिए स्थान आदि से संबंधित कोई नियम नहीं हैं?”
सूत्रं – २३
प्रपत्तिक्कु देश नियमुम् काल नियमुम् प्रकार नियमुम् अधिकारी नियमुम् फल नियममुम् इल्लै।
सरल अनुवाद
देश, काल, प्रकार, अधीकारी और फल के आधार पर कोई बन्धन नहीं हैं।
व्याख्यान
प्रपत्ती भगवच्छरण वरणम् (भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करना) है ।
देश नियमम् – यह केवल पवित्र स्थानों में ही किया जाना चाहिए और अन्य स्थानों पर नहीं किया जाना चाहिए।
काल नियमम् – यह वसन्त आदि ऋतुओं में किया जाता है और किसी भी समय में नहीं।
प्रकार नियमम् – यह केवल स्नान, पाद प्रक्षालन के पश्चात आदि करना चाहिये और किसी अन्य विधि में नहीं।
अधिकारी नियमम् – यह केवल त्रैवर्णिकों (ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य) द्वारा किया जाना चाहिये और किसी से नहीं।
फल नियमम् – इसे किसी दृश्यमान और अदृश्य परिणामों को प्राप्त करने के लिए किया जाना चाहिए,न कि अन्य परिणामों के लिए।
ये नियम (प्रतिबंध) प्रपत्ती के लिए लागू नहीं हैं क्योंकि:
- इस प्रपत्ती की महानता या अन्यथा, स्थान, काल आदि की श्रेष्ठ या निम्न प्रकृति से नहीं है
- जिस प्रकार पवित्र नदी में डुबकी लगाने वाला व्यक्ति या तो शुद्ध या अशुद्ध हो सकता है, वैसे ही यह प्रपत्ती स्वयं इतनी स्वाभाविक रूप से शुद्ध है कि शुद्ध और अशुद्ध दोनों व्यक्ति इससे संबंधित हो सकते हैं।
- यह प्रपत्ती चेतनों (संवेदनशील प्राणीयों) की रुचि के उपयुक्त परिणाम प्राप्त करने का साधन है
प्रपत्ती के लिए स्थान, समय, विधि और योग्यता के आधार पर प्रतिबंधों का अभाव भारद्वाज संहिता में बताया गया है “नजाति भेदं नकुलं नलिङ्गं नगुणकरियाः | न देशे कालौ नावस्थां योगोह्ययम् अपेक्षते || ब्रह्म क्षत्र विशश्शूद्राः स्त्रियश्चान्तर जातयः | सर्व एव प्रपद्येरन् सव दातारम् अच्युतम् ||” (यह प्रपत्ती विभिन्न प्रजातियों (आकाशीय, मानव, पशु, पक्षी), ब्राह्मण आदि कुलों, लिंग, गुण, अच्छे कर्म, स्थान, समय, जीवन के चरणों जैसे बचपन, वयस्कता, बुढ़ापे की अपेक्षा नहीं करती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, महिलाएँ, जो वर्ण व्यवस्था से बाहर हैं ये सभी अच्युत तक पहुँच जाएँगे जो हर चीज के निर्माता हैं)।
प्रपत्ती के लिए परिणाम के आधार पर प्रतिबंधों की कमी को सनत कुमार संहिता में समझाया गया है “प्रपत्तेः क्वचितप्येवं परापेक्षा नविदत्यते | साहि सर्वत्र सर्वेषां सर्व काम फलप्रदा ||” ( कर्मयोग जैसे अन्य साधनों के विपरीत, प्रपत्ती बाहरी सहायता की अपेक्षा नहीं करती है। यह प्रपत्ती सभी के लिए सभी स्थानों पर कोई भी वांछित परिणाम दे सकती है)।
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
आधार – https://granthams.koyil.org/2021/01/01/srivachana-bhushanam-suthram-23-english/
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