श्रीवचन भूषण – सूत्रं ३८

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अवतारिका

श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी उस विषय की व्याख्या कर रहे हैं जो पहिले “इक्कुणङ्गळ् प्रकाशिप्पदु इङ्गे” में (ये गुण यहाँ प्रकाशमान हैं) कहा गया था।

सूत्रं – ३८

पूर्तियैयुम् स्वातंत्र्यत्तैयुम् कुलैत्तुक् कॊण्डु, तन्नै अनादिक्किऱवर्गळै तान् आदरित्तु निऱ्-किऱ इडम्।

सरल अनुवाद 

यह वह स्थान है जहाँ वह अपनी पूर्णता और स्वतंत्रता को कम कर देता है और उन जनों की मदद करता रहता है जो उसे छोड़ देते हैं।

व्याख्या

पूर्तियैयुम् …

पूर्ति

अवाप्त समस्त कामत्वम्  (सभी  इच्छाएँ  पहले  से  ही  पूर्ण  हो  गये  हैं );  उसे कम करने का अर्थ है – जीवात्मा द्वारा जो कुछ भी अर्पित किया जाता है, उसे पूरा करने की आशा रखना।

स्वातंत्रयम

स्वाधीन स्वरूपादिमत्वम् (उसका वास्तविक स्वरूप आदि पूरे रूप से उसके नियंत्रण में है); उसे न्यूनतम करना, अर्थात – अपने वास्तविक स्वरूप, अस्तित्व आदि को अपने भक्तों के नियंत्रण में रखना।

विश्वक्सेन संहिता में कहा गया है “तदिच्छाय महातेजा भुङ्तेवै भक्तवत्सलः | स्नानं पानं तथा यात्रां कुरुतेवै जगत्पतिः: || स्वतंत्रस् स जगन्नाथोपि स्वतंत्रो यथा तथा | सर्व शक्तिर् जगत् दातापि अशक्त इवचेस्टते ||”  (महान सर्वेश्वर जो अपने भक्तों के दोष नहीं देखते, उन्होंने ऐसे भक्तों की इच्छा से भोजन किया; ऐसे ब्रह्मांड के स्वामी ने स्नान करना, अपनी प्यास बुझाना और अन्य गतिविधियाँ उनकी इच्छा के लिए की; हालाँकि वह पूरी तरह से स्वतंत्र हैं, वे आश्रित व्यक्ति की भाँति रहते हैं; यद्यपि वे संसार का कारण हैं और सर्वशक्तिमान हैं, फिर भी वे ऐसे रहते हैं जैसे कि उनके पास कोई क्षमता ही नहीं है)।

श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी कृपापूर्वक श्रीरंगराज स्तवम उत्तर शठकम ७४ में कहते हैं “अर्चक पराधीन अखिलात्म स्थिति” (वह जो पूरी तरह से अर्चक (वह जो अपनी हर गतिविधि के लिए उसकी पूजा करता है) पर निर्भर है)।

क्योंकि,  इन्हें उनकी स्वेच्छा के बिना कम नहीं किया जा सकता है,  श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कह रहे हैं “कुलैत्तुक् कॊण्डु”।

तन्नै अनादिक्किऱवर्गळै तान् आदरित्तु निऱ्-किऱ इडम्

जबकि वह सुलभता से पहुँचने योग्य रहते हैं, यह सोचकर कि “भगवान जो प्राप्त करने सबसे दुर्लभ हैं, उन्हें सुलभ से प्राप्त करने योग्य मार्ग से हमें  देखने मिल रहा है” और बड़ी उत्सुकता से अनुसरण करने के बदले, संसारी व्यक्ति सुलभता से प्राप्य होने के कारण भगवान की उपेक्षा करते हैं। वे उन संसारियों को त्यागते तो नहीं, ऊपर से अर्चावतार में रहकर उनके बिना टिके रहने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं।

उसकी पूर्णता और स्वतंत्रता को कम करने से, सौलभ्यम् (सलभ पहुँच) और सौशील्यम् (सरलता) प्रकट होते हैं। जो लोग उसे त्याग देते हैं उनकी सहायता करने से स्वामीत्वम् (प्रभुत्व) और वात्सल्यम् (मातृत्व सहनशीलता) प्रकट होते हैं।

वैकल्पिक व्याख्या 

पूर्तियैयुम् …” इस वाक्य से, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी चार महत्त्वपूर्ण गुणों (वात्सल्यम्, स्वामीत्वम्, सौशिल्यम् और सौलभ्यम्) में से सौलभ्यम् की गुणवत्ता पर प्रकाश डाल रहे हैं; इस विषय में, पिछले सूत्र के साथ सम्बन्ध महान सौलभ्यम को उजागर करने के संदर्भ में है। इससे बढ़कर सौलभ्यम् नहीं है – स्वयं को यहाँ शाश्वत रूप से प्रकट करके उपस्थित करने से अधिक, वह जो सभी प्रकार से पूर्ण है और अनियंत्रित रूप से स्वतंत्र है, स्वयं को अपेक्षावादी और आश्रित बनाता है और उन संसारियों की सहायता करता है जो उनका अनादर करते हैं; जबकि सौलभ्य भगवान के सभी पाँच रूपों अर्थात पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चा में मौजूद हैं, जैसा कि वह स्वयं दयापूर्वक  बताते हैं कि सौलभ्य इनमें से प्रत्येक रूप में उनकी सूची के क्रम में उत्तरोत्तर बढ़ते जाता है, सौलभ्य का परम निवास अर्चावतार है। विश्वक्सेन संहिता में इसकी व्याख्या की गई है “एवं पञ्च प्रकारोहम् आत्मनां पततामदः | पूर्वस्मादपि पूर्वस्माद् ज्यायाम्श्चैव उत्तरोत्तरः || सौलभ्यतो जगत्स्वामी सुलभोहि उत्तरोत्तरः ||”  (मैं जो इन पाँच रूपों में रहता हूँ, उन आत्माओं के प्रति जो इस संसार में डूबे हुए हैं, इन सभी रूपों में क्रम से अपने गुणों को बढ़ाता हूँ; क्या ब्रह्मांड के स्वामी इन सभी रूपों में क्रम से अधिक सुलभता से प्राप्य नहीं हैं?)

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/01/21/srivachana-bhushanam-suthram-38-english/

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