श्रीवचन भूषण – सूत्रं ५३

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पिछले सूत्र (तन्नैप् पेणवुम् पण्णुम् धरिक्कवुम् पण्णुम्) में बताया गया है कि आऴ्वारों के स्व यत्नं, भगवान को अपने निकट लाना और जैसे ही वे आते हैं उन्हें दूर करना, जो परस्पर विरोध गुण हैं, उनकी अत्यधिक भक्ति के कारण होते हैं; ऐसे परस्पर विरोध गुण जो भगवान के प्रति अत्यधिक भक्ति के कारण चेतन (जीवात्मा) में होते हैं, वे उन स्वभावों में भी देखे जाते हैं जो भगवान से संबंधित हैं – ऐसा श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं।

सूत्रं – ५३

इन्द स्वभाव विशेषङ्गळ् कल्याण गुणङ्गळिलुम्, तिरुच्चरङ्गळिलुम्, तिरुनामङ्गळिलुम्, तिरुक्कुऴलोसैयिलुम् काणलाम्। 

सरल अनुवाद

ये विशेष स्वभाव भगवान के दिव्य गुणों, बाणों, नामों और बाँसुरी की दिव्य ध्वनि में देखे जाते हैं।

व्याख्या

इन्द …

इन्द स्वभाव विशेषङ्गळ्

यहाँ श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी पिछले सूत्रों में जो समझाया गया था उस विषय में नहीं कह रहे हैं, बल्कि “ऐसे विशेष स्वभाव” के विषय में बता रहे हैं। अर्थात्, भगवान आनंददायक तत्त्व सिद्ध होते हुए, जो लोग उन्हें अनुभव करते हैं, उनके लिए वह पालने वाले और हानिकारक दोनों प्रतीत होते हैं।

कल्याण गुणङ्गळिलुम्

जैसा कि नच्चियार् तिरुमोऴि ८.३ में कहा गया है उनके दिव्य गुण धारण करने वाले प्रतीत होते हैं “गोविन्दन् गुणम् पाडि आवि कात्तिरुप्पेने” (मैं गोविंद के गुणों को गाकर स्वयं को बनाए रखूँगी) और क्षति पहुँचाने वाले प्रतीत होते हैं जैसा कि श्रीसहस्रगीति (तिरुवाय्मोऴि) ८.१.८ में कहा गया है, “वल्विनैयेनै ईर्गिन्ऱ गुणङ्गळै उडैयाय्” (बड़ा पापी जो मैं हूँ, आप में वह गुण हैं जो मेरे हृदय को चुभता है)। अतः दिव्य गुणों में ऐसा भिन्न-भिन्न प्रभाव देखने को मिलता है।

तिरुच्चरङ्गळिलुम्

उनके दिव्य बाण धारण करने वाले प्रतीत होते हैं जैसा कि पेरिय तिरुमोऴि ७.३.४ में कहा गया है “सरङ्गळाण्ड तण्तामरैक् कण्णनुक्कन्ऱि ऎन् मनम् ताऴ्न्दु निल्लादे” (मेरा हृदय बाणों पर शासन करने वाले कमल आँखों वाले भगवान के सिवाय किसी और के द्वारा धारण नहीं करेगा) और क्षति पहुँचाने वाले प्रतीत होते हैं जैसा कि पेरिय तिरुमोऴि १०.२.९  में  कहा गया है “सरङ्गळे कॊडिदाय् अडुगिन्ऱ” (बाण जो मुझे बड़ी निर्दयता से चोट पहुँचा रहे हैं)। इसलिए दिव्य बाणों में ऐसा भिन्न-भिन्न प्रभाव देखने को मिलता है।

तिरुनामङ्गळिलुम्

उनके दिव्य नाम धारण करने वाले प्रतीत होते हैं जैसा कि तिरुनेडुन्ताण्डगम् १४ में कहा गया है, “तिरुमालैप् पाडक् केट्टु मडक्किळियैक् कै कूप्पि वणङ्गिनाळे” (अपने विनम्र पालतू तोते को श्रीमन्नारायण के दिव्य नामों को गाते हुए सुनकर, उसने अपनी हथेलियों को जोड़कर उसकी वन्दना की) और यही दिव्य नाम क्षति पहुँचाने वाले भी प्रतीत होते हैं जैसा कि श्रीसहस्रगीति ९.५.८ में कहा गया है, “कण्णन् नाममे कुऴरिक् कॊन्ऱीर्” (आप कृष्ण का नाम बुड़बुड़कर मुझे मार रहे हैं)। इसलिए दिव्य नामों में ऐसा भिन्न-भिन्न प्रभाव देखने को मिलता है।

तिरुक्कुऴल् ओसैयिलुम्

उनकी दिव्य बाँसुरी की ध्वनि धारण करने वाली प्रतीत होती है जैसा कि पेरुमाळ् तिरुमोऴि ६.९ में कहा गया है “ऎङ्गळुक्के ऒरु नाळ् वन्दूद उन् कुऴलिन्निसै पोदराये” (क्या आप एक बार हमारे लिए अपनी दिव्य बाँसुरी की ध्वनि नहीं बजाएँगे?) और क्षति पहुँचाने वाली प्रतीत होती है जैसा कि श्रीसहस्रगीति ९.९.५ में कहा गया है “अवनुडैत् तीङ्गुऴल् इऱुमालो” (कृष्ण की बाँसुरी की मधुर ध्वनि हमें बेध रही है)। इसलिए बाँसुरी की दिव्य ध्वनि में इतना अलग-अलग प्रभाव देखने को मिलता है।

दिव्य गुण आदि जो सदैव आनंददायक होते हैं, वे भोक्ता (आऴ्वार्) के प्रेम की स्थिति के आधार पर पोषण या हानि पहुँचाते प्रतीत होते हैं, गुणों आदि के स्वरूप के आधार पर नहीं। इसलिए, अत्यधिक भक्ति के कारण जो विशेष स्वभाव दर्शाए जाते हैं वे इन गुणों आदि में भी देखा जा सकता है।

उद्धृत पाशुर जो भगवान के गुण आदि के प्रति अलग-अलग भाव को उजागर करते हैं, यद्यपि एक ही आऴ्वार् से नहीं हैं [वे अलग-अलग आऴ्वार् से हैं], सभी आऴ्वार् एक ही प्रकृति के होने के कारण, और उन सभी आऴ्वार् की भक्ति भगवान द्वारा दयालुता से प्रदान की जाने के कारण और यहाँ उद्देश्य केवल भक्ति के उन विशेष स्वभाव की प्रकृति का प्रदर्शन होने के कारण, आऴ्वारों के पाशुरों में अलग-अलग उदाहरण देने में कोई विरोधाभास नहीं है ।

 [एक अन्य प्रश्न]

क्या पेरिय तिरुमोऴि १०.२.९ “सरङ्गळे कॊडिदाय् अडुगिन्ऱ” श्रीराम द्वारा पराजित राक्षसों का कथन नहीं है? क्या इसे पेरिय तिरुमोऴि ७.३.४ “सरङ्गळाण्ड में कही गई बात का विरोधाभासी कथन माना जा सकता है? क्योंकि श्रीपरकाल  स्वामीजी भगवान श्रीराम की विजय की इच्छा रखते हैं, इसलिए उन्होंने श्रीराम द्वारा पराजित राक्षसों की मनोदशा धारण की और उन राक्षसों की मनोदशा में बात की, जिस प्रकार वे कभी पिराट्टियों (भगवान की दिव्य पत्नी) की मनोदशा ग्रहण करते थे और उनकी भाषा में बोलते थे। टीकाकारों ने इस पाशुर की व्याख्या इस प्रकार की है। इसलिए इसे दिव्य बाणों द्वारा उन्हें क्षति पहुँचाने का प्रमाण मानने में कोई त्रुटी नहीं है, क्योंकि आऴ्वार् ने अपने प्रेमपूर्ण स्वभाव के कारण उनकी मनोदशा को मान लिया और माना कि दिव्य बाण उन्हें हानि पहुँचा रहे थे।

सूत्र ५२ और ५३ के लिए वैकल्पिक स्पष्टीकरण । 

“तन्नैप् पेणवुम् पण्णुम् धरिक्कवुम् पण्णुम्” (स्वयं का पोषण करना और स्वयं को बनाए रखना) में समझाए गये दो प्रतिक्रियाओं द्वारा यह समझाया गया है कि, अत्यधिक भक्ति आत्मा को भगवान के आगमन तक प्रतीक्षा करने के बदले उसे बुलाने के लिए आत्म-प्रयास में संलग्न करती है, और उसके आने पर प्रेमरोष के कारण, उसे दूर धकेलने पर‌ विवश करती है और उसके पश्चात भी धारण किए रखती है; श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी विश्लेषण करते हैं कि क्या इसी प्रकार की विरोधाभासी प्रतिक्रियाएँ अन्य स्वभावों में भी देखी जा सकती हैं। अर्थात्, ये विशेष प्रतिक्रियाएँ जैसे कि एक विशेष स्वभाव के विषय में इस प्रकार बोलना, जो एक मन की स्थिति में बनाए रखता है और जो दूसरी स्थिति में क्षति पहुँचाता है जैसा कि नच्चियार् तिरुमोऴि ८.३ में देखा गया है “गोविन्दन् गुणम् पाडि आवि कात्तिरुप्पेने”, में देखा जा सकता है उसके शुभ गुण आदि जो पालन और क्षति दोनों का कारण बनते हैं।

इस प्रकार, सूत्र २३ “प्रपत्तिक्कु से यहाँ तक, प्रपत्ती की महानता, प्रपत्ती के लक्ष्य की महानता, प्रपत्ती करने वाले तीन प्रकार के व्यक्तित्व, तीन प्रकार के प्रपत्तियों के बीच अत्यधिक भक्ति के हेतु से किए प्रपत्ती का वर्चस्व, किस प्रकार भक्ति की अवस्थाओं के कारण प्रपत्ती अवैध हो जाती है, और ऐसी भक्ति की प्रतिक्रियाएँ – इन सभी को श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने दयालुतापूर्वक समझाया है।

अडियेन् केशव रामानुज दास 

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/02/25/srivachana-bhushanam-suthram-53-english/

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