श्रीवचन भूषण – सूत्रं ६१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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अवतारिका

यह पूछे जाने पर कि “अन्यथा [यदि पिछले सूत्र में कहे अनुसार स्वीकार नहीं किया जाता है], यदि चेतना को कुछ और करने की भी आवश्यकता है तो हानि क्या है?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी इस सूत्र में कृपापूर्वक समझाते हैं।

सूत्रं – ६१

अल्लादपोदु बन्धत्तुक्कुम् पूर्तिक्कुम् कॊत्तैयाम्।

सरल अनुवाद

अन्यथा, [चेतन का भगवान के साथ] सम्बन्ध और [भगवान की] पूर्णता में दोष होगा।

व्याख्या

अल्लाद …

अल्लादपोदु

यह स्वीकार करने के बजाय कि, चेतन को केवल स्वयं के विषय में जानने की और भगवान को सहायता करने से न रोकना की आवश्यकता है, यदि यह कहा जाए कि चेतन को लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कुछ और करने की आवश्यकता है।

बन्धत्तुक्कुम् पूर्तिक्कुम् कॊत्तैयाम्

ऐसी सोच से दिए गए विषयों को हानि पहुँचेगा-

  • उनका निरूपाधिक शेषत्वम् (प्राकृतिक आधिपत्य) जहाँ चेतना की सुरक्षा करना ही भगवान का उद्देश्य माना जाता है।
  • उनका निरपेक्ष उपायत्वम् (प्राकृतिक साधन) जिसके कारण, वह उसे प्राप्त करने के लिए चेतन से किसी भी प्रयास की अपेक्षा नहीं करता है।

अडियेन् केशव रामानुज दास 

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/13/srivachana-bhushanam-suthram-61-english/

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