श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपापूर्वक उन व्यक्तित्वों के समान होने के सिद्धांत को प्रकट करने के लिए (जिन्हें पिछले सूत्र में बताया गया है) उनके स्वरूप को क्रम अनुसार समझाते हैं। इसमें श्रीजी और द्रौपदी के स्वरूप को कृपापूर्वक समझाने के लिए वे पहले उनके मध्य के अन्तर को बताते हैं।
सूत्रं – ८१
पिराट्टिक्कुम् द्रौपदिक्कुम् वाचि, शक्तियुम् अशक्तियुम्।
सरल अनुवाद
श्रीमहालक्ष्मीजी और द्रौपदी में अंतर उनकी [क्रमशः] क्षमता और अयोग्यता है।
व्याख्या
पिराट्टिक्कुम् …
अर्थात्, श्रीजी जो श्रीरामायण सुन्दरकाण्ड ३९.३० में कहा गया है कि “तत् तस्य सदृशमं भवेत्” (माता सीता हनुमानजी से कहती हैं कि यदि श्रीराम लंका का विनाश करने के पश्चात मुझे अपने साथ ले जाएँ तो यह उनके पराक्रम के लिए उचित होगा) और वहीं रहीं, और श्रीमहाभारत में कहा गया है कि “रक्षमाम्” (आपको मेरी रक्षा करनी होगी) – श्रीजी जिन्होंने श्रीरामायण सुन्दरकाण्ड ५३.२९ में कहा है कि “शीतो भव” (हनुमानजी पर लगी आग ठंडी हो) वे आसानी से कह सकती थीं कि “दग्दो भव” (यह जल जाए) और शत्रुओं को जलाकर धूल में मिला सकती थीं और स्वयं की रक्षा कर सकती थीं, उनमें ऐसा करने की क्षमता थी; दूसरी ओर, द्रौपदी में स्वयं की रक्षा करने की क्षमता नहीं थी भले ही वह अपने शत्रुओं को दंडित करना और अपनी रक्षा करना चाहती थी।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/06/srivachana-bhushanam-suthram-81-english/
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