श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
यहाँ एक प्रश्न आता है।
शास्त्र में समझाया गया है कि स्व इच्छा से भगवान की सेवा के लिये अपने शरीर का त्याग करना भी भगवान तक पहुँचने का एक उपाय है। अर्थात जिसे यहाँ देखा जाता हैं
- अग्नि पुराण “विष्णोः कार्यं समुद्दिश्य देहत्यागो यदा कृतः | तदा वैकुण्ठम् आसाध्य मुक्तो भवति मानवः ||” (अगर कोई भगवान की सेवा के लिये अपने शरीर का त्याग करता है ऐसे व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होगा और वैकुंठ पहुँच जायेगा।)
- वायु पुराण “देव कार परोभूत्वा स्वां तनुं यः परित्यजेत् | सयाति विष्णु सायुज्यम् अपि पातकतृन् नरः ||” (अगर कोई व्यक्ति कितना ही बड़ा पापी हो, यदि भगवान की सेवा के लिये अपने शरीर का त्याग करता है वह भगवान विष्णु के धाम पहुँचता है।)
- वामन पुराण “रङ्गनाथं समाश्रित्य देहत्यागं करोतियः | तस्यवम्शे मृताः सर्वे गच्छन्त्यात्यन्तिकं लयम् ||” (जो व्यक्ति बिना किसी अपेक्षा के श्रीरंगनाथ भगवान की शरण में आ जाता है और अपना शरीर त्याग देता है, उसके कुल में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति परमपद को प्राप्त होता है।)
- इसके अलावा, विशेष रूप से इस मुद्दे को भगवान ने स्वयं महाभारत अश्वमेध पर्व, विष्णु धर्म के ५ वें अध्याय में समझाया है “अग्निप्रवेशं यश्चापि कुरुते मत्गतात्मना | सयात्यग्नि प्रकाशेन विमानेन ममालयम् || प्राणाम्स् त्यजतियो मर्त्यो मां प्रपन्न्योप्यनाशकम् | बालसूर्य प्रकाशेन व्रजेत् यानेन मत् गृहम् ||” (जिसने अपना मन मुझमें लगाया है और जो अग्नि में प्रवेश करता है वह मेरे धाम, परमपद को प्राप्त होगा। वह हवाई वाहन पर सवार होगा जो अग्नि की तरह चमकता है और मेरे पास पहुँचता है। जो मेरे प्रति समर्पित है वह अपना शरीर त्यागने के पश्चात एक उज्ज्वल वाहन में यात्रा करता है, जो चमक में युवा सूर्य की भाँति होता है और मेरे धाम को प्राप्त होता है जहाँ कोई क्षय नहीं है)
एक प्रपन्न, अनन्य साधन होते हुए, उसे भगवान के अलावा किसी अन्य साधन का अनुसरण नहीं करना चाहिए। ऐसी स्थिति में, क्या पिळ्ळै तिरुनऱैयूर् अरैयर् को, एक प्रपन्न होकर, ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए था? उन्होंने भगवान के लिए अपना शरीर क्यों त्याग दिया?
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर इस प्रश्न का उत्तर यहाँ देते हैं।
सूत्रं – ८६
इवनुक्कु वैधमाय् वरमदिऱे त्यजिक्कलावदु, रागप्राप्तमाय् वरुमदु त्यजिक्क ऒण्णादिऱे।
सरल अनुवाद
प्रपन्न के लिए कोई भी विषय [जिसे साधन माना जा सकता है] जो नियमों और विनियमों के हिस्से के रूप में आता हो, उसे छोड़ा जा सकता है, परंतु जो कुछ भी प्रेम से आता है उसे नहीं छोड़ा जा सकता है।
व्याख्या
इवनुक्कु …
अर्थात्, प्रपन्न के लिए शास्त्रों में वर्णित “इदं कुर्यात्” (ऐसा करो) जैसे कथनों का विश्लेषण किया जा सकता है और आवश्यकतानुसार उनका परित्याग किया जा सकता है। इसके विपरीत, भगवान जो इतने आनंददायी हैं, जिनके अभाव में जीवन कायम नहीं रह सकता और जो हमारे लिए उपयुक्त लक्ष्य हैं, उनके प्रेम के कारण होने वाले विषयों का परित्याग नहीं किया जा सकता, चाहे कोई कितना भी प्रयत्न क्यों न करे।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/11/srivachana-bhushanam-suthram-86-english/
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