श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः
अवतारिका (परिचय)
प्रश्न यह है कि, “जबकि भगवान गुणत्रय (सत्व,रज,तम) बंधक चेतनों को ध्यानपूर्वक शास्त्रों का प्रकटीकरण करते हैं, यदि वे उन बंधकों की रुचि अनुसार लक्ष्य और उपाय बतलाते हुए शास्त्रों का प्रकटीकरण करते हैं, तो क्या वे इस जगत में ही डूबे नहीं रह जाएँगे?” नायनार बताते हैं कि अन्ततः वे भी उनके मोक्ष के लिए एक पग हैं।
चूर्णिका १५
अदु तानुम् आस्तिक्य विवेक अन्यशेषत्व स्वस्वातन्त्र्य निवृत्ति पारतन्त्र्यङ्गळै उण्डाक्किन वऴि।
सरल व्याख्या
यह विधि क्रमशः चरणबद्ध रूप में भगवान के द्वारा ही व्यवस्थित की गई है – आस्तिक्य (आस्तिक बनना), विवेक (विवेकी होने का ज्ञान), अन्यशेषत्व निवृत्ति (दूसरों के अधीन होने का उन्मूलन), पारतन्त्र्य (पूर्ण अधीनता)
व्याख्यानम् (टिप्पणी)
इसका अर्थ है कि केवल मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग पर ले जाने वाले शास्त्र का प्रकटीकरण करने के स्थान पर भगवान श्येनविधि (काला जादू अनुष्ठान) आदि को प्रकट करते हैं जो बंधन की ओर ले जाता है। इसका कारण है –
- घोर अज्ञानी जो तमस गुण से भरपूर हैं, नास्तिक (जो शास्त्रों में विश्वास नहीं रखते) होते हुए और धन सञ्चय के उद्देश्य से दूसरों को हानि पहुँचाने के मार्ग में होते हुए, उनको यदि मोक्ष दिया जाता है उन्हें यह अच्छा नहीं लगेगा; इसलिए वे उनके लिए श्येनविधि का विधान करते हैं, जो कि दूसरों को बहुत हानि पहुँचाती है। जैसे कि आपस्थम्ब सूत्रम् में कहा गया है “श्येनेन अभिचरण यजेत” और जब इसको करने से उन्हें लाभ मिलता है, तब वे आस्तिक बन जाते हैं (शास्त्रों में विश्वास करते हैं) भगवान के प्रयास से वे स्वीकार करते हैं कि शास्त्र हैं।
- जब कोई व्यक्ति आस्तिक बनता है तब भगवान से स्वर्गादि (देवलोक) को लक्ष्य के रूप में और उसके पुरुषार्थ के उपाय निर्धारित करते हैं, जैसे कि इसमें कहा गया है, “ज्योतिष्ठोमेन स्वर्ग कामो यजेत” (जो स्वर्ग को प्राप्त करना चाहता है उसे ज्योतिष्ठोम का पालन करना चाहिए)। इसके माध्यम से, व्यक्ति भगवान के प्रयास से प्रकृति और आत्मा के मध्य अंतर का ज्ञानी होता है।
- जैसे ही व्यक्ति आत्मा और प्रकृति के मध्य का अंतर जान लेता है, तब भगवान उसे आत्मा (स्वयं) के आनन्द का उपाय बताते हैं। इसी के माध्यम से, भगवान के प्रयास से आत्मा अन्यशेषत्व निवृत्ति (भगवान के अतिरिक्त दूसरों के प्रति दास्य भाव का त्याग) प्राप्त करता है।
- भगवान इसके माध्यम से स्वयं के परमानन्द को प्राप्त कराने और उसके उपाय अर्थात् भक्तियोग को दर्शाते हैं। इस प्रकार भगवान के इस प्रयास से स्वतंत्रता का उन्मूलन होता है।
- तत्पश्चात्, जब कोई व्यक्ति अन्य उपायों को करने आने वाली बाधाओं को सोचकर शिथिल अनुभव करता है तब भगवान उस व्यक्ति को प्रपत्ति की ओर ले जाते हैं, अर्थात् अपने प्रयास का त्याग। इस प्रकार वह पारतन्त्र्य प्राप्त करता है जो स्वयं की यथार्थ स्थिति है।
- भगवान इस प्रकार की व्यवस्था करते हैं, जिससे वह चरणबद्ध होकर प्रगति कर सके।
इस प्रकार से चूर्णिका ११ में, “इवै किट्टमुम् वेट्टुवाळनुम्…”, से लेकर यहाँ तक निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को समझाया गया है।
- आत्मा के अचित और अयन (भगवान) के साथ सम्बन्ध का प्रभाव, जो संसार और मोक्ष के कारण की अंतिम अवस्थाएँ हैं।
- इनमें से अचित के साथ सम्बन्ध अनित्य है, और अयन के साथ नित्य है।
- भगवान और आत्मा के मध्य सम्बन्ध ही शास्त्र के प्रकटीकरण का कारण है।
- इसमें, वे शास्त्र जो केवल मोक्ष की ओर ले जाने वाले हैं उनके प्रकटीकरण के स्थान पर, सभी चेतनों की माता होने के कारण, वे शास्त्र इच्छानुसार बन्धन की ओर ले जाने वाले का प्रकटीकरण करते हैं।
- तत्पश्चात् वे शास्त्र भी उनको चरणबद्ध विधि से मोक्ष की ओर ले जाएँगे।
अडियेन् अमिता रामानुज दासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2024/03/09/acharya-hrudhayam-15-english/
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