श्री:
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श्रीवैष्णव दिनचर्या (भाग–२)
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी – कालक्षेप गोश्टि
पिछले लेख में हमने सामान्य निर्देश देखे कि कैसे एक श्रीवैष्णव इस संसार में रहकर अपना जीवन काल बिताये। अब हम श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी के श्रीवचन भूषण, जो एक दिव्य शास्त्र है, में देखेंगे और समझेंगे कि एक श्रीवैष्णव कि दिनचर्या कैसी होनी चाहिए।
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी श्रीवचन भूषण में भागवतों की महानता और भागवत अपचार की क्रूरता के बारें में समझाते हैं। आगे वह यह समझाते हैं कि कैसे एक श्रीवैष्णव कि दिनचर्या होनी चाहिए। अब हम उन्ह सुत्रों को देखेंगे जो हमारे पूर्वाचार्यों के सारे तत्वों का सार है।
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इस शोकार्त संसार में रहते हुए हमें हमेशा इस बात पर क्याल रखना चाहिए कि :-
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हमारा शरीर ही हमारे आत्मा का सबसे बड़ा और खतरनाक दुश्मन है – क्योंकि यह हमारे अहंकार का मुख्य कारण है (स्व स्वांतन्त्रियम) और हमारे इस सान्सारिक जीवन के प्रति प्रेम का प्रभाव है।
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सांप के जैसे हम सांसारिक मनुष्यों से भी डरना चाहिए। क्योंकि यह हमारे सांसारिक मोह को जागृत करेंगे और जिसके कारण हम इस संसार कि मायाजाल में और दफ़न हो जायेंगे।
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श्रीवैष्णव ही हमारे सच्चे आत्मबन्धु हैं– क्योंकि वही हमें इस सांसारिक मोह से बाहर निकलने में मदद करेंगे और भगवद् विषयों में रुचि बढायेंगे।
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भगवान ही हमारे परमपीता हैं– क्योंकि वह हमेशा हमारे आत्मा के हित के बारें में सोचते और करते रहेंगे।
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आचार्य हम जैसे ज्ञान-रिक्त भूखे इनसान के भोजन के बारें सोचते हैं– क्योंकि हम लोग ज्ञान के भूखे हैं और सिर्फ आचार्य ही हमें यह ज्ञान प्रधान कर सकते हैं।
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शिष्य वह हैं जिसे हम बहुत प्रेम करते हैं– क्योंकि शिष्य के साथ हम भगवद् विषयं बांट सकते हैं और वह भगवद विषयों के रस का आनंद लेता है और हमें भी भगवद् विषयं में आनन्द दिलाता है।
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यह सब दिमाग में रखकर, हमें यह सोचना है:
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अहंकार हमें हमारे सच्चे शुभचिन्तकों (श्रीवैष्णवों) जो हमारे आत्मा के शुभचिन्तक हैं, उनसे दूर ले जाता है और अलग कर देता है।
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यह सांसारिक धन हमें अवैष्णवों से जोड़ता है – जिस समय हम धन के पीछे भागना शुरू करेंगे, हमें सभी के आगे झुकना पढेगा और उन अवैष्णवों का कृपा पात्र बनना पढेगा। इस परिस्थिती में, हम उन अवैष्णवों के कृतज्ञ हो जायेंगे (वो जो भी कर रहा हो उसमे निपुण ही क्यों न हो)- परन्तु एसी कृतज्ञता हमारे लिये हानिकारक है क्योंकि वह हमें भगवद् विषय से दूर ले जाता है और हमें भी उनकी तरह काम करने के लिये मज़बूर करता है।
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काम-वासना हमें अपने विपरीत लिंग के तरफ आकार्षित करता है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, लगाव से हमारे मन में काम पैदा होता है, काम से हमारे मन में इच्छाएँ उत्पन्न होता हैं, इससे हम पागल हो जाते हैं और हमारी अक्ल भी धीरे धीरे कम होती जाती है, और तब तक हम इस संसार के खोखल में गिर जा चुके होंगे।
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इसको ध्यान में रखते हुए, हमें यह पूर्ण विश्वास के साथ प्रकट करना चाहिए कि, आत्म गुण किसी एक के परिश्रम से नहीं बनता है परन्तु भगवान की कृपा से आचार्य द्वारा ही मिलता है और हमें एसे ही मिलना चाहिए।
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सांसारिक विषयों के प्रति प्रेम, प्रभाव छोडना।
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भगवद् विषय के प्रति प्रेम भाव प्रकट करना।
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यह समझना शुरु करना चाहिए कि सांसारिक वस्तुएँ सच में सुखदायी नहीं हैं।
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प्रसाद उतना ही पाये जितना अपने शरीर के लिये जरुरत है। या हमें प्रसाद लेना चाहिए क्योंकि वह तिरुआराधन का अंतिम भाग है (एक बार हम भोजन बनाते हैं और भगवान को नैवेध्य करते हैं तो वह प्रसाद बन जाता है और हमें उसे थोडा पाना ही चाहिए)।
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हम पर जीवन में कोई दुख या विपत्ति आये तो, हमें उसे खुशी से ग्रहण करना चाहिए, यह सोचकर कि 1. वह हमारा कर्म-फल है – क्योंकि हम ने आज तक इतने सारे पुण्य–पाप किये हैं कि हमें उसका नतीजा भोगना ही पडेगा, और इससे हमारा कर्म भोग कम हो रहा है।
2. वह भगवान की कृपा-फल है – क्योंकि हमने हमारा सारा जीवन भगवान को समर्पित कर दिया है, वह हमारे सभी संचित कर्म को क्षमा कर देते हैं और हमें बस थोडा सा दुख दे रहे हैं ताकि हम इस संसार के मोह से छुटकारा पाए और हम परमपद की ओर प्रस्थान करने को तरसे – अगर हमें इधर थोडी सी भी अच्छी जिन्दगी मिल जाती तो हमारे मन में इस संसार के प्रति लगाव बड़ता जाएगा। इसलिए भगवान अपनी निर्हेतुक कृपा से हमें हमारे कर्मानुसार थोडी तकलीफ देते हैं और हमें परमपद की ओर ले जाते हैं।
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हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि, भगवान से मिलने के लिये हमारा अनुष्ठान ही उपाय है। हमें भगवान के निर्हेतुक कृपा को समझना चाहिए और सब उनके कैंकर्य समझकर करना चाहिए।
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पूर्वाचार्यों और परम श्रीवैष्णवों के ज्ञान और अनुष्ठान के प्रति प्रेम भाव बढाना चाहिए।
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दिव्यदेशों के प्रति लगाव बढना चाहिए – क्योंकि यहाँ भगवान अपने भक्तों के प्रति निर्हेतुक प्रेम के कारण वास करते हैं।
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भगवान का मंगलाशासन करना चाहिए – यह प्रार्थना करना कि भगवान को इस भयानक सन्सार में कुछ खतरा न हो – क्योंकि आजकल हम यह देखते हैं कि बहुत से मंदिरों में भगवान की मूर्तियाँ चोरी हो जाती हैं– और हमें यहीं प्रार्थना करनी चाहिए कि भगवान हमेशा सुरक्षित रहें। यह भगवान के प्रति सबसे महत्वपूर्ण भक्ति भाव है जैसे श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी, श्रीगोदम्बाजी, श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी, आदि ने दिखाया।
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सांसारिक वस्तुओं से लगाव नहीं रखना चाहिए, उनसे दूर ही रहना चाहिए।
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परमपद जाने कि मन में सच्ची मनोकामना रखें– हर रोज हम श्रीशठकोप स्वामीजी जैसे रोना चाहिए और श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी से यह पूछना चाहिए कि वह कब हमें मोक्ष देंगे ओर परमपद में भगवान का कैंकर्य करने का मौका देंगे।
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हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हम भागवतों के प्रति मर्यादा और विनम्रता का भाव प्रकट करें और अवैष्णवों के प्रति कोई भी लगाव न रखें।
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हमें आहार नियम (प्रसाद) का पालन करना चाहिए – नियमित भोजन की आदतें।
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वैष्णवों के साथ सम्बन्ध करने कि चाहत रहना चाहिए।
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अवैष्णवों से सम्बन्ध करने से बचना चाहिए।
इस सूत्रं के अंत में कहा गया है कि, यह वे बातें हैं जिसे हर श्रीवैष्णवों को अपने जीवन में पालने कि आदत होनि चाहिए– यह स्वैच्छिक नहीं हैं। अगर हम अपने रोज के जीवन में यह पालन करते तो, हमारे पूर्वाचार्यों ने आश्वस्त किया है कि हम एक पूर्ण श्रीवैष्णव हो सकते हैं। यह सब अपने रोज के जीवन में पालन करने के लिये (आज के परिस्थिति के अनुसार) हमें यह बहुत मुश्किल लगता है। हाँ, यह सब कुछ पालन करना मुश्किल है – इसलिये हमें यह निरंतर सोचना चाहिए कि कैसे हमारे पूर्वाचार्यों ने यह पालन किया और हमारे लिए उच्च मानकों को स्थापित करके दिखाया है। परन्तु सभी को अपने जीवन में कहीं से तो शुरुआत करनी चाहिए। अगर हम लोग एक कदम बडाने की कोशिश करेंगे तो भगवान हमारी मदद जरूर करेंगे जैसे कि ऊपर कहा गया है। अगर भगवान हममे उनके प्रति थोड़ा सा भी लगाव देखते तो वे हममे उनके प्रति प्रेम की भावना को और भी विकसित कर देते हैं।
यह हम सबको काल्पनिक दिखता होगा, परन्तु हमारे पूर्वाचार्यों इसे पूरी तरह पालन करते थे। और हम यह सब अपने एक पूवाचार्य के जीवन में भी देख सकते हैं जो कि इन सब के लिये एक प्रतिबिम्ब थे और कैसे भगवान उनको प्रेम कर उनका सम्मान किया यह अपने अगले लेख में देखेंगे।
अडियेंन केशव रामानुज दासन
पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी रामानुज दासी
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