श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
यह पूछे जाने पर कि “फिर भी, जब किसी को संसार में स्वयं की भयानक स्थिति की अनुभूति होती है, जैसा कि जिथन्ते स्तोत्रम १.४ ‘अनन्त क्लेश भाजनम्’ (सभी दुखों का निवास) में कहा गया है, तो क्या उसे ईश्वर को आकर्षित नहीं करना चाहिए जो स्वयं के समर्पण के माध्यम से आवश्यक समय का मित्र है और उनकी कृपा से विपदा को समाप्त नहीं करना चाहिए?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक उत्तर देते हैं।
सूत्रं ६२
आपत्तै पोक्किक् कॊळ्ळुगिऱोम् ऎन्ऱु भ्रमित्तु अत्तै विळैत्तु कॊळ्ळादॊऴिगैये वेण्डुवदु।
सरल अनुवाद
इस भ्रम में रहकर कि हम विपदा को समाप्त कर रहे हैं, किसी को भी अधिक विपदा उत्पन्न करने से बचना चाहिए।
व्याख्या
आपत्तै …
अर्थात् – यह सोचते हुए कि हम सर्वेश्वर के दिव्य चरणों में आत्मसमर्पण कर देंगे और संसार के विपदा को समाप्त कर देंगे, इस भ्रम में रहते हुए कि हम अपनी प्रपत्ती (शरणागति) के साथ विपदा को दूर कर सकते हैं, किसी को पारतंत्रयम की वास्तविक प्रकृति को हानि पहुँचाने की विपदा उत्पन्न नहीं करना चाहिए (केवल भगवान पर पूरी तरह से निर्भर होना)। विपदा को समाप्त करने के लिए व्यक्ति को यही एकमात्र काम करना चाहिए। यह निहित है कि एक आपत्ति को लाने के बजाय दूसरे को समाप्त करने का प्रयास करते हुए, यदि कोई स्वयं प्रयास से पीछे हट जाता है, तो भगवान स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की रक्षा करेंगे।
अत्तै – सामान्य विपदा; वैकल्पिक रूप से श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी उस विपदा के विषय में बात कर रहे हैं जिसके बारे में यहाँ बात की जा रही है (अर्थात, भगवान के प्रति किसी के पारतंत्रयम को हानि पहुँचाने की विपदा)।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/15/srivachana-bhushanam-suthram-62-english/
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