श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
यह पूछे जाने पर कि “फिर भी, क्योंकि यह कहा जाता है कि सर्वेश्वर जो रक्षक है, सुरक्षा किए जाने वाले चेतन की इच्छा की अपेक्षा करेगा, जैसा कि लक्ष्मी तंत्रम् १७.७९ में कहा गया है “रक्ष्यापेक्षां प्रतीक्षिते” (क्या वह चेतन से रक्षा की इच्छा की अपेक्षा नहीं कर रहा है?), क्या चेतन की इच्छा भगवान द्वारा सुरक्षा दिलाने के लिए आवश्यक नहीं है?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपापूर्वक उत्तर देते हैं।
सूत्रं – ६३
रक्षणत्तुक्कु अपेक्षितम् रक्ष्यत्व अनुमतिये।
सरल अनुवाद
वह सुरक्षा करने के लिए केवल चेतना से सुरक्षा दिलाने की अनुमति की अपेक्षा करता है।
व्याख्या
रक्षणत्तुक्कु …
अर्थात् – प्राकृतिक रक्षक की सुरक्षा के लिए जब भगवान कहते हैं “मुझे तुम्हारी रक्षा करनी है” तो चेतन को केवल ऐसी सुरक्षा को अस्वीकार करने से रोकना होगा और इसे स्वीकार करना होगा। यह निहित है कि जिस इच्छा को “रक्ष्यापेक्षां” (रक्षित चेतन की इच्छा) में समझाया गया है, वह ऐसी सुरक्षा की स्वीकृति की अभिव्यक्ति है। मुमुक्षुप्पड़ी सूत्र २२८ में, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने स्वयं समझाया कि “याचना प्रपत्तिः प्रार्थना मतिः” (प्रपत्ती के रूप में यह प्रार्थना है, प्रार्थना के रूप में मत है) में कहा गया स्वीकारम् (स्वीकृति) ही अप्रतिषेध द्योतकम् (जो उनके निषेध के अभाव को प्रकट करता है) है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/15/srivachana-bhushanam-suthram-63-english/
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