श्रीवचन भूषण – सूत्रं ६४

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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अवतारिका

यह पूछे जाने पर कि “यदि भगवान चेतन की अनुमति की अपेक्षा करके रक्षा करते हैं, तो क्या वह अनुमति साधन नहीं बन जाएगी?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपापूर्वक उत्तर देते हैं।

सूत्रं – ६४

ऎल्ला उपायत्तुक्कुम् पॊदुवागैयालुम्, चैतन्य कार्यमागैयालुम्, प्राप्ति दशैयिलुम् अनुवर्त्तिक्कैयालुम्, स्वरूपातिरेखि अल्लामैयालुम्,‌ अचित व्यावृत्ति वेषत्तै साधनमाक्क ऒण्णादु।

सरल अनुवाद

क्योंकि यह अनुमति सभी उपायों के लिए सामान्य है, क्योंकि यह चेतन होने का प्रभाव है, क्योंकि यह परिणाम प्राप्त करने के पश्चात भी होता है, क्योंकि यह स्वयं की वास्तविक प्रकृति के विपरीत नहीं है, यह विषय जो चेतन को अचित से अलग करता है, उसे साधन नहीं माना जा सकता है।

व्याख्या

ऎल्ला

ऎल्ला उपायत्तुक्कुम् पॊदु

जो कोई भी भौतिक आनंद या मोक्ष का पीछा कर रहा है, जब उससे कहा जाता है कि “आपको इस उपाय का पालन करना होगा”, तो वह इसे करने की अनुमति देने के रूप में “मैं करूँगा” कहने के पश्चात ही इसका अनुसरण कर सकता है; यह अनुमति सभी माध्यमों के लिए सामान्य है। इसके साथ, यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि यह अनुमति/स्वीकृति केवल अधिकारी विशेषण (प्रपन्न का एक गुण) है और इसे कहीं भी साधन के रूप में नहीं माना जाएगा।

चैतन्य कार्यम्

जबकि चेतन और अचेतन दोनों के लिए संरक्षित होना सामान्य विषय है, अचेतन के विपरीत जो ज्ञान से रहित है और भगवान द्वारा दी गई सुरक्षा की अनुभूति करने के लिए योग्य नहीं है, चेतन के पास ज्ञान है और इसलिए, वह भगवान द्वारा दी गई सुरक्षा की अनुभूति करने के लिए योग्य है, इसलिए ऐसी स्वीकृति केवल ऐसे ज्ञान का परिणाम है। इससे यह स्पष्ट है कि यह स्वीकृति साधन नहीं मानी जायेगी, क्योंकि यह चेतन होने के कारण ही विद्यमान है।

प्राप्ति दशैयिलुम् अनुवर्त्तिक्कै

न केवल उपाय दशा (भगवान को साधन के रूप में अपनाते हुए) में, बल्कि उपेय दशा (भगवान के पास पहुँचने के पश्चात उनकी सेवा करते हुए) के समय भी, जहाँ भी वह चेतन के प्रति अपने प्रेम के अनुसार चेतन की सेवा स्वीकार करता है, चेतन यह सोचकर स्वीकार करेगा कि “महामहिम को मुझे अपने दिव्य हृदय के अनुसार स्वीकार करना चाहिए।” इसके साथ यह समझाया गया है कि यदि इस स्वीकृति को साधन माना जाए, तो परिणाम प्राप्त होने पर यह बंद हो जाता।

स्वरूप अतिरेकि अल्लामै

जैसा कि “शेषभूत (दास) का शेषी जो कुछ भी करता है उससे सहमत होना” शेषत्वम् (दासता) और पारतंत्र्यम् (पूर्ण निर्भरता) के उचित है, यह स्वीकृति चेतन की वास्तविक प्रकृति के विपरीत नहीं है, लेकिन यह चेतन की वास्तविक प्रकृति के लिए स्वाभाविक है। इसके साथ यह समझाया गया है कि यदि स्वीकृति को एक अलग साधन माना जाता है तो यह चेतन की वास्तविक प्रकृति के विपरीत होगा।

अचित व्यावृत्त वेषम्

ज्ञातृत्वम् (ज्ञान होने) के कारण, आत्मा की स्थिति अचित से भिन्न है जो किसी भी ज्ञान से रहित है। यहाँ ऐसी स्थिति स्वीकृति/अनुमति है, जो ज्ञान होने का परिणाम है।

साधनमाक्क ऒण्णादु

क्योंकि इस स्वीकृति के असाधनत्वम् (साधन न होने) को समझाने के लिए ऐसे कई कारण हैं इसलिए इसे साधन नहीं कहा जा सकता।

यदि इसे “अचित व्यावृत्ति वेषत्तै” के रूप में माना जाए तो इसका अर्थ होगा – यह अनुमति/स्वीकृति ज्ञान से रहित अचित की तुलना में चेतन में ज्ञान होने के विभेदक कारक के रूप में है।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/16/srivachana-bhushanam-suthram-64-english/

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