श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
अब, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी लक्ष्मणजी के स्वभाव को विस्तारपूर्वक समझा रहे हैं, जो उनमें अग्रणी हैं जो उपेय (कैंकर्य) में स्थित होने के आदर्श हैं।
सूत्रं – ८३
पसियराय् इरुप्पार् अट्ट सोऱुम् उच्च वेणुम् अडिगिऱ सोऱुम् उण्ण वेणुम् ऎन्नुमाप्पोले,काट्टुक्कुप् पोगिऱपोदु इळैयपॆरुमाळ् पिरियिल् धरियामैयै मुन्निट्टु “अडिमै सॆय्य वेणुम्, ऎल्ला अडिमैयुम् सॆय्य वेणुम्; एविक्कॊळ्ळवुम् वेणुम्” ऎन्ऱार्; पडै वीट्टिल् पुगुन्द पिन्बु काट्टिल् तनियिडत्तिल् स्वयम् पागत्तिले वयिट्रैप् पॆरुक्किन पडियाले, ऒप्पूण् उण्ण माट्टादे, ऒरु तिरुक्कैयाले तिरुवॆण् कॊट्रक् कुडैयैयुम् ऒरु तिरुक्कैयाले तिरुवॆण् सामरत्तैयुम् धरित्तु अडिमै सॆय्दार् ।
सरल अनुवाद
जिस प्रकार एक अत्यंत भूखा व्यक्ति कहता है कि उसे पका हुआ भोजन और जो भोजन पकाया जा रहा है दोनों ही चाहिए, उसी प्रकार वन में जाते समय श्रीलक्षम्णजी ने वियोग सहन न कर पाने के कारण कहा, “मैं सेवा करना चाहता हूँ, सभी प्रकार की सेवा करना चाहता हूँ और आप मुझे आज्ञा दें”; जैसे कोई व्यक्ति बहुत अधिक भोजन पकाकर खाने के अभ्यास से अन्य जनों के जितना कम खाने में असमर्थ होता है, उसी प्रकार श्रीअयोध्या को लौटने पर, वन में श्रीराम की सेवा का पूर्ण आनन्द लेने के पश्चात, उन्होंने एक दिव्य हाथ में दिव्य श्वेत छत्र तथा दूसरे हाथ में दिव्य चामर धारण करके सेवा किया।
व्याख्या
पसियर् …
अर्थात् – भूखा व्यक्ति अपनी तीव्र भूख के कारण पके हुए भोजन को भी पाने की इच्छा करेगा और पकाए जा रहे भोजन को भी पाने की इच्छा करेगा; उसी प्रकार, जब भगवान ने कृपा करके वन की ओर यात्रा आरम्भ किये तब श्रीलक्षम्णजी, जो कि श्रीरामायण बालकाण्ड १८-२८ में कहा गया है “बाल्यात् प्रभृति सुस्निग्धः” (बचपन से ही स्नेह के पात्र होते हुए), ने श्रीराम को श्रीअयोध्या से प्रस्थान करते देखा और वे भी श्रीराम के पीछे चल पड़े; यह देखकर कि श्रीराम ने कृपा करके लक्ष्मण को श्रीअयोध्या में ही रहने के लिए विवश किया; उन्होंने श्रीरामायण अयोध्या काण्ड ३१.२२ के अनुसार कहा “कुरुष्व माम् अनुचरम् वैधर्म्यम् नेह विद्यते | कृतार्थोहम् भविष्यामि तवचार्थः प्रकल्पते ||” (आपकी और अम्माजी की सेवा करने और आप दोनों को आनन्द देने के लिए आपको दयापूर्वक मुझे आपके पीछे चलने का आदेश देना चाहिए; इस विषय में कोई त्रुटी नहीं है; इससे, मैं आपका सेवक, संतुष्ट हो जाऊँगा); गंगा पार करने के पश्चात भगवान ने पुनः श्रीलक्षम्णजी के श्रीअयोध्या लौटने के अनेक कारण बताये और श्री लक्षम्णजी ने श्रीरामायण अयोध्या काण्ड के अनुसार उत्तर दिया, “न च सीता त्वया हीना नचाहमपि राघव – मुहूर्तम् अपि जीवावः” (हे राघव! मैं भी आपसे अलग होकर जीवित नहीं रह सकता जैसे माता सीता नहीं रह सकती – आपसे अलग होने के पश्चात हम केवल क्षण भर के लिए जीवित रहेंगे); इस प्रकार, वियोग सहन न कर पाने के कारण,
- “कुरुष्व माम्” (मुझे आदेश दें) कहने के बाद, उन्होंने अपनी दासता के अनुरूप कैंकर्य करने की प्रार्थना की, जैसा कि उन्होंने श्रीरामायण अयोध्य काण्ड ३१.२३ और ३१.२४ में कहा है “धनुराधाय सगुणम् कनित्र पिटकाधरः। अग्रतते गमिष्यामि पन्थानं अनुदर्शयन्।।” (सद्गुणों से युक्त धनुष लेकर, सिर पर खुरपी और डलिया रखकर, आगे का रास्ता दिखाते हुए, मैं आपके आगे चलूँगा; मैं कंदमूल, फल और अन्य वन खाद्य पदार्थ एकत्र करूँगा और उन्हें प्रतिदिन आपको अर्पित करूँगा)
- उसमें भी, उन्होंने एक या दो कैंकर्य के बजाय सभी कैंकर्य करने की प्रार्थना की जैसा कि श्रीरामायण अयोध्या काण्ड ३१.२५ में कहा गया है “भवाम्स्तु सह वैदेह्या गिरिसानुषु रम्स्याते – अहं सर्वं करिष्यामि जाग्रत स्वपतश्चते” (जब तक आप पर्वत की तलहटी में माता सीता के साथ आनंद लेते हैं, मैं आपकी सभी प्रकार की सेवा करूँगा चाहे आप सो रहे हों या जाग रहे हों)।
- पंचवटी में कृपाकर रहते हुए जब भगवान ने ऐसे स्थान पर एक आश्रम बनाने के लिए कहा, जहाँ जल और छाया की प्रचुरता हो, तो श्रीलक्षम्णजी यह सोचकर बहुत चिंतित हो गए कि भगवान ने उन्हें स्वतंत्रता देकर [स्थान आदि चुनने पर] छोड़ दिया है, जैसा कि श्रीरामायण के अरण्य काण्ड १५.६ में कहा गया है “एवम् उक्तस्तु रामेण लक्ष्मणस् सम्यताञ्जलिः| सीता समाक्षं काकुत्स्थम् इदं वचनम् अब्रवीत् ||” (इस प्रकार भगवान द्वारा आदेश दिए जाने पर श्रीलक्षम्णजी माता सीता की उपस्थिति में भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और निम्नलिखित शब्द बोले) और सीता माता के सामने हाथ जोड़कर बोले, जैसा कि श्रीरामायण अरण्यकाण्ड १५.७ में कहा गया है “परवानस्मि काकुत्स्थ त्वयी वर्षशतं स्थिते | स्वयन्तु रुचिरे देशे क्रियताम् इति मां वद ||” (हे सम्राट दशरथजी के पुत्र! भले ही आप सदैव जीवित रहें, मैं आपका ही सेवक रहूँगा। आपको स्वयं ही दया करके यह बताना चाहिए कि यह आश्रम कैसे और कहाँ बनाया जाना चाहिए)। इसके द्वारा, यह कहा जाता है कि श्रीलक्षम्णजी ने भगवान से प्रार्थना की “जब मैं सेवा करता हूँ, तो आप मुझे ऐसा आदेश दें कि मेरी स्वतंत्रता प्रकट न हो।”
पडै वीट्टिल् …
भगवान जब दिव्य राजधानी श्रीअयोध्या लौटे और दिव्य राज्याभिषेक समारोह को स्वीकार किया, तब क्योंकि वन में अकेले सेवा करने के कारण श्रीलक्षम्णजी की कैंकर्य करने की इच्छा कई गुना बढ़ गई थी, जैसे कोई व्यक्ति स्वयं प्रसाद बनाकर लम्बे समय तक पाता है तो उसकी भूख बढ़ जाती है, श्रीभरताऴ्वान् आदि द्वारा की गई सेवा की मात्रा से संतुष्ट न होने के कारण, उन्होंने एक साथ दो कैंकर्य किए, अर्थात् १) दिव्य श्वेत छत्र धारण करना और २) दिव्य श्वेत चामर धारण करना।
यह घटना श्रीरामायण में नहीं देखी जाती है। जब पूछा गया – क्या यह श्रीरामायण अयोध्या काण्ड १२.३२ में नहीं देखा गया है “छत्र चामर पाणिस्तु लक्षमणोनुजः कामहा” (लक्षम्णजी चामर और छत्र लेकर भगवान के पीछे चले)? क्योंकि यह घटना अयोध्या काण्ड में घटित हो रही है, जबकि भगवान को वन जाने से पहिले राज्याभिषेक करना था, जहाँ उन्हें राज्याभिषेक के लिए सजाया गया था और वे अपने निजी कक्ष से निकल रहे थे, जहाँ लक्षम्णजी उनके पीछे चल रहे थे और यह यहाँ की आख्यान के साथ नहीं मिलेगा ।
तो, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने दयापूर्वक इसे कैसे समझाया? उन्होंने इसे पाद्म पुराण के आधार पर वर्णित किया है। वन से लौटने के बाद लक्षम्णजी द्वारा कई कैंकर्य करने की इस घटना को पाद्म पुराण में बहुत विस्तार से समझाया गया है।
पाद्मपुराण के उत्तरकाण्ड २.४९ से प्रारम्भ करते हुए, इसका (वन से लौटने के पश्चात राज्याभिषेक का) विस्तार से वर्णन किया गया है:
अत तस्मिन् दिने पुण्ये शुभे लग्ने शुभोदये |
राघवस्य अभिषेकार्थं मङ्गळं चक्रिरे जनाः ||
तत्पश्चात्, राज्याभिषेक के दिव्य दिन, शुभ समय पर, सर्वोत्तम मुहूर्त में, अयोध्या वासियों ने श्रीराम के दिव्य राज्याभिषेक के लिए शुभ कार्य सम्पन्न किये।
…
मंत्रा भूता जलैस् सुद्धैर् मुनयस् सम्सित व्रताः |
जपन्तो वैष्णवान् सूक्तान् चतुर्वेद मयान् शुभान् ||
अभिषेकं शुभं चक्रुः काकुत्स्थं जगताम्पतिं ||
शुद्ध व्रतधारी साधुओं ने भगवान विष्णु के दिव्य मन्त्रों का जप किया जो शुभ हैं और चार वेदों के रूप में हैं तथा वेदों के मन्त्रों से पवित्र किये गये शुद्ध जल से ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान श्रीराम का दिव्य राज्याभिषेक किया।
तस्मिन् शुभदमे लग्नेश देवदुन्दुबयो दिवि |
निनेदुः पुष्पवर्षानि ववषुश्च समन्ततः ||
उस शुभ घड़ी में आकाश में देवदुन्दुबि आदि वाद्यों की धूम मची हुई थी। चारों ओर से पुष्पवर्षा हो रही थी।
दिव्याम्बरैर् भूषणैश्च दिव्य गन्धानुलेपनैः |
पुष्पैर् नानाविधैर् दिव्यैर् देव्यासह रघूत्वः ||
अलंकृतश्च शुशुभे मुनिभिर् वेद पारगैः ||
वेदों का पाठ करने वाले मुनियों के साथ तथा सीताजी के साथ बैठे हुए श्रीराम दिव्य वस्त्रों, दिव्य आभूषणों, दिव्य सुगन्धित चंदन, दिव्य और विविध पुष्पों से सुशोभित होकर दीप्तिमान हो रहे थे।
छत्रञ्च चामरं दिव्यं ध्रुतवान् लक्ष्मणस् तदा |
पार्श्वे भरत शत्रुघ्नौ ताळवृन्दम् विवेजतुः ||
उस समय श्रीलक्षम्णजी ने दिव्य श्वेत छत्र और दिव्य श्वेत चाँवर लेकर सेवा की; श्रीभरतजी और श्रीशत्रुघ्नजी श्रीराम के दोनों ओर खड़े होकर हाथ में धरे पंखों से उनकी सेवा की।
दर्पणं प्रददौ श्रीमान् राक्षसेन्द्रो विभीषणः |
दधार पूर्ण कलशं सुग्रीवो वानरेश्वरः ||
श्रीविभीषणजी जो कैंकर्य की सम्पत्ति के स्वामी हैं तथा जो राक्षसों के राजा हैं उन्होंने दर्पण प्रस्तुत किया; सुग्रीव महाराज जो वानरों के राजा हैं उन्होंने पूर्णकुंभ (पवित्र घड़ा) लेकर सेवा की।
जाम्बवाम्श्च महातेजा पुष्पमालां मनोहराम् |
वालि पुत्रस्तु ताम्बूलं सकर्पूरं ददौ प्रियात् ||
परम पूज्य जाम्बवंत ने मन को प्रसन्न करने वाली पुष्पमालाएँ अर्पित किये; अंगद ने प्रेमपूर्वक ताम्बूल, सुपारी और कपूर अर्पित किया।
हनुमान् दीपिकां दिव्यां सुषेणस् तु ध्वजं शुभम् |
परिवार्य महात्मानं मंत्रिणस् समुपाशिरे ||
हनुमानजी ने दिव्य दीपक लेकर सेवा की, सुषेण ने ध्वज लेकर सेवा की तथा मंत्रियों ने श्रीराम को चारों ओर से घेरकर उनकी पूजा की।
इन सभी को पाद्म पुराण उत्तर काण्ड ४९वें अध्याय में समझाया गया है। “छत्रञ्च चामरं दिव्यं ध्रुतवान्” के अनुसार, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने दयापूर्वक कहा “तिरुवॆण् कॊट्रक् कुडैयैयुम् तिरुवॆण् सामरत्तैयुम् धरित्तु”।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/08/srivachana-bhushanam-suthram-83-english/
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