श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
अभी तक यह चर्चा की गई की श्री शठकोप स्वामीजी वेदान्त के सर्वोच्च आचार्य है और श्री रामानुज स्वामीजी का श्री दिव्य प्रबंध के साथ गहरा संबंध था। आगे अब यह दर्शाया जाएगा की संस्कृत वेद, उनके उपब्राह्मण, और पूर्वाचार्योंका संस्कृत साहित्य (विशेष रूप से श्री यामुनाचार्य, श्री कुरेश, श्री पराशर भट्टर और श्री वेदान्त देशिक स्वामीजी के साहित्य) दिव्य प्रबंध और आल्वारोंके वैभव का ही गान करते हैं।
वेदों में द्रमिडोपनिषत- श्री शठकोप स्वामीजी (सूर्य)
श्री मधुरकवी स्वामीजी एक बार उत्तर यात्रा में थे, जब उन्होने दक्षिण से एक विलक्षण प्रकाश को आते देखा। बड़ी उत्सुकता से इस प्रकाश का स्रोत ढूंढते ढूंढते वो सीधे दक्षिण में श्री आल्वार तिरुनगरी पहुंचे और उनको पता चला की श्री शठकोप स्वामीजी ही इस प्रकाश का स्रोत हैं।
श्री अझगीय मणवाल पेरुमाल नयनार स्वामीजी आचार्य हृदय ग्रंथ में कहते हैं,
अज्ञान रूपी अंध:कार सूर्य के द्वारा नष्ट नहीं हो सकता। संसार रूपी विशाल महासागर भगवान श्री राम रूपी सूर्य से नहीं सूख सका। हमारे हृदय भगवान श्री कृष्ण रूपी सूर्य से पूरी तरह से खिले नहीं। बकुल पुष्प से सुशोभित श्री शठकोप स्वामीजी रूपी एक नए सूर्य से यह सब संभव हुआ।
श्री नाथमुनी स्वामीजी ने श्री शठकोप स्वामीजी की तनियन की रचना की:
यद्गोसहस्रमपहन्ति तमांसि पुंसां, नारायणो वसति यत्र सशंखचक्रः |
यन्मण्डलं श्रुतिगतं प्रणमन्ति विप्राः तस्मै नमो वकुलभूषणभास्कराय | |
जिसके सहस्र किरण (सहस्रगिती के पाशूर) जीवोंका अंध:कार दूर करते हैं, जिनमें श्री नारायण भगवान शंख चक्र सहित बिराजमान होते हैं, शास्त्रोंमें जैसे वर्णन है वैसे जिनका स्थान यथार्थ ज्ञानियोंद्वारा पूजित है, ऐसे सूर्य जो बकुल पुष्पोंसे सुशोभित श्री शठकोप स्वामीजी हैं उनकी में आराधना करता हूँ।
श्री नाथमुनी स्वामीजी सामान्य रूप सी गाये जानेवाले एक श्लोक का अर्थ बताते हैं,
ध्येयस्सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः |
केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुः धृतशंखचक्रः | |
यह श्लोक में वर्णन है की नारायण जो विशेष रूप से सुशोभित हैं और शंख चक्र धारण करते हैं, वे सविता मण्डल में बिराजमान हैं और उनका ध्यान सदा करना चाहिए। श्री नाथमुनी स्वामीजी दर्शाते हैं की सविता मण्डल या सूर्य का संदर्भ श्री शठकोप स्वामीजी से ही है, जो श्री सहस्रगीति के सहस्र किरणोंसे दैदीप्यमान हैं, जहां भगवान श्री नारायण अति आनंद के साथ बिराजते हैं, जिनका प्रकाश जगत के अज्ञान का विनाश करता है, और जिनके प्रकाश ने श्री मधुरकवी स्वामीजी को उत्तर से दक्षिण तक मार्गदर्शन किया। सवित्रा प्रातुर्भावितं सावित्रम्. – सवितृ से जो उत्पन्न होता है उसे सावित्र कहते हैं। इसी कारण श्री सहस्रागिती को सावित्र कहा गया है। इंद्र ने भारद्वाज को सावित्र का अध्ययन करनेका निर्देश दिया था।
भारद्वाज की समस्या पर इंद्र का समाधान
श्री यजुर्वेद के कटक अनुभाग में प्रथम प्रश्न यजुर्वेद इंद्र के शब्द से संबंधित है.
भरद्वाजो ह त्रिभिरायुर्भिर्ब्रह्मचर्यमुवास। तं ह जीर्णं स्थविरं शयानम्। इन्द्र उपव्रज्योवाच। भरद्वाज। यत्ते चतुर्थमायुर्दद्याम्। किमेनेन कुर्या इति। ब्रह्मचर्यमेवैनेन चरेयमिति होवाच॥ तं ह त्रीन्गिरिरूपानविज्ञातानिव दर्शयाञ्चकार। तेषां हैकैकस्मान्मुष्टिमाददे। स होवाच। भरद्वाजेत्यामन्त्र्य। वेदा वा एते। अनन्ता वै वेदाः। एतद्वा एतैस्त्रिभिरायुर्भिरन्ववोचथाः। अथ तम् इतरदननूक्तमेव। एहीमं विद्धि। अयं वै सर्वविद्येति॥ तस्मै हैतमग्निं सावित्रमुवाच। तं स विदित्वा। अमृतो भूत्वा। स्वर्गं लोकमियाय। आदित्यस्य सायुज्यम् इति॥
भारद्वाज मुनी की इच्छा थी की तीनों वेदोंपर प्रभुत्त्व प्राप्त करें। इसी इच्छा से उन्होने इंद्रा से वर प्राप्त किया की वो तीन मनुष्य की आयु प्राप्त करेंगे। एक जीवन में एक वेद का अध्ययन करेंगे। तीन जीवन के अंत में भारद्वाज मुनी अशक्त होगये। इंद्र ने उनसे पूछा की अगर में तुम्हें और एक जीवन प्रदान करूँ तो तुम उसे कैसे व्यतीत करोगे? भारद्वाज जी ने बताया, “में वेदोंका पुन: अध्ययन करूंगा।
इंद्रा को समझ गया की भारद्वाज जी वेदोंपर प्रभुत्त्व प्राप्त करना चाहते हैं। इंद्र ने अपनी योग शक्ती से तीनों वेदोंकों भारद्वाज जी के सामने तीन विशाल पर्वत के रूप में दर्शाया। इन्द्र ने भारद्वाज जी को बताया की तीन जीवन के अंत में उन्होने तीनों वेदोंका कुछ ही अंश सीखा है। इंद्र ने यह भी बताया के वेद अनंत हैं और उनपर कोई भी प्रभुत्त्व नहीं प्राप्त कर सकता।
भारद्वाजजी उदास हो गए। चिंतायुक्त शब्दोंसे उन्होने पूछा, “फिर क्या वेदोंकों जाननेना कोई मार्ग नहीं है?” भारद्वाज जी की निराशा देखकर इंद्र ने उन्हे परम ज्ञान बताया की जिसे जानने से सब कुछ जाना जा सकता है और इस संसार बंधन से छुटकारा भी मिल सकता है। और वो ज्ञान का स्रोत है सवित्र अथवा श्री सहस्रगिती।
श्री भट्ट भास्कर का कथन इस प्रकार है, “इमं सावित्रं विद्धि, अयं हि सावित्रः सर्वविद्या तस्मात्तत्किं वृथाश्रमेण? इदमेव वेदितव्यमित्युक्त्वा तस्मै भरद्वाजाय सावित्रमुवाच.”
“इस सवित्रा को जानो। यह सवित्रा के माध्यम से वेदोंके समस्त ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। जब यह सवित्रा उपलब्ध है तो फिर तुम क्यों व्यर्थ में संघर्ष करते हो? केवल सवित्रा को जननेकी आवश्यकता है। इसी कारण इंद्र ने भारद्वाज जी को सवित्र का अध्ययन कराया।
वेद अनंत हैं। इनके सीधे अध्ययन से उन्हें पूरी तरह से जानना असंभव है। अगर कोई उन्हे पूरी तरह जानना चाहता है तो हमे सवित्रा के ज्ञान को जानना होगा जिसे जानने से वेदोंका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हमारे आचार्योंने उस सवित्रा (जो सूर्य के किरण हैं) उनको श्री सहस्रगिती के समान समझा। श्री सहस्रगिती , श्री वकुल भूषण भास्कर श्री शठकोप स्वामीजी के सहस्र पाशूर।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/01/31/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-2-english/
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