श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
अद्वितीय वात्सल्य
शरणागति गद्य में “अखिलहेय” जो शुरू होता हैं उसमे श्री रामानुज स्वामीजी भगवान को विभिन्न
नामों से बुलाते हैं। यह सारे नाम सिर्फ बुलाने के लिए उपयोग मे आते है।
भगवान को ‘महाविभूते! श्रीमन्नारायण! श्रीवैकुण्ठनाथ!’ ऐसे बुलाया जाता हैं और तत् पश्चात उनका शुभ गुण उत्सव मनाया जाता हैं। पिछे जो शब्द आते हैं वह हैं “अपार-कारुण्य- सौशिल्य-वात्सल्य औदार्य ईश्वर-सौन्दर्य- महोदधे!” भगवान बहुत गहरे और बड़े समुन्द्र में हैं। वह कल्याण-गुण का सागर हैं। उनमे अनन्त गुण हैं और उसे अंत हिन (अपार) अनुभव किया जा सकता हैं। इन गुणों मे प्रधान दया, आसान मार्ग, आधिपत्य और सुन्दरता है जो इस जगत के आत्मा का पोषण करते है। वात्सल्य का कल्याण-गुण भी इसीमे शामिल हैं।
वात्सल्य क्या है?
वह भगवान का झुकाव हैं आत्मा के थोड़े से भी भूल का उसको दण्ड दिये बिना आनन्द लेना। कुछ विद्वान यह सोचते हैं कि वह इस भूल से अलग हैं। हालकि यह इस लेख में वाद विवाद करने कि कोई बात नहीं हैं। माँ के प्रेम से यह गुण का अनुभव किया जा सकता हैं। एक माँ अपने बच्चे से उसकी गलतियाँ देखे बिना निर्हेतुक प्रेम करती हैं। एक गाय अपने जन्म लिये हुए बछड़े कि गंदगी को भी चाट कर साफ करती हैं। यह सुन्दर गुण हीं वात्सल्य गुण हैं। और भगवान के विषय में यह अनन्त और अधिक विशेष हैं।
शरणागति गद्य में वापस आकर, श्री रामानुज स्वामीजी यह नाम एक दूसरे के साथ लेते है
“आश्रित-वात्सल्यैका- जलधे!” भगवान वात्सल्य गुण से भरे हैं जिससे वह अपने भक्तों को मिलते हैं। श्री रामानुज स्वामीजी निरन्तर “वात्सल्य” गुण का अनुभव करें इसकी क्या अवश्यकता थी? यह प्रश्न का कोई महत्त्व नहीं हैं क्योंकि यह गुण निराला हैं और भक्तों के हृदय को मोह लेता है। यह आश्चर्य नहीं है कि श्री रामानुज स्वामीजी जैसे आचार्य जिन्होंने भक्ति के प्रेम में ऊँचाई हासिल कि हैं वह भी इस गुण से मोह जाते हैं और अपने निर्मल अनुभव के दौरान कई बार इस
गुण को दोहराते हैं।
हालाकि इस कारण के आगे भी आल्वारों के पदों के अनुभव से इसका आधार बताना मुमकिन
हैं।
श्री शठकोप स्वामीजी भगवान वेंकटेश कि प्रशंसा “अगलगील्लेन-इरैयूमेंद्रु अलारमेलमंगई उरई मार्बा!” इस तरह करते है। भगवान का वक्षस्थल जो हमेशा उनसे कभी न बिछड़ने वाली और हर
एक क्षण के लिये उनकी संगनी श्री पेरिया पिराट्टी से घिरा हुआ रहता हैं। वह भगवान से आवाहन करती हैं जिससे उनके भक्तों को उनकी कृपा प्राप्त होती हैं। भगवान के सभी गुण जो उनमे माता के कारण उत्पन्न हुये है उनमे से वात्सल्य गुण हीं प्रबल हैं। इसमे कोई आश्चर्य नहीं
हैं कि उनमे भी सभी गुण हैं जैसे वात्सल्य- वात्सल्यादि गुणोज्ज्वला।
श्रीशठकोप स्वामीजी वात्सल्य गुण को ही आत्मसमर्पण के समय प्रशंसा के लिये उपयोग करते हैं। वह कहते हैं “निगरिल पुगज़्हाय!” दूसरी और एक परिस्थिति में “पुगज्ह” शब्द का अनुवाद
शुभ गुण या श्रेष्ठता हैं। हालाकि इस पद में जहाँ उनके श्रीजी के साथ नित्य सम्बन्ध का प्रभाव मिलता है हमारे आचार्य सर्वसम्मति से इसे वात्सल्य ऐसा अनुवाद करते हैं। भगवान में वात्सल्य
है जो समानता के बिना हैं।
यह ध्यान में रखने कि बात हैं कि वात्सल्य गुण समान नहीं है इसीलिए श्रीरामानुज स्वामीजी ने उसे दूसरे गुणों से अलग रखा। हमारे आचार्य दोहराने ने के लिये नहीं जाने जाते। जब वें करते है तो अच्छे कारण के लिये करते हैं। श्री स्वामीजी उन्हें “अपार-कारुण्य- सौशिल्य- वात्सल्यऔदार्यईश्वर-सौन्दर्य- महोदधे!” कहकर बुलाते हैं, पहिले हमें भगवान के सुंदर गुण को बतलाते हैं। सूची में दूसरों के साथ रहकर भी वात्सल्य गुण दूसरे गुण के जैसा नहीं हैं यह बताने के लिये और जो समान नहीं है उसी नाम का प्रयोग करते है जो वात्सल्य है – “आश्रित- वात्सल्यैका-झलधे!” को दूसरे से अलग रखता हैं।
वात्सल्य भगवान के अनगिनत अच्छे गुणों में से एक हैं। परन्तु वह अद्वितीय हैं अपने में उच्च स्तर हैं।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/15/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-17-english/
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