विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २६

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २५

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – तिरुवहिन्द्रपुरम – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को विशदवाक्शिखामणि की उपाधि दी गयी है (अर्थात् वह जो केवल उतना कहता या लिखता है जितना कि उस तत्त्व को समझाने के लिये आवश्यक है)

५८) उक्ति विरोधी – भाषा / बोली में बाधाएं

उक्ति अर्थात शब्द, भाषा, बात करने का तरीका आदि। इस अंश में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि श्रीवैष्णवों को विशिष्ट श्रीवैष्णव परिभाषा का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये और वही बोलना चाहिये और सांसारिक जनों की तरह बात करने से बचना चाहिये। यह अंश बहुत बड़ा है। फिर भी यह बहुत महत्वपूर्ण है और इसका अपने दैनिक जीवन में भी पालन करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवैष्णवों ने सामान्य शब्दों के लिए कई विशिष्ट सुंदर श्रीवैष्णव शब्दों का प्रयोग किया है। इस विषय का अधिकांश भाग तमील शब्दों से संबंधित है परन्तु यही तत्त्व अन्य भाषाओं में भी लागू किया जा सकता है। अन्य भाषाओं में वहीं कार्य कई शब्दों में समझाया जा सकता है। श्रीवैष्णव होने के कारण हमें सम्मानजनक शब्द अथवा भाषा का प्रयोग करना चाहिये।

  • जब भी कोई श्रीवैष्णव हमें बुलाते है तो हमें “अड़ियेन्” कहकर उत्तर देना चाहिये। और जब सांसारीक जन बुलाते है तो हमें “जी कहिए” ऐसा कहकर उत्तर देना चाहिये। इसका उल्टा करना बाधा है। अगर गलती से या लापरवाही से हम ऐसा करें तो हमें उसका पश्चाताप होना चाहिये और तुरन्त क्षमा माँगना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: एक मुख्य बात, जब भी हमें सच में अपने अपराध का बोध हो तो उसे फिर से अपने जीवन में दोहराना नहीं चाहिये।
  • श्रीवैष्णवों से वार्तालाप करते समय सम्मान जनक शब्दों का उपयोग नहीं करना जैसे कृपया गाईये, कृपया अपने हाथों को धोयीये, कृपया ताम्बुल और सुपारी स्वीकार कीजिये, कृपया शयन करिये ऐसा न कहना बाधा है। श्रीवैष्णव परिभाषा में जब हम किसी से वार्ता करते है तो “अरुळ” (हम पर कृपा करिये), “अमुदु” (प्रसाद) और “तिरु” (सत्कार) यह सामान्य शब्द है। इन्हें “पूज्योक्ति” कहते है – सम्मान के शब्द। इन्हें प्रपन्नोक्ति भी कहते है – प्रपन्नों की भाषा। आगे सांसारिकजन कौनसे शब्द का प्रयोग करते है और प्रपन्नों को इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये वह समझाया गया है। पहिले जो सही शब्द है इनके विषय में समझाया गया है और आगे जिस शब्द से बचना चाहिये वो समझाया गया है। जब हम श्रीवैष्णवों को “विण्णप्पम् अरुळिच्चेय्तरुळ” कहते है उसका अर्थ है अध्यापक स्वामी से कहना कि कृपया गाना प्रारम्भ करें। मन्दिर के सन्निधी में दिव्य प्रबन्ध गोष्ठी के समय मुख्य अध्यापक सबसे “सादित्तरुळ” यह कहकर गाने को कहते है और तनियन प्रारम्भ करते है। अन्य सभी उनके पीछे गाते है। विशेष उत्सव के समय अर्चक या मणियकारर कहते “अरुळप्पाडु साधु श्रीवैष्णवर्गळ्” या “अरुलप्पाडु तिरुवाय्मोलि विण्णप्पम् चेय्वार्”। गोष्ठी के मुख्य अध्यापक और अन्य भी कहते है “नायनरे नायनरे” – यह श्वान सेवा के लिये आज्ञा है। आऴ्वार स्वयं को श्वान बुलाते थे जिसका यह अर्थ था कि वें भगवान के सच्चे सेवक थे और उसके बाद गाना प्रारम्भ करते थे। यह कहीं स्थानो पर देखा जा सकता है। उसी तरह ऐसे उच्च शब्द श्रीवैष्णवों से वार्ता करते समय भी प्रयोग करना चाहिये।
  • सांसारिक लोगों से बात करते समय उच्च शब्दों का उपयोग करने के बजाय यह कहना की कहिये, प्रतीक्षा करिये/बैठीये, निवेदन करिये / तेल देना, विश्राम करिये आदि बाधा है। हमें श्रीवैष्णव परिभाषा का प्रयोग करने कि आवश्यकता भी नहीं हैं और करना भी नहीं चाहिये उन जनों के लिये जिन्हें शायद इन शब्दो की समझ न हो।
  • इन शब्दों का प्रयोग अच्छी तरह से न करना और उनके मूल्य को न जानना बाधा है – वह शब्द है: तीर्थमाडा (स्नान करना), प्रसादप्पड (प्रसाद ग्रहण करना – पाना), अमुदुपड़ी (चावल), करियमुदु (सब्जी), अदिसिल/ तिरुक्कण्णमुत्तु (पायसम – मीठा चावल), प्रसादम (भगवान और भागवतों का शेष प्रसाद), तीर्थ (पवित्र जल), तिरुमंजन (भगवान के अभिषेख के लिये जल), इलैप्प्रसादम/ इलैमुदु (केले के पत्ते में प्रसाद परोसना), मुनरावतु (चुना जो ताम्बूल और सुपारी के साथ प्रयोग होता है)।
  • सामान्य शब्दों का प्रयोग करना जैसे नहा लीजिए, खा लीजिए, चावल, पके हुए चावल, पानी, करी (सब्जी),  वेररिलै (पान के पत्ते), सुण्णाम्बू (चुने की लई) बाधा हैं।
  • इन उच्च शब्दों का प्रयोग देवतान्तर के लिये करना जिन्हें तिरुविल्लात तेवर भी कहते है अर्थात जिनका श्रीभगवान-श्रीमहालक्ष्मी से कोई सम्बन्ध न हो बाधा हैं। वह शब्द है: तिरुपती (दिव्य देश जहाँ भगवान आनन्द से अपने इच्छा से रहते है, उसे तिरुमला-तिरुपती भी मान सकते है), तिरुच्चोलै/ तिरुमालिरुन्चोलै (दिव्य बागीचा), तिरुप पोयगै (दिव्य तालाब), तिरुक्कोपुरम (मंदिर का दिव्य गोपुरं), तिरुमधिल (मंदिर के पास के दिव्य दुर्ग), तिरुविधि (मंदिर के आसपास के दिव्य मार्ग), तिरुमालीगै (आचार्य/ श्रीवैष्णवों का आवास), तिरुवासल (दिव्य मुख्य आगम मार्ग), तिरुमंडपम् (दिव्य मण्डप), तिरुच्चूररू (सन्निधि का अंदरूनी भाग), तिरुवोलक्कम (दिव्य सभा), तिरुप्पल्लियरै (पेरुमाल की दिव्य सन्निधि), तिरूप्पल्लिक कट्टिल (सिंहासन), तिरुमेरकट्टु (विधानं – छत में बांधा हुआ सजावटी वस्त्र), तिरुत्तिरै (दिव्य पटल), तिरुक्कोररोलियल (प्रसाद/ पात्र आदि ढंकने के लिए दिव्य वस्त्र), तिरुवेण चामरम, तिरुवालवट्टम (पंखा), तिरुवड़ी नीलै (चरण कमल/ पादुका), तिरुप्पडीक्कम (वह पात्र जिसमें तिरुवाराधन तीर्थ का संचय किया जाता है), तिरुमंजनक्कुडम (तिरुमंजनम/ तिरुवाराधन के लिए जल लेन का पात्र),  तिरूप्परिकरम (सामग्री), तिरुवंधिक काप्पु (आरती जो पुरप्पादु ले अंत में होती है), तिरुविलक्कु (दिव्य ज्योति), तिरुमालै (दिव्य गलमाल), तिरुवाभरणम् (दिव्य आभूषण), तिरूप्पल्लित तामं (तुलसी की माला), तिरुमेनि (शीष से नख तक भगवान का दिव्य स्वरुप), तिरुनाल (उत्सव/ त्यौहार), आदि अनुवादक टिप्पणी: भगवद, भागवत, आचार्य और आल्वारों के लिये कोई भी शब्द का प्रयोग करे तो पहिले श्री लगाना चाहिये। ऐसा करना हमारा उनके प्रति आदर बतलाता है। परन्तु यह किसी देवताओ के लिये नहीं करना चाहिये। श्रीभक्तिसार स्वामीजी नांमुगन तिरुवंदादि में कहते है “तिरुविल्लात ठेवरै थेरेन्मिन देवू” (मैं उन देवताओं को कभी देवता न समझूँगा जो कभी भी श्रीमहालक्ष्मी से सम्बन्ध न रखते हो)।
  • श्रीरंगम मंदिर को कोयिल ना कहकर श्रीरंगम बोलना, छिंकने के बाद “तिरुवरंगम” नहीं बोलकर इतर दिव्य देशों के नाम लेना, वेंकटेश भगवान को तिरुवेंकटम न बोलकर केवल वेंकटम बोलना, श्री वरदराज भगवान मंदिर को “पेरुमाल कोयिल” ना बोलते हुये कांचीपुरम बोलना, तिरुवनंतपुरम के जगह अनंतशयन बोलना बाधा है। दिव्य देशों के सम्बोधन होते है। तिरुमलाई – तिरुवेंकटम के लिए, कोयिल – श्रीरंगम के लिए, पेरुमाल कोयिल – कांचीपुरम के लिए, तिरुनारायणपुरम – मेलूकोटे के लिए ये सम्बोधन निश्चित हैं। उनको इतर नामों से बुलाना बाधा है। यें चार दिव्य देश श्रीवैष्णवो के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। श्रीवैष्णवो कों संप्रदाय के सम्बोधन उपयोग में लाना चाहिए, न की सामान्य भाषा। अनुवादक टिप्पणी: एक बार श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी एक श्रीवैष्णव गोष्ठी को उपदेश कर रहे थे तभी एक श्रीवैष्णव छिंकता है और “वेंकटम” ऐसा कहता है। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को क्रोध आता है और वें कहते है तुम्हें “तिरुवरंगम” कहना चाहिये वह श्रीवैष्णव स्वीकार कर लेता है। परन्तु तिरुमला-तिरुपती से होने के कारण जब वह वापस तिरुमला जाकर श्रीअनन्तल्वान स्वामीजी के पास जाकर इसकी चर्चा करता है, तब श्रीअनन्तल्वान स्वामीजी उसे एक बात कहकर वापस भेजते है। वह फिर से भट्टर स्वामीजी के उपदेश सुनने वहां जाकर छिंकता है। वह फिर से “वेंकटम” कहता है – इस पर श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी कहते है “मैंने तुम्हें तिरुवरंगम कहने को कहा है – तो फिर यह गलती क्यों कर रहे हो?”। तब वह श्रीवैष्णव कहता है “श्रीपरकाल स्वामीजी स्वयं पेरिया तिरुमौली के वेरुवाताल में “वेंकटमे” कहते है जो श्रीरंगनाथ के लिये है”। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी जो बहुत चतुर है उन्हें यह उत्तर देते है “देखों यह आल्वार नहीं कह रहे है, यह तो आल्वार परकाल नायकी के चित्त को प्रगट कर रहे है – अगर वह परकाल नायकी होती तो वह भी तिरुवरंगम कहती”। वह श्रीवैष्णव श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के बात से सहमत हो गये।

इस स्थान से श्री रामायण और अन्य पुराणों पुरुषों के नाम यहाँ संप्रदाय परिपेक्ष्य में समझाये गये है। इन सभी महा पुरुषों का कोई विशिष्ट नाम है जिसके द्वारा उनके किसी गुण का बोध होता है। यह बताया गया है हमें सामान्य पद्धती से उनका सम्बोधन ना करते हुये संप्रदाय में वर्णित विशिष्ट नामों से ही संबोधित करना चाहिए। सामान्यतः श्री रामायण को दिव्य शास्त्र का स्थान दिया गया है जो भक्ति के गुण को विशिष्टता से समझाती है।

  • श्री रामायण में – पेरुमाल की जगह श्रीराम बोलना, नाचियार/पिराट्टी की जगह सीताजी बोलना, इलाया पेरुमाल की जगह श्रीलक्ष्मणजी बोलना, कृष्ण की जगह श्रीकृष्ण बोलना (कृष्ण गो चराने वाले हैं, अत: वे श्रीकृष्ण नहीं अपितु मित्र की तरह कृष्ण सम्बोधन पसंद करते हैं।), अलगिय सिंगर की जगह श्रीनृसिंहजी बोलना – भक्तिसार स्वामीजी ने नान्मुगम तिरुवंदादी में कहते है – अलगियान ताने अरियुरुवन ताने ” (सिंह मुख भगवान सबसे सुंदर है, विष्णु सहस्त्रनाम में भी कहा गया है कि “नारसिम्ह वपु श्रीमान”– सबसे सुंदर सिंह मुख धारण किये भगवान), गुह पेरुमाल की जगह गुह बोलना, तिरुवड़ी की जगह श्रीहनुमानजी बोलना, महाराज की जगह श्रीसुग्रीवजी बोलना, पेरिया उदइयार की जगह श्रीजटायुजी बोलना, तिरु तुलै की जगह श्रीतुलसीजी बोलना बाधा है। (गुह को भगवान श्री राम ने अपने भ्राता को स्थान दिया है। अत: उनको गुह पेरुमाल कहते हैं।)
  • अनुवादक टिप्पणी: इस का सार यही है की विशेष आदर से और उनको आनंद मिले ऐसे सम्बोधन से संबोधित करना चाहिए। उत्तर भारत में दक्षिण भाषा के शब्द प्रचलित न होने से यह संभव नहीं हो पाएगा। हमें बस इतना ध्यान रखना है की प्रत्येक शब्द अत्यंत आदर पूर्वक, जिसको सम्बोधन करते हैं उसे अच्छा लगे ऐसा और हमारे पूर्वाचार्य, आलवारों में प्रचलित हो ऐसा होना चाहिए।
  • आल्वान / आल्वार भगवान के बड़े भक्तों के लिये प्रयोग किया जाता हैं जैसे श्रीविभीषण आल्वान, श्रीगजेन्द्राल्वान, तिरुवाझियाल्वान (सुदर्शन चक्र), श्रीपाञ्चजन्याल्वान (शंख), श्रीभरताल्वान, श्रीशत्रुघनाल्वान, कोईलाल्वार (भगवान कि सन्निधी), नम्माल्वार (श्रीशठकोप स्वामीजी)। ऐसे न करना बाधा हैं। हम यह भी देख सकते है कि श्रीपेरियावाचन पिल्लै ने घण्टाकर्ण, जो मृत शरीर खानेवाला राक्षस हैं उनकी भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति को देखकर उन्हें भी “श्री घण्टाकर्णाल्वान” कहकर संबोधित किया। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यत: आल्वान / आल्वार वह हैं जो भगवद अनुभव में लीन हैं। भगवान के प्रति उनके लगाव को दर्शाने हेतु वह केवल कुछ व्यक्तिविशेष के लिये प्रयोग करते है। कई आचार्य को आल्वान उपाधी प्राप्त हुई हैं – श्रीकुरेश स्वामीजीइंगलाल्वान, नदातुराल्वान, मिलगाल्वान उनमें से कुछ है जिन्हें भगवान के प्रति उनकी अत्यंत प्रीति के लिए ऐसे संबोधन से शुशोभित किया गया.
  • “तीर्थ नारायण” के बजाय “सालग्राम” कहना बाधा है। सालग्राम दिव्य देश जहाँ के निकट कण्टकी नदी में भगवान शिला रूप में प्राप्त होते है। सामान्यत: भगवान को “सालग्राम” कहा जाता है। श्रीवैष्णव परिभाषा में यह सही नहीं है। उन्हें तीर्थ नारायण कहकर बुलाया जाता है (क्योंकि वें तीर्थ (जल) में प्राप्त होते है)। उन्हें “श्री मूर्ति” भी कहा जाता है। अनुवादक टिप्पणी: सालग्राम शिला बहुत पवित्र हैं। भगवान पत्थर रूप में प्राप्त होते हैं जिन्हें कोई भी अपने तिरुमाली में कम से कम आवश्यकता से पूजा कर सकता हैं। तीर्थ का अर्थ भी पवित्र हैं – इसलिये भगवान को तीर्थ नायनार भी बुलाते हैं। नायनार अर्थात “भगवान” या “सबसे अधीक सम्मान जनक”।
  • विशेष उपाधी को न जानना या प्रयोग न करना बाधा है। उन विशेष उपाधीयों मे शामिल हैं:
  • श्रीमत द्वारपति नायनार – भगवान के मन्दिर आदि के मुख्य द्वारपालों के नाम।
  • तिरुवासल काक्कुम मुदलीगल – यह द्वारपाल मन्दिर के अन्दर हैं (निकट सन्निधी के बाहर)। तिरुपावै के १६वें पाशुर में – “नायगनाय् निन्र नन्दगोपनुदैय कोयिल काप्पाने! तोरण वायिल काप्पाणे!”, भगवान के सेवक जो सभी क्षेत्रों कि रक्षा करते हैं ऐसे पहचाना गया है।
  • सेनै मुदलियार – श्रीविष्वक्सेनजी – भगवान के मुख्य सेनापती।
  • नम्बी मूत्ता पिरान – श्रीबलरामजी जिनकी भगवान कृष्ण के बड़े भ्राता ऐसे स्तुति किया गया है और वह जो हमेशा भगवान का खयाल रखते हैं।
  • श्री मालाकार – जैसे विष्णु पुराण में “माल्योपजीवन:” ऐसे बताया गया हैं, वह जो अपना जीवन पुष्पहार बेचकर बिताते है। अनुवादक टिप्पणी: उन्होने भगवान कृष्ण को सबसे अच्छा हार सबसे अच्छे इरादे से दिया और भगवान को बहुत खुश किया।
  • श्री विदुरजी – विदुर (ध्रुतराष्ट्र और पाण्डु के भाई) जिन्हें विदुराल्वान भी कहते थे भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त हैं। अनुवादक टिप्पणी: उनकी स्तुति “महा मथि” (वह जो बहुत विद्वान हो) ऐसे किया गया हैं। उन्होंने केले फेंककर भगवान कृष्ण को बड़े प्रेम भाव के कारण छीलके खिलाये। सच्चा ज्ञान अर्थात भगवान के प्रति उपासना।
  • श्री नन्दगोप – नन्द महाराज जिन्होंने भगवान कृष्ण को पाल पोसकर बड़ा किया। अनुवादक टिप्पणी: इनकी भी व्याख्यानों में बहुत जगह भगवान कृष्ण के प्रति लगाव के कारण स्तुति हुई हैं।
  • हमारे पूर्वाचार्य द्वारा जिन भगवान का नाम न लिया गया हो उन भगवान का नामस्मरण करना बाधा है। भगवान का नाम जैसे हरीश, सुरेश, नरेश आदि आये हैं परन्तु यह नाम हमारे आचार्य प्रयोग नहीं करते थे और इसलिये हमें भी उनका प्रयोग नहीं करना चाहिये।
  • जैसे हमारे पूर्वज बड़े आनन्द से प्रयोग करते थे वैसे आचार्यों का नामस्मरण किये बिना गाना बाधा हैं। हमारे पूर्वाचार्य सच्चे आचार्य कि स्तुति “पिल्लै”, “आल्वान”, “आण्डान”, “नम्बी” आदि का प्रयोग कर करते थे।
  • एकांतीयों (वह श्रीवैष्णव जो भगवान को हीं उपाय और उपेय मानते हैं) को उनके गाँव, वंश और जन्म पर परखना बाधा हैं। श्रीवैष्णव का उनके जन्म के आधार पर निर्णय नहीं करना चाहिए। यह बहुत बड़ा पाप हैं। उनके गाँव के आधार पर भेद करना भी पाप हैं। श्रीवचन भूषण के ७९ और १९४ से २०० सूत्र में यह तत्व को पूर्ण विस्तार से समझाया गया है। कृपया इसे पढ़े और स्पष्ट हो जाये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीवैष्णवों कि स्तुति को स्थापित करते है। उन्होने शास्त्र के प्रमाण देकर श्रीवैष्णव के स्थान की कई भ्रांतियाँ और सन्देह को दूर किया है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने सुन्दर और विस्तृत व्याख्यान में कई प्रमाण दर्शाते हैं और विस्तार से समझाते हैं इसलिये यह तत्व स्पष्टता से समझा गया है। उदाहरण के लिये सूत्र ७९ कहता हैं “एकांती व्यापदेशतवय:” – यह श्लोक विष्वक्सेना संहिता से लिया गया हैं। इस व्याख्या में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़े सुन्दरता से विस्तार से यह श्लोक को समझाते है – “जो केवल भगवान के हीं शरण में जाता है वह ही अपने गाँव, जाती आदि बढाई में नहीं पड़ता है परन्तु वह भगवान से अपने सुन्दर और नित्य सम्बन्ध कि बढाई में रहता है”। वह आगे यह भी समझाते हैं कि ऐसे भागवतों के लिये सबकुछ (गाँव, जाती, गोत्र आदि) भगवान ही हैं। सूत्र १९४ से २०० में भागवत अपचार विस्तार से समझाया गया हैं। यहाँ पर श्रीवैष्णव के शरीर त्याग करने के पश्चात क्या शब्द / या पंक्ति कहना हैं विस्तार से समझाया गया हैं। आल्वार कहते हैं “पणिकण्दाय चामारे” (चामारे का अर्थ “मरना है”। “मरणमानाल वैकुण्ठम” (जब कोई श्रीवैष्णव शरीर त्याग करता है वह श्रीवैकुण्ठम जाता है। आजकल श्रीवैष्णव परिभाषा में जब कोई श्रीवैष्णव शरीर त्याग करता है तो उसे “आचार्यन् तिरुवड़ी अदैन्तार”)। पूर्वाचार्य के ग्रन्थों में कई शब्द हैं जो श्रीवैष्णवों के शरीर त्याग करने से संबंधीत हैं जैसे “तिरुवडिच चार्न्तार” (तिरुवड़ी का अर्थ चरण कमल भी है और भगवान भी – तिरुवड़ी चार्न्तार का अर्थ चरण कमल को प्राप्त करना या भगवान को प्राप्त करना), “परमपदम् एय्तिनार” (परमपद को प्राप्त करना – सर्वोच्च तिरुमाली), “तिरुनाडू अलंकरित्तार” (व्यक्ति पवित्र स्थान पर पहूंचना और उसको सजाना), “अवतारं तीर्थं प्रसाधित्तायीररू” (अवतार का अन्त हो गया)।
  • इस बात से यह समझना चाहिये कि आदरणीय कौन से प्रकार के श्रीवैष्णव हैं वैसे पदों का प्रयोग करना चाहिये – ऐसा न करना बाधा है। परमपदधाम और तिरुनाडु दोनों का अर्थ एक ही हैं – केवल भाषा अलग हैं – पहिला संस्कृत और दूसरा तमील में है। फिर भी परमपदधाम सामान्य शब्द है और तिरुनाडु विशेष शब्द है। केवल आचार्य श्रेष्ठ जब देह त्याग करते है तो “तिरुनाडु अलंकरित्तार” ऐसे स्तुति करते है। यह बहुत कठिन है कि किस के लिए कौनसा शब्द का प्रयोग करना है – समय चलते इसे हमें अपने बड़ों से हीं सिखना हैं। अनुवादक टिप्पणी: अन्तिमोपाय निष्ठा में यह चरित्र समझाया गया हैं। श्रीपरवस्तु पट्टरपिरान जीयर कहते हैं – श्रीरामानुज स्वामीजी के परमपदधाम जाने के कुछ समय तक श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी कुछ समय तक इस धरती पर विराजमान थे। परन्तु जब वे भी परमपदधाम को प्रस्थान कर दिये तब एक श्रीवैष्णव श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के पास जाकर कहते हैं “श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी परमपदधाम को प्रस्थान कर दिये”। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी उत्तर देते हैं “श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी के लिये तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिये”। वह श्रीवैष्णव पूछता हैं “क्यों नहीं? क्या वें परमपदधाम को प्रस्थान किए ऐसे हम नहीं कह सकते क्या?”। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं कि परमपदधाम प्रपन्न और भक्तों/ भागवतों (वह जो भक्ति योग के परिश्रम से परमपदधाम को जाता है) के लिये सामान्य है – श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी का उद्देश वह नहीं था। तब वह श्रीवैष्णव पूछता हैं “क्या आपके मन में कोई और स्थान हैं?” और श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी समझाते हैं “हाँ। तुम्हें यह कहना चाहिये श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों में अंतरध्यान हो गये” – यह तथ्य मेरे आचार्य (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) ने समझाया था। इसी तरह कि घटनायें श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के पेरियाल्वार तिरुमोझी के व्याख्यान में ४.४.७ पाशुर में भी समझाया गया हैं। मुलभुत रूप यह समझाया गया हैं कि सामान्यत: जो श्रीवैष्णव इस संसार को छोड़ कर जाते हैं उन्हें “तिरुवडीच चार्न्तार” से प्रगट करते है। अगर वह श्रीवैष्णव भागवत कैंकर्य में लिप्त थे तो उन्हें “तिरुनाडू अलंकरित्तार” कहा गया है। अगर वह श्रीवैष्णव आचार्य कैंकर्य में लिप्त थे तो उन्हें “आचार्य तिरुवड़ी अदैन्तार” कहा गया है।
  • श्रीवैष्णवो को कष्ट हो ऐसे बात करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हमें हमेशा अच्छी तरह बोलना चाहिये। शास्त्र में कहा गया हैं “सत्यम ब्रुयत प्रियं ब्रुयात” – सत्य बोलते समय भी सुखदता से बोलना चाहिये जो सामने व्यक्ति को स्वीकारनिय हो।
  • जो व्यक्ति हमें सुन रहा हैं उससे उसका हृदय ज़ोर से धड़कने लगे इस तरिके से बात करना बाधा हैं। अनुवादक टिप्पणी: श्रीराम “मृदु पुर्वंच भाषते” ऐसे जाने जाते हैं – वह जो पहिले मृदु शब्दों से जानकारी लेते हैं, दूसरों को कष्ट पहूंचे बिना मनोहरता से बात करते हैं। इसलिये हम भी अपने आचार्य के पथ का पालन करने का प्रयास कर सकते है।
  • अपनी गलतियों को न कहना, सांसारिक जनों का दोष देखना और अपने केवल अपने अच्छे गुणों को कहना बाधा है। जैसे कहा गया हैं “अहमस्मि अपराधानाम आलय:” मैं सभी दोषों का घर हूँ, हमें अपने आप को बहुत नीचा और नम्र स्थान पर देखना चाहिये। श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “तीवीनैयो पेरिताई” (मेरे कई दोष हैं)। अगर कोई अच्छे गुण हैं तो वह भगवान देखेंगे और उसे स्वीकार करेंगे। हमें अपनी बढाई का प्रचार करने कि कोई जरूरत नहीं है।
  • भगवान और भागवतों कि स्तुति न करना बाधा है। भगवान में कोई दोष नहीं हैं। उन्हें दोषरहित ऐसा कहा जाता है। भागवत भी पवित्र होते हैं – फिर भी इस संसार में रहने के कारण वें दोष से प्रभावित हो जाते है। हमें फिर भी उन दोषों कि ओर न देखते हुए उनके पवित्र गुणों कि बढाई करनी चाहिये। भागवतों में दोष देखना बहुत बड़ी गलती है।
  • केवल भगवान कि स्तुति पर केन्द्रीत होकर आचार्य कि स्तुति को र्निलक्षित करना बाधा है। जैसे हम पहिले ही चर्चा कर चुके है कि भगवान दोषरहित और पवित्र है। भागवतों को भी कसौटी कहा जाता है। एक श्रीवैष्णव का बेटा बुरी संगत में पडकर पथभ्रष्ट हो जाता है। उस श्रीवैष्णव को अपने पुत्र के इस परिस्थिति को देखकर बहुत दुख होता है। परन्तु एक दिन अचानक से वह पुत्र बदल जाता है और शिखा, यज्ञोपवित, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक आदि सहित पिता को आदर भी देता है। वह श्रीवैष्णव आनंदित होकर उसी क्षण पूछता हैं “क्या तुमने श्रीकुरेश स्वामीजी के दर्शन किये?”। इससे हम यह समझ सकते हैं कि उस श्रीवैष्णव को यह पूर्ण विश्वास था कि केवल भागवतों कि कृपा से उनका लड़का बदल गया है। भागवतों कि महिमा भगवान कि महिमा से अधीक है। भागवतों में आचार्य हीं सबसे बड़े है – हमें अपने आचार्य के बारें में कभी भी उच्च बोलना चाहिये।
  • आध्यात्मिक विषयों में ज्ञानी होने से हमें निरन्तर आलवार / आचार्य के पाशुरों और स्तोत्र को गाना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। पाशुरों को गाते समय हमें उनके दिव्य अर्थों का भी अनुसन्धान करना चाहिये। इसमें हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा रचित कई ग्रन्थ भी हैं जिन्हें पढ़कर हर समय स्मरण भी करना चाहिये।
  • हमारे आचार्य के सिखाये गुरु परम्परा मन्त्र और द्वय महामन्त्र का जाप छोड़ अन्य मन्त्र का जाप करना और ऐसे गुरु परम्परा मन्त्र और द्वय महामन्त्र के जाप का त्याग करना बाधा हैं। द्वय महामन्त्र (तिरुमन्त्र, द्वय मन्त्र और चरम श्लोक) रहस्य त्रय का सूचक हैं। अनुवादक टिप्पणी: जैसे हमने समझा हैं कि हमारे पूर्वाचार्य द्वय महामन्त्र का निरन्तर जाप करते थे और हमें यह भी समझना चाहिये कि द्वय महामन्त्र का जाप पहिले गुरु परम्परा का जाप किये बिना नहीं किया जा सकता है यानि हम पहिले अम्माजी या भगवान के पास नहीं जाते हैं बल्कि हम गुरु परम्परा के द्वारा ही जाते हैं। इसिलिए हमारे आचार्य द्वय महामन्त्र का जाप करने से पहिले गुरु परम्परा मन्त्र का जाप करते थे।

यहाँ गुरूपरम्परा मन्त्र हैं जिसे द्वय महामन्त्र के पहिले कहना चाहिये।

अस्मद् गुरूभ्यो नम: (हमारे स्वयं के आचार्य)
अस्मद् परमगुरूभ्यो नम: (हमारे आचार्य के आचार्य)
अस्मद् सर्वगुरूभ्यो नम: (सभी आचार्य)
श्रीमते रामानुजाय नम: (श्रीरामानुज स्वामीजी)
श्री पराङ्कुशदासाय नम: (श्रीमहापूर्ण स्वामीजी)
श्रीमद् यामुनमुनये नम: (श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी)
श्री राममिश्राय नम: (श्रीराममिश्र स्वामीजी)
श्री पुण्डरीकाक्षाय नम: (श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी)
श्रीमन्नाथमुनये नम: (श्रीनाथमुनि स्वामीजी)
श्रीमते शठकोपाय नम: (श्री शठकोप स्वामीजी)
श्रीमते विष्वक्सेनाय नम: (श्रीविष्वक्सेनजी)
श्रियै नम: (श्री अम्माजी 
श्रीधराय नम: (श्री भगवान)

श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के २७४ सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी यह दर्शाते है –जप्तव्यम् गुरु परम्परैयुम् द्वयमुम् – हमें निरन्तर गुरूपरम्परा और द्वय महामन्त्र का अनुसन्धान करना चाहिये।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

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1 thought on “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २६”

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