यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ३३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी वेङ्कटाद्रि के लिये प्रस्थान किये 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मन में तिरुमला और अन्य उत्तर भारत के दिव्य स्थानों कि यात्रा कर वहाँ भगवान कि पूजा करने का विचार किया। उन्होंने श्रीरङ्गनाथ भगवान कि सन्निधी में जाकर भगवान कि पूजा कर उनसे प्रार्थना किये “दास तिरुमला जाकर वहाँ श्रीमान के दिव्य चरण कमलों कि पूजा करने कि आज्ञा चाह्ताहूं” भगवान सहमत हुए और श्रीतीर्थ, श्रीशठारी, दिव्य पुष्पहार, आदि प्रदान किया। जैसे यह कहा गया हैं “तदस्तेनाभ्य​ अनुञ्ज्ञातो यातो धरणिम् उत्तराम्” (भगवान कि आज्ञा पाकर उत्तर भारत के दिव्य क्षेत्रों कि यात्रा किये), और उत्तर भारत के दिव्य स्थानों कि यात्रा के लिये प्रस्थान किये।   

तिरुक्कोवलूर, तिरुक्कडिगै  मङ्गळाशासन् 

अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् तुरन्त तिरुमलै के लिये प्रस्थान किये। वें तिरुवेळ्ळऱै में पङ्गयच्चेल्वि तायार् (सेङ्गमलवल्ली) (पंकजसुन्दरी) के पुरुषकार से सेन्दामरैक्क्ण्णन् (पुण्डरीकाक्ष भगवान) कि पूजा करने हेतु प्रस्थान किये जहाँ श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी कहे हैं “मुप्पोदुम् वानवरेत्तुम् मुनिवर्गळ् ” (आकाश से पूरे दिन तिरुवेळ्ळऱै के भगवान कि पूजा होती हैं जहाँ लोग आपके विषय निरन्तर में मंगल सोचते रहते हैं)।  उन्होंने वहाँ भगवान कि पूजा किये और श्रीपाद तीर्थ और श्रीप्रसाद प्राप्त किये। जैसे कि “पादेयं पुण्डरीकाक्ष नामसंकीर्तनामृतम् में कहा गया हैं (पुण्डरीकाक्ष भगवान का नाम संकीर्तन करने का अमृत प्रसाद प्राप्त करने कि राह हैं), राह में द्वय महामंत्र का जप किया और एक आग्रह के साथ तिरुक्कोवलूर् कि ओर प्रस्थान किये जैसे कि कहा गया हैं “पूङ्कोवलूर् तोऴुदुम् पोदु नेज्जे” (हे मेरे उत्तम हृदय! तिरुक्कोवलूर् के भगवान कि निरन्तर पूजा किया करो)। उन्होंने राह में कई स्थानों पर विश्राम कर तिरुक्कोवलूर् पहुँचे। उन्होंने मुदल आऴ्वारों के दिव्य श्रीचरणों में पूजा किये (पहिले तीन आऴ्वार जो प्रारम्भ में तिरुक्कोवलूर् में मिले और एकत्र होकर पहिले तीन सौ दिव्य पाशुरों को गाया जिन्हें बाद में एकत्र में नालायीर दिव्य प्रबन्ध से जाना गया)। उनके सिफारिश से उन्होंने त्रिविक्रम भगवान कि पूजा किये। उन्होंने श्रीसहस्रगीति के २.१०.९ से प्रारम्भ कर “तूवडिविल् पार्मगळ् ” (भूमादेवी जिनका सुन्दर दिव्य स्वरूप है) का पाशुर गया और “तिरुक्कोवलूर् अदनुळ् कण्डेन नाने” (मैंने तिरुक्कोवलूर् के दिव्य स्थान के भीतर पूजा किया) से अन्त किया। उन्होंने मुदल तिरुवन्दादि का ८६वां पाशुर “नीयुम् तिरुमगळुम् निन्ऱायाल् (श्रीअम्माजी और आप दोनों साथ रहकर अपने भक्त जनों पर अपनी कृपा बरसाते हो) गाया। तत्पश्चात उन्होंने तिरुक्कोवलूर् भगवान का तिरुप्पावै का २४वां पाशुर अन्ऱिव्वुलगम् अळन्दाय अडि पोट्रि (आपके दिव्य चरण कमलों का मंगल हो जिससे आपने उस दिन पूरे संसार को नाप लिया) गाकर उनका मङ्गळाशासन् किया। उन्हें वहाँ श्रीतीर्थ और श्रीप्रसाद प्राप्त हुआ। तिरुक्कोवलूर् भगवान उन्हें पीछे खींचते हुए और वेङ्कटेश भगवान कि कृपा उन्हें आगे ढकेलते हुए वें तिरुमला कि ओर आगे प्रस्थान किये। जैसे श्रीसहस्रगीति के ३.३.८ पाशुर में कहा गया हैं कि “कुन्ऱमेन्दिक् कुळिर्म​ऴैकात्तवन् अन्ऱु ज्ञालमळन्द पिरान् परन् सेन्ऱु सेर तिरुवेङ्गडमामलै…” (भगवान ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर गाय और ग्वालों कि ठंडे बारीश से रक्षा किये; उन्होंने अपने चरणों से सारे संसार को नापा; ऐसे भगवान तिरुमला के विशाल पर्वत पर पहुँचे …), “तिरुवेङ्गडत्तायन् ” (ग्वाले जो तिरुमला में विराजमान हैं) के पाशुर में और “मोय्त्त सोलै मोय्पून्तडम् ” (घहने बगीचे और कई जलाशयें एक दूसरे के बहुत करीब हैं) में उन्होंने दिव्य मन से सरलता से प्राप्त होनेवाले श्रीवेङ्कटेश भगवान (तिरुमला के स्वामी) के दिव्य चरणों कि पूजा करने हेतु कई भक्त और तीव्र इच्छा से आगे बढे। राह में उन्होंने तक्कान्    भगवान कि पूजा किये जो तिरुक्कडिगै (आज के समय में शोऴिङ्गपुरम् ) में विराजमान हैं जो बड़े बगीचों से घीरा है और अक्कारक्कनि (शक्कर से बने मीठे फल) जो शोऴिङ्गपुरम्  में पर्वत के ऊपर विराजमान हैं। उन्हें सामाग्री अर्पण किया गया और शोऴिङ्गपुरम् के समीप एऱुम्बि नामक गाँव में प्रख्यात जनों से उनकी पूजा किया गया; उन्होंने अपना प्यार उन सब पर बरसाया और वहाँ से प्रस्थान किये। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/17/yathindhra-pravana-prabhavam-33-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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