श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तिरुमञ्जनमप्पा और भट्टर्पिरान् जीयर् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण होते हैं
प्रतिदिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सूर्योदय से पहिले दिव्य कावेरी नदी में स्नान करने जाते।तिरुमञ्जनमप्पा जो पूर्णत: सत्व कैङ्कर्य में निरत थे और जो बिना कोई लाभ के श्रीरङ्गनाथ भगवान कि सन्निधी में कैङ्कर्य करते थे वें स्वामीजी के संग नदी में स्नान के लिये जाते और उस स्थान पर जाकर स्नान करते जहाँ पर स्वामीजी के स्नान के पश्चात वह नदी का जल स्वामीजी के दिव्य रूप को स्पर्श कर बहता और वे उस जल से स्नान करते हैं। इस कारण से स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होने के लिये उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। उनको स्वामीजी के प्रति बहुत वात्सल्य हुआ और उनके चरणों के शरण हुए। इस घटना को जिन लोगों ने देखा उन्होंने इस श्लोक में उसे कहा:
उषसययंवारिणि सह्यजायाः स्नातो यतीन्द्रप्रवणोमुनीन्द्रः।
तत्रैव पश्चाद् अवगाह्य तीर्थे श्रीतीर्थातादस् तम उपाश्रितोभूत्॥
(सूर्योदय से पूर्व तिरुमञ्जनमप्पा बहते हुए कावेरी नदी के उस जल से स्नान करते हैं जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के स्पर्श में आया हैं जिन्हे यतीन्द्र प्रवणर नाम से जाना जाता हैं। तिरुमञ्जनमप्पा का श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति अधीक प्रेम के कारण श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण हुए)। तिरुमञ्जनमप्पा शास्त्र के सभी अर्थ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मुख से सुने और जैसे कि इस पद में कहा गया हैं “छायावासत्वमनुगच्छेत्” वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के ऊपर पूर्ण निर्भर होकर उनके दिव्य छाया में रहे, एक क्षण के लिये भी उनसे बिछुड़े नही और उनके विश्वसनीय शिष्य होकर रहे।
पश्चात एक व्यक्ति जिसका नाम गोविन्द दासरप्पर् हैं जो बाद में पट्टर पिरान जीयर हो गये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण हुए और दीर्घकाल तक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों में रहे।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी फिर श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप देना प्रारम्भ किया जो सर्वेश्वर पर गाया गया हैं “मुगिल् वण्णन् अडिमेल् सोन्न सोल् मालै आयिरम्” (भगवान के दिव्य चरणों पर हजार पाशुरों कि शब्दों कि माला गाये जिनका बादलों के समान रंग हैं) और “मदिळरङ्गर् वण्पुगऴ् मेल् आन्ऱ तमिऴ् मऱैगळ् आयिरम्” में (श्रीरङ्गनाथ भगवान कि उदार प्रतिष्ठा पर द्राविड वेद पर हजार पाशुर जो मन्दिर के किले में विराजमान हैं) ऐसे कहा गया हैं। उन्होंने दिव्य प्रबन्ध पर भी कालक्षेप करना प्रारम्भ किया और दिव्य श्रीवचन भूषण पर गूढ़ार्थ दिया और ऐसे अनेक गूढ ग्रन्थ पर भी कालक्षेप दिया। वें यह प्रतिदिन करते श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों कि पूजा करते और प्रपन्नगायात्री यानि रामानुज नूट्रन्दादि का पाठ करते जैसे कहा गया हैं “गुरोर्नाम सदा जपेत्” (निरन्तर अपने आचार्य का दिव्य नाम जपते रहना)। वें श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य छाया में रहते थे, निरन्तर श्रीरामानुज स्वामीजी कि पूजा करते और उनके साथ स्वयं को बनाये रखते थे। वें निरन्तर श्रीरामानुज स्वामीजी के वैभव के विषय में बोलते और उनके समान थे। श्रीरङ्गनाथ भगवान कि आज्ञा से अपने मठ के तिरुवाराधन भगवान के रूप में श्रीरङ्गनाथ भगवान कि विग्रह कि स्थापना किये और नित्य प्रति उनकी पूजा करते थे। तुला मास के श्रवण नक्षत्र जो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी का अवतार नक्षत्र हैं के दिन विग्रह कि स्थापना किये और अपने दिव्य हाथो से दिव्य पूजा किये। उस दिन और अन्य पूर्वाचार्यों के नक्षत्र के दिन अपने तिरुवाराधन भगवान को अक्कारवडिसिल् (पायसम्) अर्पण करते थे और उस दिन पूर्वाचार्यों के दिव्य शब्दों को समझाते और श्रीरङ्गम् के धन के लिये मंगलदीप के समान प्रकाशित हुए।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को सुनकर लोगों ने कहा
चिरविरहदश चिन्तानजर्जरचेतसं भुजगशयनं देवं भूयः प्रसादयितुं ध्रुवम्।
यतिकुलपतिः श्रीरामानुजस्य मभूतयन्त्विधि समदुशन् सर्वे सर्वत्र तत्रसुधीजनाः॥
(सभी जगह विद्वत्समाज के लोगों ने कहा कि बहुत दिनों से अपने विरहताप से संतप्त एवं शिथिल हृदय श्रीरङ्गनाथ भगवान को प्रसन्न करने के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी ने ही पुनः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में अवतार लिया हैं)।
उन्होंने आगे काहा
सुमुनिः सौम्यजामाता सर्वेशामेव पश्यताम्।
श्रीसकस्यनिदेशेन शुशुपे देशिक श्रिया॥
(वह आचार्य जो श्रीरङ्गनाथ भगवान जो श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी है कि आज्ञा से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के नाम को आगे बढ़ाते हैं आचार्यश्री (ज्ञान का धन जो एक आचार्य के पास होता हैं) के साथ रहते हैं)।
यह सुनकर अन्य स्थानों में रहनेवाले लोग भी कहने लगे
तदस्समुत्सुखास्सर्वे शतशोत सहस्रशः।
शरणं तस्य सम्श्रित्य चरणौ धन्यतां गताः॥
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि धवलकीर्ति को सुनकर देश, विदेश ग्राम नगर के लोग आकर उनके शिष्य बनने लगे और उनसे सदुपदेश लेने लगे)।
बिना कोई भेद भाव से अनगिनत लोग जो समीप में रहते और जो दूर भी रहते आये और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण हुए। उनकी परमकृपा से जैसे कि कहा गया हैं “तिरुत्तित् तिरुमगळ् केळ्वनुक्कु आक्कि” (उन्हें सुधार कर और उन्हें श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी के दास बनवाये) और “अरङ्गन् सेय्य ताळिणैयोडार्तान्” (उन्हें श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य लाल रंग के चरणों में निरत किया) और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उनकी पहचान को इन शब्दों से जाना “अरङ्गन् मेय्यडियार्गळ्” (श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य अनुयायी) और “तिरुमालडियार्गळ् ” (श्रीमहलक्ष्मीजी के स्वामी के दिव्य अनुयायी)। उनमे भी कोई दोष न देखते हुए दिव्य गुणों को विकसित किया, भगवत विषयम को सुनते हुए उनके दिव्य चरणों के प्रति कैङ्कर्य किया जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें निर्देश देते और आचार्य के प्रति अत्यंत सम्मान के साथ रहते।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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