यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४२

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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जब आच्चि अपने पिताजी के तिरुमाळिगै में निवास कर रही थी तब कन्दाडै  अण्णन् के पिताजी देवराज तोऴप्पर् का श्राद्ध (तीर्थम्) होना था। अण्णन् ने आच्चि को बुलाया श्राद्ध के लिये प्रसाद बनाने को कहा। आच्चि भी वहाँ गई और पूर्ण शुद्धता और प्रसन्नता से प्रसाद बनाया। भगवान को प्रसाद अर्पण करने के पश्चात उन्होंने श्रीवैष्णवों को प्रसाद पवाया और स्वयं भी पाये। प्रसाद पाने के पश्चात कन्दाडै अण्णन् अपने तिरुमाळिगै के बैठक में बैठ गये। 

सिङ्गरैयर्  का संवाद 

एक श्रीवैष्णव श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै से बाहर आये। उन्हें देख कन्दाडै अण्णन् ने उनसे पूछा 

“आपका जन्म स्थान कौनसा हैं?”

“वळ्ळुव राजेन्दिरम्”

“आप यहाँ किस उद्देश से आये हैं?”

“दास श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होने आया हैं। दास को आज आज्ञा प्राप्त नहीं हुआ। दास को आशा हैं वह समय भी जल्द आयेगा”

“इस दिव्य स्थान में कई आचार्य हैं। आप किसी ओर के शरण क्यों नहीं होते?”

“दास को भगवान से आज्ञा हुई हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के हीं शरण होना”

“आप को यह आज्ञा कहाँ से प्राप्त हुई?”

“यह देव रहस्य (दिव्य रहस्य) हैं”

“आपका नाम क्या हैं?”

“सिङ्गरैयर्”

कन्दाडै अण्णन् ने अपने दिव्य मन में यह निश्चय किया कि सिङ्गरैयर् भगवान के कटाक्ष के लिये योग्य हैं। उन्होंने सिङ्गरैयर् का हाथ थामकर अपने तिरुमाळिगै के अन्दर लेगये और उन्हें श्रीतीर्थ, चन्दन का लेप, आदि अर्पण किया और स्नेह से उन्हें कहा “कृपाकर आज रात्री के लिये हमारे तिरुमाळिगै ठहरिये”। वें उनके तिरुमाळिगै के बैठक में अपने भाई कन्दाडै अप्पन् और तिरुक्कोपुरत्तु नायनार् भट्टर् के साथ रहे। उस समय आच्चि श्राद्ध का कार्य सम्पन्न कर यह शब्द कही “जीयर् तिरुवडिगळे शरणम्,पिळ्ळै तिरुवडिगळे शरणम् वाऴि उलगासिरियन् “(केवल जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरण हीं शरण्य हैं, केवल पिळ्ळै स्वामीजी के दिव्य चरण हीं शरण्य हैं, पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी का मंगल हो) जब वों स्वयं के शयन कि तैयारी कर रही थी। यह शब्द उनके तीनों भाईयों के कान में पहुँची जो बैठक में बैठे थे। वें आश्चर्य चकित और भ्रमित हो गये। भट्टर् (तीनों में सबसे छोटे) ने कहा “दास अन्दर जाकर पता लगायेगा” और यह बुलाते हुए अन्दर गये “मदिनियारे” (ओ बड़ी भाभी) आच्चि को पता चल गया कि उन्हें यह पता चल गया हैं कि शयन से पूर्व उसने क्या कहा हैं और वह घबरा गयी। कन्दाडै अण्णन् और अप्पन् ने भट्टर् को बुलाकर कहा “उसे अभी मत जगाओं। प्रभात होते हीं हमें सब कुछ पता चल जायेगा” और शयन के लिये चले गये। कन्दाडै अण्णन् को नींद नहीं आयी क्योंकि वें भक्ति से आगे निकल आये थे। उनकी मुलायम शैय्या सोने के लिये गरम हो गयी; उनके भाईयों को पता चले बिना सिङ्गरैयर् के समीप गये जहाँ वें विश्राम कर रहे थे और उन्हें जगाह कर कुछ शब्द आध्यात्मिकधर्मम्  (आत्मा के सही कार्य) पर कहे। यह सुन कर सिङ्गरैयर् बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात अण्णन् ने उन्हें कहा “दास आप श्रीमान से यह जानने के लिये बहुत उत्सुक हैं कि आप श्रीमान को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होने के लिये भगवान कि आज्ञा कैसे प्राप्त हुई”। सिङ्गरैयर् ने यह सब वर्णन किया: 

“यह दास के यहाँ प्रथा हैं कि इस स्थान के विशेष जनों को हमारे शहर में उगाई गई सब्जीयाँ अर्पण करना। एक दिन एक श्रीवैष्णव ने दास से सब्जीयाँ जीयर स्वामीजी के दिव्य तिरुवडिगळे में अर्पण करने को कहा। दास ने इसे भाग्य मानकर उन्हें मठ में सौंप दिया। यह देख जीयर् स्वामीजी ने दास से पूछा ‘यह कहाँ जोता गया? कौनसा जल प्रयोग में लिया गया? किसने जल दिया? यह यहाँ क्यों लाया गया हैं?’ दास ने बड़े विनम्रता से उनके प्रश्नों का उत्तर दिया ‘यह पवित्र स्थान में विकसित किया गया हैं। यह अडिचेरि नामक गाँव में श्रीमान के अनुयायि द्वारा विकसित किया गया हैं। यह भागवतों के लक्षण हैं’। उत्तर सुनकर जीयर् बहुत प्रसन्न हुए और अपनी स्वीकृति प्रदान किये। उन्होंने दास से मन्दिर जाकर भगवान कि पूजा करने को कहा। एक बार दास सन्निधि में पहुँचते हीं अर्चक दास से पूछे ‘आपने आज सब्जीयाँ किन्हे अर्पण किया?’ दास ने उत्तर दिया ‘जीयर् मठ’। अर्चक दास के प्रति बहुत स्नेही हो गया और दास की पीठ थप थपाई और कहा ‘आप बहुत भाग्यशाली हैं। आपको एक विशेष सम्बन्ध प्राप्त होगा’। उन्होंने दास को श्रीतीर्थ, चन्दन का लेप, दिव्य हार, ताम्बूल, अभय हस्तम् (भगवान के दिव्य हाथ का प्रभाव जो चन्दन के लेप से बना हैं) और श्रीशठारी। दास सोच रहा था ‘दास पर आज बहुत कृपा हो गयी!’ दास ने सुना ‘उसे मजबूती से पकड़ों’। दास को इन शब्दों में कुछ अर्थ ज्ञात हुआ। दास मठ को लौट गया, साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर कहा ‘आप श्रीमान के कारण भगवान ने दास पर बहुत कृपा बरसाये हैं’ मन्दिर में घटीत पूरी घटना को विस्तार से कहा और मठ से जाने कि आज्ञा माँगे। मठ के अनुयायि दास से बहुत स्नेही हो गये और यात्रा के लिये भगवान का प्रसाद दिया। दास ने वह प्रसाद रास्ते में पाया। तुरन्त दास के मन को शुद्धता का अनुभव हुआ और जीयर् स्वामीजी के शरण होने कि इच्छा हुई। उस रात्री दास के स्वप्न में जब दास श्रीरङ्गनाथ भगवान कि सेवा कर रहा था तिरुमणत्तूण् के समीप खड़े होकर श्रीरङ्गनाथ भगवान ने अपना दिव्य हाथ आदिशेष कि ओर उठाया और उन्हें कहा ‘देखो! यह अऴगिय मणवाळ जीयर् हैं। इससे सम्बन्ध बनाओं’। इस विषय के पश्चात दास जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों में शरण होने कि प्रतीक्षा कर रहा था”। यह सब सुनने के पश्चात कन्दाडै अण्णन् बड़ी श्रद्धा से स्वयं में बहुत देर तक सोचे और शयन के लिये प्रस्थान किये। अपने शयन में उन्हें एक स्वप्न आया। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/26/yathindhra-pravana-prabhavam-42-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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