श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
काञ्चीपुरम् छोड़ने के पश्चात कन्दाडै अण्णन् दिव्य कावेरी नदी के तट पर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य सुवर्ण चरणों को देखने के इच्छा से पधारे। श्रीरङ्गम् के सभी विशेष जन उनके आगमन के विषय को जानकर बहुत प्रसन्न हुए। मंदिर के अर्चक सभी के साथ कन्दाडै अण्णन् का स्वागत कर उनको कन्दाडै अण्णन् के दिव्य तिरुमाळिगै में लेगये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी कृपाकर कन्दाडै अण्णन् के दिव्य तिरुमाळिगै में पहुँचे और अपनी कृपा बरसाई। उन्होंने श्रीवेङ्कटेश भगवान और श्रीवरदराज भगवान से प्राप्त सभी प्रसाद को ग्रहण किया और उन स्थानों के घटनाओं के विषय में जानकर प्रसन्न हुए। श्रीवैष्णव जो कन्दाडै अण्णन् से साथ गये थे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उन्हें श्रीवरदराज भगवान द्वारा प्राप्त नाम अण्णन् जीयर् के विषय को बताया। यह सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और कन्दाडै अण्णन् से कहा “हमारे मन को जानते हुए, कितने महान हैं श्रीवरदराज भगवान जिन्होंने कृपाकर एक नाम दिया जो श्रीमान के साथ हमारे सम्बन्ध को स्पष्ट करता हैं!”। कुछ जनों ने कहा “क्या स्वतन्त्र (भगवान) को कुछ भी उल्लंघन करना बाधा हैं!” श्रीप्रतिवादि भयङ्कर् अण्णा स्वामीजी ने भी कहा “श्रिय:पति” जो यह दिव्य नाम भी अद्भुत पहचान बताता हैं। सभी ने हृदय से उनकी प्रशंसा किये।
तत्पश्चात रामानुज दास श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में साष्टांग किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी दृढ़ता से अपने दिव्य चरणों को उनके माथे पर रखा और बड़े विशेषता से उनपर कृपा बरसाई। श्रीरामानुज दास ने भी चार वैष्णवों के माध्यम से उत्तर भारत के दिव्यदेशों से लाये भेट को जीयर स्वामीजी को अर्पण किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने वह सभी स्वीकार किया और गोष्ठी में बैठे भागवतों में वितरण कर दिया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का हृदय भर गया और उन्होंने श्रीरामानुज दास को आलिंगन कर कहा कि उन्हें यह लग रहा हैं कि उन्होंने उत्तर भारत के सभी दिव्यदेशों कि पूजा कर लिये हैं।
फिर एऱुम्बियप्पा के पूज्य पिताजी ने श्रीरामानुज दास के हाथों से एक संदेश भेजा और उन्हें एऱुम्बि पुनः लौट आने को कहे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से बिछुड़ने के कारण अप्पा बहुत दु:खी हो गये। उन्हें दिलासा देने के लिये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें अपने जैसे एक विग्रह और दिव्य चरण पादुका दिये। इन सब घटनाओं को लाने के लिये एक श्लोक कि रचना हुई जो बाद में आनेवालों को यह स्मरण दिलाने में सक्षम बनाता हैं।
प्रीतः प्रेषितवान् मुनिवरवरो यस्मै मुहुः श्रीमुखम्
प्रादात् स्वाङ्ग्रि सरोजसङ्गसुपकं स्वीयामुपानद्युकीम्
स्वीयं सुन्दरम् उत्तरीयम् अमलं स्वां मूर्तिम् अर्चामयीम्
तं देवेशगुरुं भजेम शरणं सम्सार सन्तारकम्
(हम देवराजगुरु जिन्हें एऱुम्बियप्पा भी कहा जाता हैं के शरण होते हैं जिन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आनंद से अक्सर संदेश भेजते थे जिन्हें उन्होंने अपनी चरण पादुका और अर्चा विग्रह प्रदान किये और जिन्होंने संसार के पार लगाया)। फिर एऱुम्बियप्पा के दिव्य पोते पिळ्ळैयप्पा ने भी इस घटना को स्मरण किया। अप्पा ने श्रीवरवरमुनि कि आज्ञा लेकर श्रीरङ्गम् से प्रस्थान कर एऱुम्बि पहुँचे, उनके दिव्य पिताजी कि चरण सेवा कर उनका कैङ्कर्य किया। उन्होंने कई प्रबन्धों कि रचना किये, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आदिशेष, लक्ष्मण रूप के वैभव को सामने लाये जैसे वरवरमुनि प्रबन्ध, वरवरमुनि पँचाश्ट, वरवरमुनि स्थवम, वरवरमुनि मङ्गळाशासन्, वरवरमुनि गध्यम, आदि।
श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को अरङ्गनगरप्पन् अपने तिरुवाराधन रूप में प्राप्त हुए
लगभग उस समय श्रीविश्वक्सेनजी से श्रीवानमामलै में एक संदेश प्राप्त हुआ कि श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को श्रीवानमामलै भेज कर मन्दिर के प्रबन्ध को देखे। श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी ने उसे बड़े आनन्द से स्वीकार किया। उन्होंने श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को श्रीरङ्गनाथ भगवान के सन्निधी में लेकर गये और वानमामलै से प्राप्त संदेश कि घोषणा किये। यह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अभ्यास था कि वें प्रतिदिन श्रीरङ्गनाथ भागवन के सामने दिव्य प्रबन्ध से १०० पाशुर का अनुसंधान भगवान के सन्निधी में करते हैं। उस दिन उन्होंने पेरिय तिरुमोऴि के ११.८.८ “अणियार् पोऴिल् सूऴ् अरङ्गनगरप्पा” का अनुसंधान किया (हे मेरे पिता जिन्होंने श्रीरङ्गम् में निवास किया हैं जो सुगंधीत उद्यानों से घिरा हुआ हैं!) श्रीरङ्गनाथ भगवान (उत्सव मूर्ति) ने इस संदेश को स्वीकार किया और अपना विग्रह “अरङ्गनगरप्पा” जो कृपाकर भूपालरायन (श्रीरङ्गनाथ भागवन [मूल मूर्ति] का दिव्य सिंहासन) पर श्रीरङ्गनाथ भागवन [मूल मूर्ति] के साथ विराजमान थे श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी के दिव्य हाथों में अर्पण किया। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मुख को देख यह अनुसंधान किया “पेरियार्क्काट्पट्टक्काल् पेऱाद पयन् पेऱुमाऱु” (प्रतिष्ठित जनों के कृपा से आपको लाभ मिलना दुर्लभ होगा)। श्रीरङ्गनाथ भगवान ने उन्हें सम्मान दिया जैसे श्रीतीर्थ, तिरुप्परियट्टम्, दिव्य पुष्पहार, अभय हस्थ, आदि और उन्हें श्रीरङ्गम् से श्रीवानमामलै जाने कि आज्ञा प्रदान किये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अरङ्गनगरप्पा को कृपाकर लिया और साथ में नादस्वर संगीत, दिव्य प्रसाद अरङ्गनगरप्पा को अर्पण कर श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को आशीर्वाद कर श्रीवानमामलै के लिये प्रस्थान किया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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