तुला मास अनुभव – पिल्लै लोकाचार्य – श्री वचनभूषण – 1

श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमद वरवरमुनये नम:
श्री वानाचल महामुनये नम:

तुला मास के पावन माह में अवतरित हुए आलवारों/आचार्यों की दिव्य महिमा का आनंद लेते हुए हम इस माह के मध्य में आ पहुंचे है। इस माह की सम्पूर्ण गौरव के विषय में पढने के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/thula-masa-anubhavam-hindi/ पर देखें।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुंदर “व्याख्यान अवतारिका”(व्याख्यान पर परिचय) के माध्यम से अब हम अत्यंत कृपालु पिल्लै लोकाचार्य और उनकी दिव्य रचना श्री वचन भूषण के विषय में चर्चा करेंगे। इस प्रबंध के संक्षिप्त परिचय और तनियन के विषय में https://granthams.koyil.org/2015/11/16/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-srivachana-bhushanam-thanians-hindi/ पर देखा जा सकता है।

इस भूमिका के साथ, आइये अब हम श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित श्रीवचनभूषण के अद्भुत परिचय खंड के अनुवाद को देखते है।

श्रीवेंकटेश्वर भगवान

श्रीवेंकटेश्वर भगवान

तिरुमंत्र समस्त वेदों का सार है। तिरुमंत्र के तीन वर्ण तीन गहन सिद्धांतों को समझाते है (अनन्य शेषत्व – मात्र भगवान के दास होना, अनन्य शरणत्व – भगवान को ही अपना एकमात्र आश्रय स्वीकार करना, अनन्य भोगत्व –  भगवान को ही अपना परमआनंद तत्व जानना और इसे इस तरह भी समझाया गया है कि हम मात्र भगवान के ही आनंदानुभाव के लिए है)। ये तीनों सिद्धांत सभी जीवात्मा के लिए समान है। जैसा की “यत्र रशय: प्रथम जाये पुराणा:” में उल्लेखित है – यद्यपि सभी जीवात्माओं में परमपद (जो पुर्णतःसत्व है) का अधिकारी होने की आवश्यक योग्यता है, जहाँ सभी के ज्ञान पुर्णतः मुदित है, जहाँ नित्य आनंदानुभव है जो भगवान के दिव्य नामों, रूप, गुणों आदि के निरंतर मनन से उत्पन्न होते है, तथापि जैसा कि कहा गया है “अनादि मायया सुप्त:” (अनंत समय से अज्ञान रूपी अन्धकार में रहते हुए) और “तिल तैलवत धारु वहनिवत” (तिल में तेल और लकड़ी में आग के समान अचित वस्तुओं से अविभाज्य), जो बद्ध जीवात्माएं है, वे अनादी माया (जो भगवान द्वारा संचालित है) के आवरण में है, जो उनके ज्ञान को ढक देता है और अनादी अज्ञान के कारण वह अगणित कर्मों (पाप और पुण्यों) का संचय करता हुआ, अनंत जन्मों में सुर, नर, तिर्यक (पशु) और स्थावर (पौधे) के रूप में जन्म लेता है। इन अनेकों जन्म में, वह अनेक भूल करता है, जैसे देहाभिमान (देह को ही आत्मा समझना), स्वातंत्रियम (स्वयं को स्वतंत्र समझना), अन्य शेषत्वं (भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य के दासभूत स्वीकार करना) और इन स्वरुप विरोधी आचरण के अनुसार कार्य करता है और परिणाम भोगता है। ऐसी जीवात्मायें, सभी स्थिति में भगवान को त्यागकर, उनके प्रतिकूल हो जाती है, जो समस्त जगत के एकमात्र स्वामी है और उस जीवात्मा के लिए एकमात्र सर्वश्रेष्ठ उपाय और साधन भी है। इसके फलस्वरूप, उस जीवात्मा को सात चरणों- गर्भ (उदर में आना), जन्म, बाल्य (बालक जो स्वयं अपनी देखभाल नहीं कर सकता), यौवन (युवावस्था जो इन्द्रियों के सुख में लीन है), वृद्ध (बुढ़ापा), मरण (मृत्यु) और नरक आदि से गुजरना पड़ता है, जो नित्य अनंत दुखों को देने वाले है। उन पीड़ित जीवात्माओं में से कुछ, जिन्हें जन्म के समय भगवान अपना कृपा वात्सल्य प्रदान करते है, वह जीवात्मा भगवान को स्वीकार करती है, जिससे उसके रजो और तमो गुणों का नाश होता है और उनमें सत्व गुण का विकास होता है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है।

  • जब किसी में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है, उन्हें अपने कल्याणार्थ, तत्व (जीवात्मा का स्वरुप भगवान के दास होकर रहना है), हित (उपाय) और पुरुषार्थ (उपेय) के विषय में ज्ञान प्राप्ति आवश्यक है।
  • इन तीन सिद्धांतों को शास्त्रों (जो ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत्र है) द्वारा जानने के लिए, वेदों का अनुसरण किया जाता है, जो शास्त्रों में मुख्य है। परंतु जैसा कि “अनंता वै वेदा” में उल्लेख किया गया है कि वेद अनंत है और वेदों द्वारा किसी सिद्धांत के विवेचन के लिए, हमें तय प्रक्रिया का अनुसरण करना अनिवार्य है, जैसे कि “सर्व शाका प्रत्यय न्यायम ” (अर्थात उचित ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेदों के विभिन्न खण्डों के सही समन्वय के द्वारा उस सिद्धांत का निर्णय करना), आदि, इसलिए सिमित बुद्धि वाले सामान्य मनुष्यों के लिए यह अत्यंत कठिन है।
  • यह जानकर कि वेदों द्वारा ज्ञान प्राप्त करना अयंत दुष्कर है, अन्य प्रासंगिक मार्ग है- व्यास आदि महान ऋषियों के सानिध्य में ज्ञान प्राप्त करना, जिन्होंने अपने महान प्रयासों द्वारा वेदों में दक्षता प्राप्त की है और उसके आधार पर स्मृति, इतिहास और पुराणों की रचना की है। परंतु इनमें भी, सिर्फ योग्य मनुष्य ही सार और असंगत तत्वों के मध्य सही प्रकार से भेद कर सकते है।
  • भगवान ने अपनी निर्हेतुक कृपापूर्वक, आचार्य स्वरुप धारण किया और सभी जीवात्माओं के कल्याणार्थ रहस्यत्रय (तिरुमंत्र, द्वय, और चरम श्लोक) का ज्ञान प्रकट किया। परंतु रहस्यत्रय अत्यंत संक्षेप है और सभी के द्वारा उनमें निहित महान अर्थों को जान पाना कठिन है।
  • आलवार (परांकुश/ श्रीशठकोप स्वामीजी, परकाल स्वामीजी, आदि), जो स्वयं भगवान के द्वारा प्राप्त निर्हेतुक कृपा से ही अद्भुत ज्ञान के अधिकारी हुए, उन्होंने सम्पूर्ण वेदों के सारतत्व को जानकर उन्हें अत्यधिक संक्षेप और सटीक रूप में अपने दिव्य प्रबंधनों के माध्यम से समझाया है, जो द्राविड वेद, और उसके अंग, उप-अंगों के नाम से प्रचलित है। तथापि, सिमित बुद्धि के मनुष्यों द्वारा दिव्य प्रबंधनों के मानक उद्देश्यों को पुर्णतः समझ पाना संभव नहीं है।

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 आलवार

  • यह देखकर कि भागवत विषय में रूचि रखने वाले भी अपने सिमित ज्ञान के परिणामस्वरूप उनमें निहित सारतत्व को प्राप्त नहीं कर पा रहे, श्रीनाथमुनी स्वामीजी से प्रारंभ हमारी आचार्य परंपरा, जो आलवारों के निर्हेतुक कृपापात्र थे, जिन्होंने सत संप्रदाय को द्रढ़ता से स्थापित किया, जो सभी शास्त्रों में निपुण थे और अत्यंत दयालु थे, उन्होंने वेदादि के सार को समझकर अत्यंत सरल और सुगम रूप से प्रस्तुत किया, जिससे की अल्प बुद्धि वाला मनुष्य भी उसे भली प्रकार से समझ सके। उन्होंने सत संप्रदाय के सिद्धांतों को विभिन्न ग्रंथों द्वारा प्रकाशित किया।

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 आचार्य परंपरा

  • उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए, पिल्लै लोकाचार्य ने संसार में पीड़ित जीवात्मा के प्रति करुणापूर्वक, जो भगवान की नित्य निरंतर सेवा कैंकर्य के अद्भुत अवसर को बिसरा रही है, उनके कल्याणार्थ बहुत से प्रबंधों की रचना की है। इन सिद्धांतों का प्रचार आचार्य परंपरा के माध्यम से प्रारंभ हुआ। पूर्वाचार्यों ने इन सिद्धांतों के बहुमूल्य गुणों को देखते हुए अपने शिष्यों को इनकी शिक्षा अत्यंत गोपनीयता से प्रदान की थी। इन सिद्धांतों के अत्यंत वैभवशाली स्वरुप को देखते हुए, उन्होंने उन सिद्धांतों को कभी भी जन-साधारण में प्रकट नहीं किया। परंतु, भविष्य की पीढ़ियों के प्रारब्ध को देखते हुए, जो इन महत्वपूर्ण सिद्धांतों से वंचित रह सकते है, पिल्लै लोकाचार्य ने अपनी महान करुणा के फलस्वरूप और स्वपन में स्वयं भगवान द्वारा दिए गए आदेश के आधार पर, श्री वचन भूषण नामक ग्रंथ के माध्यम से महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रस्तुत किया।

पहले, पेररुलाल पेरुमाल (कांचीपुरम वरदराज पेरुमाल) ने अपनी निर्हेतुक कृपा के द्वारा मणरपाक्कम गाँव में नम्बि नाम के एक श्री वैष्णव पर विशेष करुणा की। उन्होंने मणरपाक्कतु नम्बि के स्वप्न में दर्शन देकर उन्हें सत संप्रदाय के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उपदेश किया और फिर उन्हें निर्देश दिया “अब, आप जाएँ और दो नदियों के मध्य स्थित देश में जाकर निवास करे (श्रीरंगम, कावेरी और कोल्लिदम नदियों के मध्य स्थित है), मैं वहां इन सिद्धांतों को सम्पूर्ण विस्तार से समझाऊंगा”। नम्बि उन निर्देशों का अनुसरण करते हुए श्रीरंगम पहुँचते है। वे पेरिय पेरुमाल की आराधना करते हुए वहीँ निवास करते है और अपनी पहचान को प्रकट न करते हुए, पेररुलाल पेरुमाल द्वारा बताये गए सिद्धांतों का निरंतर ध्यान करते है।

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 पिल्लै लोकाचार्य– कालक्षेप गोष्ठी

एक समय जब श्रीरंगम के काट्टलगीय सिंगर मन्दिर् में वे भगवान की सेवा में लग्न थे, तभी भगवान की दिव्य अभिलाषा से पिल्लै लोकाचार्य अपने शिष्यों के साथ वहां पहुंचते है। क्यूंकि वह मंदिर सुदूर स्थान पर था, जहाँ अत्यधिक शांति थी, वे अपने शिष्यों को सत संप्रदाय के रहस्यत्रय का उपदेश प्रारंभ करते है। मणरपाक्कतु नम्बि इन उपदेशों को श्रवण करते है (उस स्थान से जहाँ से अन्य कोई उन्हें देख नहीं पाते) और यह जानकर अचंभित रह जाते है कि यह उपदेश तों पेररुलाल पेरुमाल द्वारा बताये गए सिद्धांतों के समरूप ही है। वे अंदर से बहार सभी के सामने आते है और पिल्लै लोकाचार्य के चरणकमलों में गिरकर कहते है “क्या आप वे ही है?” और पिल्लै लोकाचार्य प्रतिउत्तर में कहते है “हाँ, क्या किया जाना चाहिए?”। तब नम्बि उन्हें बताते है कि पेररुलाल पेरुमाल ने उन्हें यही सिद्धांत समझाए थे और कहा था कि इन सिद्धांतों को विस्तार से जानने के लिए श्रीरंगम की और प्रस्थान करे। पिल्लै लोकाचार्य उल्लासित होकर, नम्बि को शिष्य रूप में स्वीकार करते है और नम्बि उनकी सेवा करते हुए, उनके सानिध्य में सभी सिद्धांतों का विस्तार से अध्यनन करते है। एक समय भगवान, नम्बि के स्वप्न में प्रकट होकर उन्हें निर्देश देते है कि वे पिल्लै लोकाचार्य से विनती करे कि वे इन अद्भुत और अति-महत्वपूर्ण निर्णयों को एक प्रबंध में संकलित करे, जिससे समय के साथ वे विलुप्त न हो। नम्बि, पिल्लै लोकाचार्य के पास जाकर उन्हें भगवान की दिव्य अभिलाषा के विषय में बताते है और तब पिल्लै लोकाचार्य कहते है “यदि यही उनकी अभिलाषा है, तब मैं ऐसा ही करूँगा” और फिर उन्होंने श्रीवचन भूषण की रचना की – यह द्रष्टांत बहुत प्रचलित है।

जिस प्रकार एक माला जिसमें बहुत से रत्न जडित हो उसे रत्न भूषण कहा जाता है, उसी प्रकार क्यूंकि यह प्रबंध, हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा वर्णित वाक्यांशों से परिपूर्ण है और इसका ध्यान करने वाले सभी मनुष्यों के ज्ञान को निखार प्रदान करता है, इसका श्रीवचन भूषण, ऐसा नाम प्रख्यात हुआ।

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पिल्लै लोकाचार्य, श्रीवरवरमुनि स्वामीजीभूतपुरी

इस प्रकार श्रीवचनभूषण ग्रंथ के परिचय खंड का प्रथम भाग यहाँ पूर्ण हुआ। हमारे सतसम्प्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों को अत्यंत सुगमता से प्रस्तुत करने का श्रेय इसी ग्रंथ को है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की अत्यंत सुंदर और स्पष्ट व्याख्यान से पूर्ण यह ग्रंथ हमारे लिए अत्यंत अमूल्य निधि है। इस ग्रंथ को पूर्णरूप से समझाने के लिए इसका व्याख्यान सदाचार्य से श्रवण करना अत्यंत हितकारी है। आइये हम भी उन महान आचार्य चरणों में प्रणाम कर उनकी कृपा प्राप्त करे।

अगले अंकों में हम पिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचनभूषण ग्रंथ के लिए रचित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के इस सुंदर परिचय को आगे भी जारी रखेंगे।

-अदियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/11/aippasi-anubhavam-pillai-lokacharyar-sri-vachana-bhushanam-1/

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