तुला मास अनुभव – भूतयोगी आलवार – इरण्डाम तिरुवंतादी

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

यह लेख भूतयोगी आलवार के इरण्डाम तिरुवंतादी के लिए श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखे गए अवतारिका (प्रस्तावना) का सीधा अनुवाद है। श्री कलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा रचयित इन व्याख्यानों को खोजने, उनके प्रकाशन और इन अद्भुत व्याख्यानों पर सुगम तमिल निरूपण प्रदान करने के अथक प्रयासों के लिए श्री यू.वे. एम. ए. वेंकटकृष्णन स्वामी को धन्यवाद।

कृपया सरोयोगी आलवार के मुदल तिरुवंतादी के अवतारिका को पढने के लिए https://granthams.koyil.org/2013/10/aippasi-anubhavam-saroyogi-azhwar/ पर देखे।

नम्पिल्लै/ श्री कलिवैरीदास स्वामीजी - तिरुवल्लिक्केणि

नम्पिल्लै/ श्री कलिवैरीदास स्वामीजी – तिरुवल्लिक्केणि

मुदल (प्रथम) तिरुवंतादी में, सरोयोगी आलवार ने दर्शाया है कि भगवान, द्वय विभूतियों – नित्य और लीला विभूति के स्वामी है।यह देखते हुए भूतयोगी आलवार बताते है कि वे भगवान के सच्चे सेवक है और उनका वह ज्ञान भक्ति की दशा में परिपक्व हो गया है। मुदल तिरुवंतादी, ज्ञान पर केन्द्रित है; और इरण्डाम तिरुवंतादी, भक्ति पर केन्द्रित है। यह दिव्य प्रबंधन, आलवार की भक्ति की बहुलता को प्रदर्शित करता है। क्या इसका अभिप्राय यह है कि सरोयोगी आलवार ने भगवान की भक्ति नहीं की थी? नहीं – उनमें भी भक्ति भाव निहित था। यह अभिव्यक्ति की विभिन्न दशाएं है – एक कारण है और दूसरा उसका प्रभाव है। सरोयोगी आलवार, भगवान की नित्य और लीला विभूतियाँ का मनन करते हुए, ज्ञान की दशा को प्रदर्शित करते है। वहीँ भूतयोगी आलवार भक्ति की दशा को प्रदर्शित करते है (जो ज्ञान की परिपक्व दशा है)। भूतयोगी आलवार, मुदल तिरुवंतादी में बताई गई भगवान की दिव्य संपत्ति का ध्यान करते है और उस अपरिहार्य श्रद्धा के फल स्वरुप, इन पसूरों की उत्पत्ति हुई, जिन्हें इरण्डाम तिरुवंतादी नामक दिव्य प्रबंधन के रूप में जाना गया।

मुदल तिरुवंतादी में, परमात्मा के विषय में चर्चा की गयी है, अर्थात भगवान समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी है और ब्रह्माण्ड का अस्तित्व भगवान के लिए ही है। यह भी समझाया गया है कि, यही ज्ञान भगवान की प्राप्ति का साधन है। सामान्यतः, यहाँ यह देखा गया है कि उपाय और उपेय भिन्न भिन्न है। फिर यह कैसे संभव है कि भगवान ही उपाय (साधन) है और भगवान ही उपेय (लक्ष्य) है? यह इसलिए क्यूंकि वे सर्वव्यापी (सभी कार्यों को करने में सक्षम) है, वे ही उपाय है और उपेय भी है। कारण को 3 पक्षों द्वारा समझाया गया है।

  • उपादान कारण – वह पदार्थ जो निर्णायक परिणाम में परिवर्तित होता है। उदहारण के लिए, मिट्टी से पात्र बनाये जाते है – यहाँ मिट्टी उपादान कारण (मूल-भूत कारण) है और पात्र उसका कार्य (प्रभाव) है।
  • निमित्त कारण – फलोत्पदक कारण– वह व्यक्ति जो उस पदार्थ में परिवर्तन करता है। उदहारण के लिए, कुम्हार उस मिट्टी को पात्र का रूप देता है।
  • सहकारी कारण – सहायक कारण – वह उपकरण जो उस परिवर्तन में सहायक होते है। उदहारण के लिए, कुम्हार एक छड़ी और चक्र की सहायता से उस मिट्टी को पात्र का रूप देता है।

भगवान - सभी कारणों के कारण

भगवान – सभी कारणों के कारण

सामान्यतः, इस संसार में हम देखते है कि लौकिक जगत में तीनों कारण सदा भिन्न होते है। क्यूंकि भगवान सर्वव्यापी है (सभी कार्यों को करने में सक्षम है), वे स्वयं ही सभी तीन प्रकार के कारण है (अनुवादक की टिपण्णी : उपादान कारण – चित (चेतन) और अचित (अवचेतन) जो पदार्थ है भगवान के गुण है; निमित्त कारण- स्वयं उनका संकल्प (अभिलाषा/प्रतिज्ञा); सहकारी कारण – उनका ज्ञान, शक्ति, आदि)। इसलिए वे स्वयं इस व्यक्त ब्रह्माण के तीनों कारण है। क्यूंकि वे सम्पूर्ण ब्रह्माण में अन्तर्यामी है और क्यूंकि भूतयोगी आलवार इस ब्रह्माण के एक अंश है, वे चरम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए स्वयं भगवान को ही उपाय रूप मानते है।

जो भी सामान्य परिस्थिति में दिखाई देता है, वह विशिष्ट परिस्थिति में भी दिखाई देगा। श्रीरामानुज स्वामीजी गद्य में बताते है कि क्यूंकि भगवान “अखिल जगत स्वामिन्” – सम्पूर्ण ब्रह्माण के स्वामी है, वे “अस्मद् स्वामिन ” – मेरे स्वामी भी है। क्यूंकि भगवान ही साधन (उपाय) है, हमें धीरता से ज्ञान को समृद्ध होने देना चाहिए (और जब ज्ञान का उदय होगा तो स्वतः ही भगवान लक्ष्य देने की कृपा करेंगे)। परमेश्वर मंगलत्तु आण्डान, कुरुगै कावलप्पन (जो श्रीनाथमुनि स्वामीजी के शिष्य है) के समक्ष जाकर पूछते है कि “जगत (ब्रह्माण) और ईश्वर (भगवान) में क्या संबंध है?” तो कुरुगै कावलप्पन उनसे पुनः प्रश्न करते है “कौन सा जगत और कौन सा ब्रह्माण?” – परमेश्वर मंगलत्तु आण्डान उस उत्तर से संतुष्ट हुए। यहाँ यह समझाया गया है कि ब्रह्माण भगवान का शरीर है और भगवान उसकी अन्तर-आत्म है (वह दोनों अविभाज्य है)। जैसे शरीर जीवात्मा के अधीन है, सम्पूर्ण ब्रह्माण भगवान के अधीन है। सरोयोगी आलवार, भगवान का ध्यान करते हुए कहते है “पतिम् विश्वस्य”- सम्पूर्ण ब्रह्माण के स्वामी, जैसा की तैत्रिय उपनिषद में समझाया गया है। यह सिद्धांत भूतयोगी आलवार पर भी प्रयोज्य होता है। इसलिए, भूतयोगी आलवार, इरण्डाम तिरुवंतादी में इस सिद्धांत पर मनन करते है।

जब यह केवल ज्ञान/ भक्ति की विभिन्न दशाओं का बहाव है, क्या इन तिरुवंतादियों को एक ही प्रणेता द्वारा नहीं रचा जाना चाहिए था? फिर क्यूँ इन्हें पृथक पृथक आलवारों द्वारा बनाया गया – मुदल तिरुवंतादी, सरोयोगी आलवार द्वारा और इरण्डाम तिरुवंतादी, भूतयोगी आलवार द्वारा? त्रिमुनिव्याकरण की रचना तीन ऋषियों द्वारा की गयी है (पाणिनि, वररूचि और पतंजलि), फिर भी उन्हें एक ही शास्त्र के रूप में जाना जाता है क्यूंकि वे सभी समान विषय में चर्चा करते है। जैमिनी ने पूर्व मीमांसा (प्रथम 12 अध्याय) की रचना की है और व्यास ने उत्तर मीमांसा (4 अध्याय) की रचना की है- फिर भी, क्यूंकि वे दोनों ही समान ब्रह्म के विषय में बात करते है (पूर्व मीमांसा ब्रह्म की आराधना के विषय में बात करती है और उत्तर मीमांसा ब्रह्म के गुण और स्वरुप के विषय में गहरी जानकारी देती है), उन्हें एकाकी शास्त्र के रूप में जाना जाता है। उसी प्रकार ये प्रबंधन भी ऐसे ही जाने जाते है।

मुदल तिरुवंतादी में, भगवान को “विचित्र ज्ञान शक्ति युक्त” होना बताया गया है (जिनमें अद्भुत ज्ञान का वास है और जो पुर्णतः सभी कार्यों को करने में सक्षम है), जगत कारण-भूत (सम्पूर्ण ब्रह्माण के कारण) और शंखचक्रगदाधारण (वे जो शंख, चक्र और गदा को धारण करते है)। यह केवल भगवान के प्रति भक्ति के कारण समझाया गया है। यहाँ तक कि भक्ति का बीज भी केवल भगवान द्वारा रोपित किया गया है (क्यूंकि यह आलवार में पहले नहीं था)। क्यूंकि भगवान ही उपाय है, इसलिए वे ही ह्रदय में भक्ति की भावना को प्रज्वलित करते है (अर्थात यह हमारा स्व-प्रयास नहीं है, जिसने भक्ति के बीजों को रोपित किया है)। यहाँ, आलवार कहते है जैसे भगवान द्वारा बहुरंगी जगत का संचालन अत्यंत अद्भुत है, उसी प्रकार भगवान द्वारा आलवार के ह्रदय में भक्ति के बीजों का रोपा जाना भी अद्भुत है।

क्या सरोयोगी आलवार को मात्र परमात्मा का ही ज्ञान है? नहीं, सभी आलवारों में पूर्ण ज्ञान और भक्ति निहित है – परंतु ध्यान देने योग्य वहीँ है जिन पहलुओं पर स्वयं आलवारों ने ध्यान केन्द्रित किया है। क्यूंकि सभी आलवार एक दुसरे की दिव्य भावनाओं को भली प्रकार से समझते है, उन्होंने एक समान सिद्धांतों को अपने अपने दिव्य प्रबंधनों में प्रदर्शित किया है। जैसे श्रीआदिशेष का एक कंठ और सहस्त्र शीश है, उसी प्रकार से वे आलवार भी समान सिद्धांत समझाते है परंतु वे उसे भिन्न व्यक्तित्व और भिन्न प्रबंधनों द्वारा प्रदर्शित करते है।

इस प्रकार नम्पिल्लै/ श्री कलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखी इरण्डाम तिरुवंतादी की अवतारिका पूर्ण हुई।

अब हम संक्षेप में तिरुक्कुरुगै पिरान पिल्लान द्वारा रचित इरण्डाम तिरुवंतादी की तनियन देखते है। तनियन प्रायः प्रबंध के रचयिता और उस प्रबंध के वैभव को दर्शाती है।

BhudhatAzhwar

एन पिरवी तीर इरैन्जिनेन इन्नमुदा
अनबे तगली अलित्तानै 
नंपुगल सेर सिधत्तार  मुत्तुक्कल सेरुम
कडल मल्लैप भूतत्तार पोंनान्गज्हल

शब्दार्थ: इस संसार के जन्म चक्र से मुक्त होने के लिए, में भूतयोगी आलवार के स्वर्णिम चरण कमलों में प्रार्थना करता हूँ, जिन्होंने मधुरता युक्त इरण्डाम तिरुवंतादी प्रदान कर हम पर कृपा की और जिनका जन्म तिरुक्कडलमल्लै में हुआ, जो अत्यंत वैभवशाली और शीतल मोतियों का समूह है (मोती – क्यूंकि यह दिव्य देश समुद्र तट पर है कृत्रिम रूप से उनका अर्थ सीप के मोतियों से है परंतु उसका गहरा अर्थ है भगवान के परम सात्विक भक्त जन)।

मुदल आलवारों के चरित्र और वैभव को https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2014/06/04/mudhalazhwargal/ पर देखा जा सकता है।

मुदल आलवारों के अर्चावतार अनुभव को https://granthams.koyil.org/2012/10/archavathara-anubhavam-azhwars-1/ पर देखा जा सकता है।

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/10/aippasi-anubhavam-bhuthathazhwar/

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