विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन-४६)

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ४५)

श्रीमन्नारायण अपनी रानियाँ और पार्षदों के साथ – परमपद में

८१) पतित्व विरोधी – स्वामी होने में बाधाएं

जैसे “पतिम विश्वस्य” (भगवान सभी के श्रेष्ठ स्वामी है) में समझाया गया है, प्रजापति, पशुपति, बृहस्पति, सुरपति, धनपति, सेनापति, गणपती, आदि को स्वामी समझना – यह भगवान हमारे सर्वोच्च स्वामी हैं के विपरीत है – बाधा है।

पती यानि स्वामी। जैसे उपनिषद में स्थापित हुआ है “पतिम विश्वस्य” – श्रीमन्नारायण हीं सारे जगत के स्वामी हैं। कई देवताओं के नाम में “पती” होता है। प्रजापती – ४ मुखवाले ब्रह्माजी। पशुपती – रुद्र। बृहस्पति – राक्षसों के गुरु। सुरपती – इन्द्र- सभी देवताओं का स्वामी। धनपती – कुबेर – धन का स्वामी। सेनापती – कार्तिकेय, देवताओं कि सेना का मुखिया। गणपती – हाथी के मुख वाले गणेश। इन सब देवताओं को स्वामी मानना गलत हैं।

अनुवादक टिप्पणी: सामान्यतया पती का अर्थ मालिक, स्वामी, आदि। श्रीमन्नारायण को “विश्वपती” और आचार्य हृदयम के १२१वें चूर्णिकै में श्रीनायनार द्वारा “लोकभर्ता” (सभी के स्वामी) ऐसा समझाया गया है। यह शब्द बड़ी सुन्दरता से नायनार द्वारा नारायण सूक्तम (पतिम विश्वस्य) और श्रीरामायण (कौसल्या लोकबर्तारम श्लोक) से रचना किये गये हैं।  इसलिये श्रीमन्नारायण को भगवान और सब का स्वामी समझा गया है। जिसे भी हम पती ऐसे बुलाते हैं साधारणतया ऐसे शब्द सम्मान तौर पर सिर्फ महिमा गुणगान की तरह समझना चाहिये नकि उसे वास्तविक रूप में समझना चाहिये। ऐसा मानना समझना चाहिये कि यह भगवान कि निर्हेतुक कृपा है जिसके लिये इन देवताओं कि स्तुति होती हैं। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्तोत्र रत्न के ११वें से १४वें श्लोक तक इसे बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं। विशेषकर १३वें श्लोक में “वेदापहार गुरूपातक दैत्य पीड़ाध्यापद्विमोचन महिष्ठ फल प्रदानै:। कोन्य: प्रजापशुपती परिताति कस्य पादोदकेन स शिवस्स्वशिरो धृतेन ॥” – यहाँ श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी भगवान श्रीमन्नारायण से पूछते है “देवताओं को विपत्ती के समय जैसे कि ब्रह्मा ने वेदों को गवायां, रुद्र ने ब्रह्मा का सर काट दिया था जो स्वयं उनके पिता हैं, इन्द्र को राक्षसों के संकट से बचाना, आदि से किसने उद्धार किया? आपके सिवा और कौन है जो प्रजापती और पशुपती की रक्षा कर सकते है? आपके चरण कमलों को धोने के जल को धारण करने मात्र से रुद्र पवित्र हो गये?”। यह श्लोक पूर्णत: पुराणों में दर्शाये घटनाओं पर आधारीत है और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी भगवान जो सब के सच्चे स्वामी हैं, रक्षक हैं, उनसे प्रश्न पूछते हैं। हालाँकि ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र सभी महान देवता हैं वें भी ताकत भगवान से हीं प्राप्त करते हैं जो उनके अन्तर्यामी में विराजमान है और ऐसे कार्य करने के लिये जिन्होंने उन्हें यह शक्ति प्रदान किये। जब वें विपत्ति में रहते हैं तब भगवान श्रीमन्नारायण हीं उनकी रक्षा करते हैं। जब एक असुर ने ब्रह्माजी से वेदों को चुरा लिया तब भगवान श्रीमन्नारायण ने हयग्रीव का अवतार लेकर उस असुर से वेदों को वापस लाया। ब्रह्माजी का सर काटने के कारण जब रुद्र पर ब्रह्म हत्या दोष लगा तब वह कपोल रुद्र के हाथ में रह गया था। तब शिवजी भगवान श्रीमन्नारायण के पास गये जिन्होंने अपने छाती के पसीने एक बूंद उस कपोल पर डाला जो टुकड़े टुकड़े होगया और शिवजी को पाप मुक्त किया। जब भी इन्द्र पर असुर आक्रमण करते तो वें भगवान श्रीमन्नारायण से हीं प्रार्थना करते है और वें हीं उनकी रक्षा करते है। जब ब्रह्माजी ने भगवान श्रीमन्नारायण के चरणों को जल से धोया तब वह गंगा नदी के रूप में धरती पर बहने लगी। जब भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाना चाहा तब पहिले उसे रुद्र नें अपनी जटा में धारण कर उसके प्रवाह को शान्त किया। भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों से पवित्र जल पकड़ने के कारण शिवजी शुद्ध हो गये और उनका नाम “शिवा” पड़ा यानि पवित्र। अत: हम समझ सकते हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण हीं सभी के लिये श्रेष्ठ हैं और अन्य के साथ सम्बन्ध रखना बाधा है।

८२) वर्जनीय विरोधी – जिन्हें छोड़ने में बाधाएं है

तामस आहार जैसे मदिरा, मांस, आदि को पाना जो शास्त्र में भी वर्जित है और सात्विक आहार, सात्विक शास्त्र और सात्विक अनुष्ठान का त्याग करना बाधा है।

वर्जनियम – वह जिसका त्याग करना है। निषिद्धम – वह जो वर्जित है। आहार सामान्यतया ३ वर्ग में बाँटा गया है – सात्विक, राजस और तामस। वह आहार जिससे सत्व गुण का विकास होता है उसे सात्विक आहार कहते हैं। वह जिससे आलस्य, नींद, अकर्मव्यता आदि का विकास होता हैं उसे तामस गुण कहते हैं। ऐसे आहार जैसे मदिरा, मांस, आदि से बचना चाहिये। यही तत्व सभी अन्य पहलूओं के लिये लागू है।

अनुवादक टिप्पणी: हम आहार और उसके पाने कि आदतों पर चर्चा यहाँ कर चुके है https://granthams.koyil.org/2017/12/02/virodhi-pariharangal-23-hindi/। इस पर विस्तार से चर्चा के लिये यहाँ पढ़िये https://granthams.koyil.org/2018/06/12/virodhi-pariharangal-28-hindi/ और प्रश्न उत्तर के लिये https://granthams.koyil.org/2012/08/srivaishnava-ahara-niyamam-q-a/। जिसे भी शास्त्र ने वर्जित करने को कहा है उस आहार का हमें त्याग करना चाहिये। जबकि शास्त्रों मे जीवात्मा के प्रगति के लिये जिसे स्वीकारा है उसका पालन करना चाहिये और त्याग नहीं करना चाहिये। यह कहा गया है कि अकृत्य करणम (जो शास्त्र में वर्ज है) और कृत्य अकरणम (जो शास्त्र में कहा है उसका पालन नहीं करना) दोनों कि निंदा करना चाहिये। दोनों का त्याग करना चाहिये और उसीका पालन करना चाहिये जिसे शास्त्र और हमारे आचार्य ने स्वीकरती दिये है।

८३) अवर्जनीय विरोधी वह जिसे हमें त्याग करना हैं में बाधाएं

अवर्जनीय – वह जिसका त्याग नहीं किया जा सकता है। अनुवादक टिप्पणी: इस अंतिम विषय में कई महत्वपूर्ण पहलूओं को दर्शाया गया है जैसे मुमुक्षु (प्रपन्न) और मुक्त (मोक्ष के पश्चात अवस्था)।

  • मुमुक्षु होने के पश्चात भी सांसारिक धन और लालसा कि इच्छा होना और विस्मरण हो जाना कि यह मुमुक्षु के सही लक्षणों के विपरीत है यह बाधा है। अप्राप्त – जो उपयुक्त न हो। मुमुक्षु के लिये ऐसी इच्छाएं बहुत खतरनाक है। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षु यानि जिसे मोक्ष कि इच्छा हो। विशेषकर यहाँ प्रपन्न जनों का संदर्भ है – वह जो पूर्णत: आचार्य के माध्यम से भगवान के शरण हुये है। ऐसे जनों को अपने सच्चे स्वभाव यानि भगवद और भागवतों का दास होने से विस्मरण नहीं होना चाहिये। यदि किसीका धन और काम कि ओर लगाव हो जाता है तब वह सांसारिक जीवन की ओर अग्रसर होता है और अन्त में मुमुक्षु की अवस्था से नीचे गिर जाता है क्योंकि मुमुक्षु की इच्छा से सांसारिक इच्छाएं भारी पड़ती हैं और मुमुक्षु इच्छा को विफल कर देती है। तत्वत्रय के पहले सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि एक मुमुक्षु को मोक्ष प्राप्त करने हेतु तत्वत्रय (जीव, ईश्वर और माया) का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। एक बार यह ज्ञान पूर्णत: स्थापित हो गया तो फिर सांसारिक सुख के लिये कोई इच्छा नहीं रहेगी। मुमुक्षुप्पड़ी में भी द्वय प्रकरणम के प्रारम्भ में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवैष्णव के कई मुख्य गुणों को समझाते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस सूत्र के लिये विस्तार से व्याख्या दिये हैं। यहाँ पहिला मुख्य गुण हैं सांसारिक सुख का पूर्ण त्याग करना। सर्व प्रथम लक्ष्य – सांसारिक सुख को पूर्णत: त्याग करना और फिर महत्वपूर्ण है अपना अंतिम लक्ष्य, दिव्य कैंकर्य की लालसा करना। इस पर पूर्ण विश्वास होना, इस बात को ज़ोर देकर कहा गया है। अत: मुमुक्षु के मन में सांसारिक इच्छाओं के लिये कोई स्थान नहीं है।
  • भागवत अपचार जो इन सांसारिक इच्छाओं का परिणाम हैं बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जब हमारी इच्छाएं सांसारिक सुख के लिये बढ़ती है तब भागवतों के प्रति अपचार होते है जैसे कभी कभी हम इन सांसारिक सुख को पाने के लिये भागवतों का अपमान कर देते हैं। एक प्रपन्न के दिनचर्या को समझाते समय यही तत्व श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं। अन्य में वें दर्शाते हैं कि हमें अहंकार, अर्थम (सांसारिक धन) और काम से डरना चाहिये क्योंकि वें ३ प्रकार के संकट को जन्म देते हैं। एक बार अहंकार आ जाये तो हम श्रीवैष्णवों को अपने बराबर नहीं मानते और उनको जो सम्मान देना चाहिये वों नहीं देते हैं। सांसरिक धन कि ओर हमारी इच्छा के कारण सांसारियों के निकट जाकर प्रेम से अपेक्षीत सम्पती पाने का प्रयत्न करते हैं। काम कि इच्छा के कारण हम स्त्री, आदि कि ओर जायेंगे जो हमारा अपमान भी करती है। ऐसे कठिनाइयों को बड़ी सावधानी पूर्वक हमें दूर करना चाहिये क्योंकि यह सभी श्रीवैष्णव के अपमान की ओर ले जाते हैं।
  • सांसारिक पहलूओं को सुखदायक समझकर अचम्बित होना बाधा है। सांसारिक पहलूओं को सुखदायक यानि ऐसे सुखों को त्यागने का मन न बनाना। अनुवादक टिप्पणी: जब कोई स्वयं का सच्चे स्वभाव जो कि जो भगवान का सच्चा दास है ऐसा समझता है तब वह भगवान के कैंकर्य को ही आनन्ददायक पहलू समझता है। मून्राम तिरुवंदादि के १४वें पाशुर में श्रीमहद्योगी स्वामीजी समझाते है “मार्पाल मनम शुलिप्प मङ्गैयर तोल कैविट्टु” – जब हम भगवान श्रीमन्नारायण के प्रति लगाव विकसित करते हैं तब हमारी स्त्री (और अन्य सांसारिक सुख) के प्रति लगाव स्वयं खत्म हो जायेगी।
  • यह मानना कि भगवान कि सेवा कर परमपद पहुँचने के पश्चात स्वयं को भोक्ता मानना बाधा है। हमें यह नहीं विचार करना चाहिये कि मुक्त होकर परमपद पहुँचकर भगवान का कैंकर्य करते हुये स्वयं को भोक्ता मानना गलत है। श्रीशठकोप स्वामीजी ने श्रीसहस्रगीति में समझाया है “तनक्केयाग एनैक्कोल्लुमिते” – भगवान आप मुझे सिर्फ आपके कैंकर्य के लिये हीं निरत रखे।
  • स्वयं के आनन्द का रवैया रखना जो परमपद में भी ऐसे स्वयं को आनंदित करने की इच्छा का कारण हो सकता है – बाधा है। भोक्तृत्व बुद्धि – स्वयं को भोक्ता समझना। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी द्वारा स्तोत्र रत्न के ४६वें श्लोक में समझाये अनुसार भगवान को खुश रखने के लिये हमें चाहना चाहिये “प्रहर्षयिष्यामी” – कब मैं भगवान को पूर्ण आनन्द दूँगा। अनुवादक टिप्पणी: अझगिया मणवाल पेरुमाल नायनार आचार्य हृदयम के २१वें चूर्णिकै में समझाते है “शेषत्व भोक्तरुत्वंगल पोलन्ऱे पारतंत्रिय भोग्यतैगल” – पारतंत्रीयम और भोग्यतैगल दोनों शेषत्वम और भोक्तृत्वंगल से बढ़कर हैं। यहाँ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़े हीं सुन्दर ढंग से बताते हैं की शेषत्वम सोने की ईंट की तरह है (कीमती है परन्तु उसके आकृती बदलने पर हीं उसका उपयोग कर सकते हैं) और पारतंत्रीयम सोने के आभूषण जैसे हैं (वों जैसा है वैसे हीं प्रयोग में आ जाता है)। हमें यह पूर्ण रूप से समझना चाहिये कि हमारे अस्तित्व का मूल उद्देश भगवान का पूर्ण रूप से मुखोल्लास करना मात्र ही है। यहाँ समझने का मुख्य तत्व है – भगवान स्वामी है और जीवात्मा दास। वह दासत्व केवल स्वामी के सुख के लिये हीं है। क्योंकि जीवात्मा में चेतना है वह भगवान के सम्पूर्ण मुखोल्लास को देख सकता है। यह बहुत घहरा तत्व है और इसे आचार्य द्वारा कालक्षेप के जरिये समझना चाहिये।
  • उपर बताये अनुसार स्वयं के आनंद के रवैये के लिये “केवल भगवान के मुखोल्लास के लिये” इस तत्व का त्याग करना बाधा है। भोग्यम – वह जिससे आनंद प्राप्त किया जा सके। परैका भोग्यत्वम – यह दृढ़ विश्वास होना कि भगवान का मुखोल्लास हो रहा है। इस रवैया को कभी नहीं त्यागना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह अपने सत सम्प्रदाय का बहुत ही मुख्य सिद्धान्त है जिसे “अचित्वत पारतंत्रियम” – जो अचित की तरह पूर्ण रूप से भगवान के निष्कासन पर हैं फिर भी जब भगवान जीवात्मा के जैसे अपना सुख प्रगट करते हैं वें आनंदित होते है। यह तत्व द्वय महामन्त्र के दूसरे भाग के (स्वयं पर केन्द्रित सुख को मिटाने का) “नम:” में समझाया गया हैं। पेरुमाल तिरुमोली में श्रीकुलशेखर स्वामीजी कहते है “पडियायक किदन्तु उन पवलवाय काणबेने” – क्योंकि मैं भगवान के मन्दिर की सीढ़ी का पत्थर हूँ फिर भी मैं आपके सुन्दर होटों को देखकर और आनंदित होना चाहता हूँ। यहाँ सीढ़ी का पत्थर अचित है जिसे कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। परन्तु चेहरे पर आनंद देख पाना तभी सम्भव है जब उसमें ज्ञान होगा। श्रीपेरियवाचान पिल्लै समझाते हैं कि “पदियायक किदन्तु उन पवलवाय काणबेने” अर्थात अचित्वत पारतंत्रियम – अचित के तरह भी हमें भगवान कि ओर पारतंत्रियम होना चाहिये। उदाहरण के लिये यदि हम चौकी को लेकर दूसरे स्थान पर रखते हैं तो वों हमसे कोई प्रश्न नहीं पूछेगी – जब भी भगवान हमारे साथ ऐसा कुछ करते हैं तो हमें भी ऐसे ही होना चाहिये और उनसे कोई प्रश्न नहीं करना चाहिये। जब भगवान हमारे कैंकर्य से संतुष्ट है तो वें हमारे उपर अपार संतुष्टी और आनंद दिखाते हैं और हमें भी यह दिखाना चाहिये अन्यता हम भी अचित से भिन्न नहीं रहेंगे। उदाहरण के लिये जब हम एक बच्चे को उठाकर उसके संग खेलते हैं और अगर वह बच्चा हमारे साथ खेल आनंदित होता है तो हमारा आनंद भी दुगना हो जाता है उसी तरह जब हम भगवान के सुख को प्रतिक्रीया दिखाते है तो उनका आनंद भी दुगना हो जाता है। जैसे श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्तोत्र रत्न के ४६वें श्लोक मे यही तत्व को समझाते है कि “कदाप्रहर्षयिष्यामि” – भगवान के लिये आनंद लाने कि लालसा करना। जब जीवात्मा भगवान के आनंद को प्रतिक्रिया दिखाता है तब भगवान पूर्ण रूप से आनंदित होते हैं। हमारे कैंकर्य का एक मात्र उद्देश उनका मुखोल्लास है।
  • मुक्तात्मा की अवस्था में आनंदित होने की इच्छाओं को स्वयं भगवान प्रारम्भ करते हैं और इससे उन्हें बहुत आनंद प्राप्त होता है और उनका आनंद ओर बढ़ता है और यह कोई बाधा नहीं है। जैसे तिरुविरुत्तम के ३३वें पाशुर में समझाया गया है कि “अगल विशुम्बुम निलनुम इरुल आर केडच्चेङ्गोल नडावुदिर” – आकाश और पृथ्वी को नियंत्रण में रखना, हमसे किये गये पापों का नाश करना जो अज्ञानता वश हुये हैं आपके पवित्र सुदर्शन चक्र द्वारा नाश करना, यहाँ तक कि मुक्त अवस्था में भी भगवान के नित्य संकल्प से वे सुनिश्चित करते हैं कि मुक्तात्मा स्वयं नियंत्रित और स्वयं के आनंद के लिये कोई इच्छा अर्जित न करें। अधमि – मैं खाता हूँ, मैं मौज करता हूँ। अहमन्नम – मैं भगवान का प्रसाद हूँ। अहं अधमि – मैं उसे खाता हूं (आनंद प्राप्त करता हूँ) जो आनंद पा रहा हैं (जो आनंदित हो रहा है)। इसका अर्थ यह हैं कि यह मुख्य हैं कि भगवान जीवात्मा से आनंदित होते हैं। भगवान के श्रीमुख पर आनंद की छटा देखकर जीवात्मा भी आनंदित होता है। परप्रेरितम – वह जो भगवान से प्रेरित है। जीवात्मा में कम मात्र में स्वयं द्वारा आनंदित होने के पहलू भी भगवान की आज्ञानुसार पाये जाते हैं। यह बाधा नहीं है। अनुवादक टिप्पणी: इसे हम पिछले भाग में विस्तार से देख चुके है। जीवात्मा के लिये आनंदित होने का रवैया होना स्वाभाविक है। मुक्तात्मा कि अवस्था में पहिले भगवान स्वयं जीवात्मा से आनंदित होते है और उसे उजागर करते है। इसे देखकर जीवात्मा भी बहुत ही आनंदित महसूस करता है और उसे उजागर करता है। एक बहुत हीं सुन्दर उदाहरण है जब पिता अपने बच्चे को उठाकर खेलता है उसे बहुत खुशी होती है। पिता के चहरे पर खुशी देख बच्चा भी खुश हो जाता है। यह देख पिता पहिले से भी अधिक आनंदित हो जाता है। अत: परमपद में आनंद का कोई अंत नहीं है और यह भगवान श्रीमन्नारायण कि दिव्य प्रतिज्ञा भी है।
  • “न छोड़ सकने वाले पहलू” के विषय में यहाँ एक दूसरा स्पष्टीकरण दिया गया है। भगवद सौन्दर्य जो कि आचार्य कैंकर्य के लिये बाधा है यहाँ पर मुख्य बाधा कैंकर्य के लिये इस संसार और परमपद दोनों के लिये है। भगवान यह बाधा को दूर कर जीवात्मा के कैंकर्य को स्वीकार करते है। वर्जित गतिविधियों में हम निरत रह कर और अनुशासन के अभाव जो हमारे कई पूर्व जन्मों का परिणाम है – मुख्य बाधाएं है। यहाँ पर “अवर्जनीय विरोधी” के लिये एक दूसरा स्पष्टीकरण दिया गया है। यहाँ और वहाँ – दोनों लीला और नित्य विभूति। “सौन्दर्यम अन्तरायम” – मुमुक्षुप्पड़ी १८२ – भगवान के अलौकिक दिव्य स्वरूप की दिव्य सुन्दरता अवरोध हैं। जब कोई भगवान के दिव्य अलौकिक सुन्दर स्वरूप का दर्शन करता है वे भावनाओं सी पिघल जाते हैं जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी पेरिया तिरुवंदादि के ३४वें श्लोक में समझाते “काल आलुम नञ्जलियुम कण शुलुलुम” – पाँव कांपने लगते हैं, हृदय पिघल जाता है और चक्कर आकर सब धुंधली हो जाती हैं। इससे जीवात्मा स्वयं को भगवन के कैंकर्य में निरत नहीं कर सकता है। विशेषकर जो जन भागवतों और आचार्यों के कैंकर्य में निरत रहते हैं उनके लिये भगवान का सौन्दर्य ही एक बहुत बड़ी बाधा है। श्रीरामायण के अयोध्या काण्ड १.१ में कहा गया है “शत्रुघ्नों नित्य शत्रुग्न:” यानि “शत्रुघन – जिसने जिसने नित्य शत्रुओं को जीता”। यहाँ – नित्य शत्रु क्या है? श्रीरामचन्द्रजी की अलौकिक सुन्दरता व गुण जो कि उन्हें भगवान के कैंकर्य में लगाने में बड़ी बाधा है। इसे अवर्जनीय विरोधी ऐसे समझाया गया है। हमारे आचरण और अनुष्ठान में जो त्रुटियाँ अनजाने में ही पूर्व कर्मों के कारण उत्पन्न हो जाता हैं उन्हें इसमें शामिल किया गया है। अनुवादक टिप्पणी: यहाँ विशेषकर दो बाधाएं को संभोधित किया गया है। प्रथम भगवान का सौन्दर्य हमारे कैंकर्य में बाधक है को समझाया गया है। मुमुक्षुप्पड़ी में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी द्वय प्रकरणम को बड़ी सुन्दरता से दर्शाया गया है। हमारा सच्चा लक्ष्य दिव्य दंपत्ति श्रीमहालक्ष्मीजी और भगवान श्रीमन्नारायण के मुखोल्लास के लिये सेवा करनी है। लेकिन उनके स्वयं की सुन्दरता ही हमें उनके कैंकर्य में निरत होने से रोकती है क्योंकि उस सुन्दरता से हम सम्मोहित हो जाते हैं और हम मूर्छित की हालत में आ जाते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने व्याख्यानों में समझाते हैं कि उनकी सौन्दर्य हमारे हृदय को चुरा लेता है और हमारी पूरी शारीरिक क्रियाएं बंद हो जाती है, इस तरह उनका सौन्दर्य हीं उनके कैंकर्य में एक बड़ी बाधा है। अत: स्वयं भगवान ही उस बाधा को दूर कर हमें कैंकर्य करने देते हैं। यहाँ श्रीशत्रुघनजी का उदाहरण बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है। यह कहा गया है कि श्रीशत्रुघनजी कभी भी श्रीरामजी की ओर आँख उठाकर नहीं देखते थे क्योंकि यदि वे श्रीरामजी का दर्शन करते हैं तो वें सम्मोहित हो जायेंगे और इससे उनका जो श्रीभरतजी के ओर जो निरंतर कैंकर्य है वह संकट में पड़ जायेगा। दूसरा पहलू जो यहाँ समझाया गया है वह है हमारे पूर्व कर्मों में किये गये पाप और दिखावा है। श्रीपेरियवाचन पिल्लै सकल प्रमाण तात्पर्य में विस्तार से इस तत्व को समझाते है। हम इसे एक विशेष पहलू के संदर्भ में देखेंगे। एक प्रपन्न भगवान कि पूर्ण शरणागति करके भी अपने पिछले कर्म, वासना और रुचि के कारण पाप करता हैं। इसे उत्तरागम (उत्तरा – पश्चात, अगम – पाप)। यह पाप दो प्रकार के हो सकते हैं – जानबूझकर और बिना इरादे। एक और श्रेणी भी है – पाप जिनके लिए प्रायश्चित किया जाये और पाप जिनके प्रायश्चित न किया जाये। प्रायश्चित यानि किये गये कार्य के लिये पछताना और उसे फिर न दोहराना। भगवान से संबन्धित पापों के लिये हमें भगवान के समक्ष ही प्रायश्चित करना चाहिये। भागवतों के प्रति किये गये पापों का प्रायश्चित, जीवात्मा के प्रति अधिक स्नेह, ममता द्वारा बिना इरादे के पापों को भगवान स्वयं मिटा देते हैं और वे पाप जिन भागवतों के लिये किये गये हैं उनके समक्ष हीं प्रायश्चित करना चाहिये। पापों के लिये प्रायश्चित  न करने के ३ प्रकार है – अ) क्रूरता – वे वर्जित क्रियाएं जिन्हें पूर्वाचार्यों और शास्त्रों में दोषी ठहराया है। इनमें शामिल है अन्य की पत्नीयों की लालसा करना, मास खाना, मदिरा, आदि और अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार नित्य नैमित्तिक कर्मानुष्ठान जैसे संध्या वन्दन, आदि नहीं करना। आ) अधिक क्रूरता – वें पाप जो भगवान के प्रति किये गये हैं। इसमें शामिल है अन्य देवताओं को भगवान श्रीमन्नारायण के समान समझना, भगवान के अवतार को केवल नश्वर मानना, आदि। इ) सबसे अधिक क्रूरता – भागवतों के प्रति किये गये पाप जैसे उनका अपमान करना, उनको सम्मान न देना, उनके जन्म, धन, ज्ञान, आदि के आधार पर आंकलन करना। इन ३ प्रकार के पाप जिनके लिये प्रायश्चित न किया गया हो के परिणामों को प्रपन्नों को सामना करना पड़ता है। क्योंकि एक प्रपन्न भगवान कि कृपा पर केन्द्रित करता है, वह स्वयं को बहुत समझदारी से संचालित करेगा और उपर बताये गये तीनों में से कोई भी पाप करने से बचेगा। आदर्शत: एक बार शरण होने के पश्चात कोई भी पापों में निरत नहीं होगा। अगर कोई गलती से भी पाप करता है तो वह तुरंत प्रायश्चित करता है – यह विचार करना असंभव है कि एक सच्चा प्रपन्न अपने किये हुए पापों का प्रायश्चित नहीं करेगा। अत: बिना इरादे के किये गये पापों को और पाप जिनके लिये प्रायश्चित किया गया है और हमें ऐसा समझना चाहिये कि इन सबको भगवान अपनी कृपा से उपेक्षित कर देते हैं।

इसके साथ हम सभी बाधाओं के विषय पर चर्चा समाप्त कर चुके हैं जिन्हें श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीवंगी पुरत्तु नम्बी को दर्शाया है और श्रीवंगी पुरत्तु नम्बी द्वारा दिये गये स्पष्टीकरन और श्री वी.वी.रामानुजम स्वामी द्वारा तमिल से साधारण अंग्रेजी में किये गये अनुवाद से समझाया है।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/12/virodhi-pariharangal-46/

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