यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ८५

श्री:श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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अयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् कन्दाडै अण्णन् के शरण होते हैं 

रामानुज दास ने श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् को देखकर उन्हें कहा “श्रीमान के दिव्य निर्देशानुसार दास ने बद्रीकाश्रम और अन्य स्थानों पर कैङ्कर्य​ करने कि विधी श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् को सिखाये और उसके माध्यम से पूर्ण कैङ्कर्य​ वहाँ किये। दास भाग्यशाली हैं आप श्रीमान के दर्शन और कन्दाडै अण्णन् के दिव्य चरणों कि पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ”। श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् बहुत प्रसन्न हुए और रामानुज दास से तिरुमला में जब वें वहाँ पधारे और श्रीवेङ्कटेश​ भगवान कि पूजा किये वहाँ तक कि हुई पूर्ण घटनाओं का वर्णन किया। छोड़ दे; कल श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के दिव्य नक्षत्र श्रवण के दिन जब श्रीवेङ्कटेश​ भगवान दिव्य रामानुज दास ने उन्हें दिलासा देने और उचित बाते कहने के लिये श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् से कहा “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण न होने के श्रीमान के शिकायत को पुष्कर्णी में दिव्य स्नान करते हैं तब कन्दाडै अण्णन् के दिव्य चरणों के शरण लेलो जिससे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को दुगनी खुशी प्राप्त होगी [स्वयं के चरणों के शरण होने से अधीक]”। यह सुनकर श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् बहुत प्रसन्न हुए और रामानुज दास को कन्दाडै अण्णन् के पास ले गये। कन्दाडै अण्णन् को साष्टांग प्रणाम कर उन्होंने उन्हें अपनी इच्छा को प्रगट किया। कन्दाडै अण्णन् ने भी उन्हें दयाकर कहा “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी यहीं इच्छा प्रगट करते” और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और रामानुज दास के समान दृष्टिकरण से विस्मित हो गये। ऊँचे स्वर से कहे कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने रामानुज दास को उनकी तरफ से नियुक्त कर कई दिव्यदेशों का भ्रमण कर मङ्गळाशासन् करने को कहा, उन्होंने श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् का समाश्रयण किया। श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् भी परिष्कृत सोने के समान हो गये जैसे तिरुप्पल्लाण्डु पाशुर में उल्लेख हैं “पण्डैक्कुलत्तैत तविर्न्दु” (वंश के प्रथाओं से दूर जाना)। कन्दाडै अण्णन् फिर दोनों रामानुज दास और श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् को श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के सन्निधी में लेगये और भगवान का मङ्गळाशासन् किया। भगवान ने भी उनपर अपनी कृपा बरसाई, श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् को रेश्मी वस्त्र दिया और श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् और कन्दाडै अण्णन् के मध्य सम्बन्ध दृढ़ करने हेतु श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् को “कन्दाडै रामानुज अय्यङ्गार्” नाम प्रदान किया। तत्पश्चात पेरिय केळ्वि जीयर्, चिऱिय केळ्वि जीयर्, एकांगी, आचार्य पुरुष और स्थलत्तार सभी कन्दाडै अण्णन् के तिरुमाळिगै को गये और उन्हें कई संभावना से सम्मानीत किया। जो उनके दिव्य चरणों के शरण होने कि इच्छा को प्रगट किया उन्होंने किया और उनका श्रीपाद तीर्थ ग्रहण किया; जो उनके प्रसाद के योग्य थे उन्होंने प्रसाद पाया। 

श्रीकन्दाडै अण्णन् श्रीरङ्गम् जाने के लिये तिरुमला से प्रस्थान करते हैं 

अगले दिन सभी जन श्रीकन्दाडै अण्णन् स्वामीजी को श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के सन्निधी में पूर्ण सम्मान के साथ लेकर जाते हैं। उनका मङ्गळाशासन् करने के पश्चात उन्होंने भगवान को दिव्य पीताम्बर रंग के वस्त्र अर्पण करते हैं जो सामान्यता वें कमर पर पहिनते हैं और अन्य सम्मान कन्दाडै अण्णन् को देते हैं। अर्चकों के माध्यम से भगवान कन्दाडै रामानुज अय्यङ्गार् के दिव्य पालकी को छत्रचामरादि (दिव्य छत्री, दिव्य पंखी, आदि) अर्पण करते हैं और उन्हें जाने कि आज्ञा प्रदान करते हैं। वें नीचे तिरुपति पहुँचकर श्रीगोविन्द भगवान के मन्दिर जाकर गोविन्द भगवान और अन्यों का मङ्गळाशासन् करते हैं। फिर वें एऱुम्बि जाते हैं जहाँ एऱुम्बियप्पा के पूज्य पिताजी अय्यैगळप्पा और अऴगियमणवाळ दास और अन्य श्रीवैष्णव उनका स्वागत करते हैं। इन्होंने उन्हें अपने तिरुमाळिगै में लेगये और उन्हें सम्मान अर्पण किया। अण्णन् ने उन्हें कहा “आचार्य जैसे इळैयाऴ्वार् पिळ्ळै, तिरुवाय्मोऴि आऴ्वार् पिळ्ळै आदि, जीयर् जैसे एम्पेरुमानार् जीयर्, तिरुवेङ्गडम् जीयर्, आदि हमसे बहुत आगे निकल गये हैं”। एऱुम्बियप्पा के पिताजी अय्यैगळ् बहुत दु:खी हुए कि वें राह में उनके स्थान में रुके नहीं। उन्हें सांत्वना देने के लिये कन्दाडै अण्णन् ने उन्हें कहा क्योंकि वें दिव्य पालकी में यात्रा कर रहे थे तो उन्हें साथ में चलाना सही नहीं था और उन्होंने उन्हें आगे जाने को कहा और वें एक स्थान पहाड़ के नीचे पद्मजापुरम (शोऴिङ्गपुरम्​) पहुँच गये। अय्यैगळ् ने शुद्ध सत्व अण्णन् का हाथ पकड़ और उन्हें पद्मपुरम तक ले जाने को कहा। उन्होंने वहाँ आचार्य पुरुष, जीयर, आदि से मिले, उनके विषय में जाना और एक दूसरे कि पूजा किये। फिर अय्यैगळ् ने उन्हें अपने दिव्य तिरुमाळिगै में लेकर आये। 

वहाँ कोयिल् अण्णन् के तिरुवाराधन भगवान चक्रवर्तित्तिरुमगन् [श्रीराम] का तिरुवाराधन किया गया, प्रसाद अर्पण किया गया और फिर सभी ने तदियाराधन (प्रसाद पाया) किया। अगले दिन वें तिरुक्कडिगै (शोऴिङ्गपुरम्) गये वहाँ अक्कारक्कनि भगवान का मङ्गळाशासन् किया और फिर तिरुप्पुट्कुऴि (काञ्चीपुरम् के समीप एक दिव्यदेश) और वहाँ पुट्कुऴियेम्पोरेऱु  भगवान का मङ्गळाशासन् किया। तत्पश्चात वें पेरुमाळ् कोयिल् पहुँचे जहां सभी आचार्य और मंदिर में कैङ्कर्य​ करनेवाले ने उनका स्वागत किया। फिर उन्होंने अण्णन् और अन्य को श्रीवरदराज भगवान और श्रीवरदवल्लभा अम्माजी कि पूजा किये और सभी सन्निधी में मङ्गळाशासन् किया। उन्होंने उन्हें अपने दिव्य तिरुमाळिगै में लाये और सही रिती से पूर्ण सम्मान किया। अप्पाच्चियारण्णा बहुत खुश हुए और कहा उन्हें ऐसा लग रहा हैं कि वें श्रीदाशरथी स्वामीजी और उनके वंश के कई विशेष जन कि पूजा कर रहे हैं। उन्होंने अण्णन् और अन्य जनों को अपने दिव्य तिरुमाळिगै में लेकर गये और सम्मान किया। श्रीवरदराज भगवान भी अण्णन् का सम्मान करने से बहुत प्रसन्न थे और उन्हें “स्वामी” ऐसे संभोधित किया ताकि सभी जन उन्हें उसी नाम से बुला सके। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/11/yathindhra-pravana-prabhavam-85-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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