श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः
आऴ्वार्, जिन पर ज्ञान की दिव्य कृपादृष्टि जिसने परिपक्व हो कर भक्ति का रुप लिया, और आण्डाळ् नाच्चियार् (गोदा देवी), जो भूदेवी पिराट्टि (माता) के अवतार हैं, कृष्णावतारम् उत्सव को निम्नलिखित रूप में मनाते हैं:
“आट्कॊळ्ळत् तोन्ऱिय आयर् तम् कोविनै” (वह जो हमें स्वीकार करने के लिए ग्वालों के राजा के रूप में अवतरित हुए);
“पिरन्दवारुम्” (उनका निराला और जन्म) “मण्णिन् बारम् नीक्कुदऱ्-के वडमदुरैप् पिऱन्दान्” (कृष्ण का जन्म उत्तरी मथुरा में भूभार कम करने के लिए हुआ था) और
“ऒरुत्ति मगनाय्प् पिऱन्दु” (महान देवकी पिराट्टि (माता) के पुत्र के रूप में जन्मे)।
हमें पहले से ही ज्ञात है कि भगवान के जन्म/अवतार उनकी करुणा का ही परिणाम है। जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे के कुएँ में गिर जाने पर स्वयं भी बच्चे को बचाने उसी में कूद जाती है, जो आत्माएँ इस संसार यातना से पीड़ित हैं उन आत्माओं की मुक्ति के लिए भगवान स्वयं अवतरित होते हैं। ऐसा करते हुए वे यहाँ लोगों के हृदय को हर लेते हैं और उन्हें अपने अस्तित्व में लाने के लिए निराली लीलाएँ करते हैं। उनकी लीलाओं और कार्यों की महत्ता इस प्रकार से है:-
- यदि हमें यह अनुभूति हो कि ऐसे भगवान ने इस जगत में जन्म लिया है, तो हमें इस जगत में बार -बार जन्म नहीं लेना पड़ेगा।
- यदि हमें यह अनुभूति होती है कि ऐसे इस संसार में जन्म लेकर उन्होंने (भगवान ने) माता का दुग्ध पान किया, तो हमें यहाँ जन्म लेकर माँ का दूध नहीं पीना पड़ेगा।
- यदि हमें यह अनुभूति होती है कि ऐसे बालकृष्ण ने मक्खन चुराया, उसके फलस्वरूप ओखली से बांधकर दण्डित किया गया तो हम इस संसार के बन्धन में नहीं बन्धेंगे।
द्वापरयुग के अंत में कंस, जरासंध आदि दुष्टों के कारण, ब्रह्मादि देवता क्षीराब्धि (क्षीरसागर) में सर्वेश्वर श्रीमन्नारायण से प्रार्थना करने के लिए गए। उन्होंने उनसे कहा कि “आपको इस संसार में अवतरित हो साधुजनों की रक्षा करनी चाहिए, दुष्टों का नाश करके धर्म की स्थापना करनी चाहिए”। एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) ने उनको सांत्वना देते हुए कहा “उचित समय आने पर मैं दीन-दुखियों के दु:ख दूर करने के लिए अवतार लूँगा,” और उन्हें विदा कर दिया।
अपने पूर्व जन्म में देवकी और श्री वसुदेव ने एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) की स्तुति की और फलस्वरूप एम्पेरुमान् स्वयं सदृश पुत्र के रूप में जन्म लेंगे यह वरदान प्राप्त किया। कंस की बहिन देवकी का विवाह श्रीवसुदेव के साथ राजसी भव्य रूप से हुआ। कंस नवविवाहित जोड़े को अपने रथ पर बैठाकर नगर के प्राचीर में लाए। उसी क्षण आकाशवाणी द्वारा एक घोषणा हुई “हे कंस! देवकी के गर्भ द्वारा उत्पन्न आठवीं सन्तान ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगी।” यह सुनकर कंस बहुत व्याकुल हो गया और क्रोध से उस दम्पति पर खड्ग से प्रहार करने लगा। उसी क्षण श्रीवसुदेव ने निवेदन किया “हे राजन! इस देवकी से तो आपको भय नहीं है। आकाशवाणी ने जो कुछ कहा है, उसके विषय में मेरा विचार सुनिए। मैं इसके गर्भ से उत्पन्न सभी पुत्रों को आपको दे दूंगा, क्योंकि उन्हीं से आपको भय है। अतः व्यथित न होइये।” इस प्रकार कंस उसी क्षण प्रस्ताव की स्वीकृति देते हुए घर चला गया और वसुदेव जी भी भयभीत हो देवकी के साथ अपने भवन को पधारे।
तत्पश्चात् कंस ने दोनों को कारागार में डाल दिया। यथासमय देवकी द्वारा उत्पन्न संतानों को कंस मारता रहा। देवकी के सातवें गर्भ में भगवान (श्रीमन्नारायण) के अंशावतार, आदिशेष के प्रत्यक्षावतार, बलराम ने प्रवेश किया। भगवान के निर्देश से योगमाया ने देवकी के उस गर्भ को वसुदेव जी की दूसरी भार्या रोहिणी के कुक्षि में स्थानान्तरित कर दिया। उस समय रोहिणी जी नन्दगोप के गाँव गोकुल में रहती थी, वहाँ रोहिणी के गर्भ से अनन्तदेव (बलराम जी) का प्राकट्य हुआ।
देवकी जी के गर्भ में भगवान (श्रीमन्नारायण) श्रीकृष्ण के रूप में आविष्ट हुए। अवणि माह (भाद्रपद मास), कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग, वृष लग्न में अष्टमी तिथि को आधी रात के समय चन्द्रोदय काल में, मथुरापुरी में वसुदेव मंदिर में देवकी जी के गर्भ से अपने मूल श्रीविष्णु रूप में, चतुर्भुज जो शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मादि से अलङ्कृत साक्षात हरी का प्राकट्य हुआ।
भगवान (श्रीमन्नारायण) का प्रत्यक्ष आविर्भाव हुआ, वसुदेव जी और देवकी जी आश्चर्यचकित और आनन्दित हुए। वे श्रीकृष्ण की सुरक्षा के बारे में सोच भयभीत होकर उससे अपने दिव्य स्वरूप छिपाकर, साधारण मनुष्य के रूप में प्रकट होने के लिए स्तोत्र का स्तवन किया, और श्रीकृष्ण ने भी उसे आज्ञा मानकर पालन किया। तद्पश्चात वसुदेव जी की सांकल टूट गईं, कारागार के प्रहरी मूर्च्छित हो गए, द्वार स्वयं ही खुल गये। वह परात्पर परमेश्वर उनके पुत्र के रूप में वसुदेव जी से कहा, “पिता जी, मुझे गोकुल जो यमुना नदी के दूसरे तट पर स्थित है, नन्दभवन में पहुँचा दो, यशोदा जी के यहाँ जन्मी पुत्री को यहाँ ले आयें।” इन शब्दों को सुनकर श्रीकृष्ण को शीर्ष पर एक टोकरी में लेकर गृह से बाहर निकले, उस समय घोर वर्षा के कारण यमुना जी में जल के वेग से ऊंची लहरें उठती देख स्तब्ध हो गये। किन्तु सरिताओं में श्रेष्ठ यमुना जी ने वसुदेव जी को मार्ग दे दिया। आदिशेष छत्र के रूप में पीछे चलने लगे। नन्दराय जी के महल में पहुँचकर वसुदेव जी ने परम शिशु श्रीकृष्ण को यशोदा जी की शय्या पर रखकर उनकी कन्या (योगमाया या दुर्गा) को गोद में लेकर शीघ्र ही अपने कारागार लौट आये। देवकी जी और वसुदेव जी के पूर्व स्थिति में आने पर, आठवें बालक का रूदन सुनकर प्रहरी ने कंस को सूचना दी। भय से कातर कंस तुरन्त वहाँ पहुँचा और उस बालक को मारने के लिए पकड़ा और कहने लगा “मैं इस बालक को मार दूँगा और भय से मुक्त हो जाऊँगा।” वह देवी शीघ्र ही उछलकर आकाश में दुर्गा रूप धारण कर स्थित हो गई और कहा “कंस! तुझे मारने वाला कहीं और सुरक्षित अवतीर्ण हो गये हैं, उचित समय पर तुम्हारा नाश करेंगे।” यह कहकर दृष्टिगोचर हो गई। कंस ने क्रोध वश प्रहरियों को प्रत्येक स्थान पर नवजात शिशुओं की ढूँढने का आदेश दिया।
तदनन्तर, गोकुल में गोप पुरुष और स्त्रियाओं ने यशोदा जी के द्वारा एक परम सुन्दर बालक के जन्म का समाचार सुना और उनका आनन्द चरम सीमा तक पहुँच गया और प्रफुल्लित हो उत्सव मनाने लगे।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी।
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