श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः
कृष्ण अपने सहपाठी सुदामा के साथ सांदीपनी मुनि के पास अध्ययन करते थे। उन्हें कुचेला के नाम से जाना जाता है। कृष्ण और सुदामा घनिष्ठ मित्र थे। वे सपत्नी दरिद्रता का जीवन यापन कर रहे थे।
एक बार उनकी पत्नी ने कहा, “हमें भोजन के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। आपके मित्र कृष्ण द्वारकाधीश हैं। आप उनसे कुछ धन दान में ले सकते हैं।” परन्तु सुदामा ने उत्तर दिया, “हमें किसी से भीख क्यों मांगनी चाहिए? जो कुछ पास में है हमें उसी से जीवन यापन करना चाहिए।” परन्तु सुदामा को और प्रभावित करने पर उनके पास कोई विकल्प नहीं रहा। इसीलिए कृष्ण से मिलने चले गए। उन्होंने विचार किया कि मित्र से मिलने जाते हुए खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, इसलिए उन्होंने कुछ चावल के टुकड़े एकत्र कर कपड़े में बांध कर अपने साथ ले गए।
वे द्वारका जी पहुँचकर कृष्ण के महल में गये। उस समय रुक्मिणी जी कृष्ण की सेवा कर रहीं थीं। सुदामा को आते देख कृष्ण अपने सिंहासन से उतरकर प्रवेश द्वार पर पहुँचे, उन्हें गले लगा लिया और सत्कार किया। तत्पश्चात् कृष्ण ने सुदामा को अपने सिंहासन पर विराजमान कर उनके चरण प्रक्षालन किया। रुक्मिणी जी ने पंखा झुलाया। अपने छात्र जीवन की लीला की चर्चा करने लतब कृष्ण ने सुदामा से पूछा, “तुम मेरे लिए क्या लाए हो?” सुदामा ने हिचकिचाते हुए पोटली से उन पोहा को देख रहे थे और कृष्ण भी उसे ही देख रहे थे। उन्होंने उत्सुकता वश उस पोटली से चावल का निवाला अपने मुख में डाला। जब दूसरा निवाला लेने लगे तब रुक्मिणी जी ने रोक दिया। कृष्ण ने सुदामा से पूछा, “तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है?” जबकि सुदामा कृष्ण से कुछ भी माँगना नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा कि “बहुत समय से मैंने आपको देखा नहीं था इसलिए आपसे मिलने आया हूँ।” कृष्ण ने अपने दयालुता पूर्वक हृदय में यह निर्णय लिया कि सुदामा का घर महल बन जाएगा, ऐसा ही हुआ।
सुदामा कृष्ण को छोड़कर अपने नगर को लौट आए। वहाँ उन्होंने अपने घर के स्थान पर एक विशाल महल देखा। उनकी पत्नी ने बाहर आकर उनका सत्कार किया। वह सुन्दर वस्त्रों और आभूषण से सुसज्जित थी। सुदामा को समझ में आया कि यह कृष्ण की ही कृपा है। परन्तु सुदामा ने अपना जीवन विरक्तता से बिताया।
सार-
- भगवान अपने भक्तों के प्रति बहुत प्रेम भाव रखते हैं। भले ही भक्त स्वयं को तुच्छ समझते परन्तु भगवान उन्हें श्रेष्ठ मानते हैं।
- मांगने पर भगवान उतना ही देते हैं जितना हम मांगते हैं परन्तु स्वेच्छा से वे बहुत अधिक देते हैं।
- कृष्ण जब एक निवाला खा लेते हैं तो रुक्मिणी जी रोक देती हैं क्योंकि वह विचार करती हैं, “यदि वे एक निवाले के लिए इतना वैभव प्रदान करते हैं तब अधिक निवाले ग्रहण करने पर अधिक धन देंगे, तो सुदामा इतनी सम्पत्ति का वाहन कैसे करेंगे?”
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/22/krishna-leela-46-english/
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