कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ४७ – द्रौपदी का कल्याण

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युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात् दुर्योधन माया द्वारा निर्मित महल में चारों ओर घूमने लगा और महल की अद्भुत वास्तुकला को देखकर मन्त्रमुग्ध हो गया। पांडवों के इस महल को देख उनके भाग्य से ईर्ष्या करने लगा। धरातल के कुछ स्थानों को पानी समझ कर सावधानी से चलने लगा, कुछ स्थानों को धरातल समझ पानी में गिर गया। यह देखकर द्रुपद और अन्य लोग अपमानजनक ढंग से हंसने लगे। दुर्योधन और अधिक क्रोधित हो पांडवों से द्वेष करने लगा और किसी भी प्रकार उन्हें पराजित करने की युक्ति का विचार करने लगा। दुर्योधन का मामा शकुनि ने द्युतक्रीड़ा में पराजित करने का विचार प्रकट किया, क्योंकि युद्ध में आसानी से पराजित नहीं कर सकते थे।

उस योजना के अनुसार दुर्योधन ने युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा के लिए आमन्त्रित किया। अपने राजसी कर्तव्यों के अनुसार इस नियन्त्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता था। इसलिए उसने द्यूत क्रीड़ा आरम्भ कर दिया। शकुनि को दुर्योधन ने अपनी ओर से खेलने के लिए कहा। सामान्यतः इस क्रीड़ा में कुछ दांव होता है। पहले युधिष्ठिर ने अपना धन और राज्य को हार दिया। तत्पश्चात् अपने भाइयों, स्वयं को और अंत में अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और सब हार गया। दुर्योधन को असहनीय प्रसन्नता के कारण अपनी त्रुटि का ज्ञान नहीं हुआ और दु:शासन को द्रौपदी को घसीटकर सभा में लाने को कहा। दु:शासन  द्रौपदी के कक्ष में गया, वहाँ वह मासिक धर्म के कारण विश्राम कर रही थी, वह केशों से पकड़कर और घसीटकर सभा में लाया। जब द्रौपदी को सब पता चला तो वह अपने पति युधिष्ठिर और सभा में उपस्थित सभी माननीय लोगों से न्याय की मांग करने लगी। दुर्योधन से भयभीत सभी मौन रहे। अहङ्कार् से ग्रस्त दुर्योधन ने दु:शासन को द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया। उसने आज्ञा का पालन किया और वस्त्र खींचने कुछ भी ज्ञात न होने के कारण वह अपने वस्त्र खींचने लगी, उसी समय उसे एक ऋषि की शिक्षा का स्मरण हुआ, “जब कोई बहुत बड़ा संकट आता है तब भगवान श्रीहरि का स्मरण करो।” उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कृष्ण को पुकारा और आत्मसमर्पण कर दिया द्रौपदी की कृष्ण के प्रति बहुत भक्ति थी। कृष्ण ने भी जैसे-जैसे दु:शासन खींचता वैसे-वैसे उसके वस्त्रों को निरन्तर बड़ा दिया और सुरक्षा प्रदान की। अन्त में दु:शासन हार गया और उसके हाथ भी थक गए।

इस घटना के बाद द्रौपदी ने निन्दा की, वहाँ उपस्थित दुर्योधन सहित सभी ने यह स्वीकार किया कि युधिष्ठिर को अपने भाइयों और पत्नी को दांव पर नहीं लगाना चाहिए था और घोषणा की कि यह क्रीड़ा अवैध और निरर्थक है। परन्तु दुर्योधन ने पुनः दांव लगाने को कहा और यह तय हुआ कि हारने वाला बारह वर्षों के लिए वन में वास करेगा और एक वर्ष का अज्ञातवास में रहेगा। युधिष्ठिर के पुनः पराजित होने से पांडवों को राज्य छोड़कर वन की ओर जाना पड़ा। उसी समय कृष्ण उनसे मिलने आए और उन्हें सांत्वना दी। द्रौपदी ने अपमान होने के कारण सभा में प्रतिज्ञा की कि जब तक दुर्योधन और दु:शासन का वध नहीं हो जाता तब तक वह अपने केशों को नहीं बांधेगी। कृष्ण से उसकी दयनीय स्थिति देखी नहीं गई और अपने दिव्य हृदय में दुर्योधन और अन्यों का विनाश करने की प्रतिज्ञा की।

आऴ्वारों ने क‌ई स्थान पर यह दर्शाया है कि किस प्रकार भगवान द्रौपदी और पांडवों के प्रति प्रीति रखते थे और किस प्रकार उन्होंने दुर्योधन का विनाश किया। पेरियाऴ्वार् अपने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में, मैत्तुनन्मार् कादलियै मयिर् मुडिप्पित्तु अवर्गळैये मन्नराक्कि” (कृष्ण ने अपनी बुआ के पुत्रों पांडवों को उनकी पत्नी के केशों को बांधने के पश्चात् राजा बना दिया)। तिरुमङ्गै आऴ्वार् अपने पेरिय तिरुमोऴि में वर्णन करते हैं कि, पन्दार् विरलाळ् पाञ्चाली कून्दल् मुडिक्कप् पारदत्तु कन्धार् कळिट्रुक् कऴल् मन्नर्क कलङ्कच् चङ्गम् वाय् वैत्तान्” (कृष्ण ने अपने दिव्य मुख पर शंख रखा जिससे हाथियों पर सवार राजाओं को पराजित कराकर द्रौपदी‌ से जिसके हाथ में कन्दुक है, केशों को बँधवाया।)

सार-

  • पिळ्ळै लोकाचार्य वर्णन करते हैं, “भगवान के न आने का कारण यह है कि उनको पांडवों का वध करना पड़ता, जो उनके अतिप्रिय हैं। द्रौपदी के द्वारा आत्मसमर्पण करने के बाद भी, पांडवों को उनके भक्त होने के कारण द्रौपदी की रक्षा करनी चाहिए थी परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए वे दण्ड के पात्र थे। इससे बचने के लिए वे स्वयं नहीं आए।”
  • भले ही कोई कितना भी अच्छा हो यदि उसे अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं है तो उसे बहुत कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसे युधिष्ठिर के द्वारा किया गया कृत्य से जाना जा सकता है।
  • इससे स्पष्ट होता है कि भगवान किस प्रकार द्रौपदी और पांडवों के जीवन से अपने भक्तों की सहायता करते हैं। पांडवों के लिए इतना सब करने पर भी, परमपद पर चढ़ते समय, उन्हें दु:ख हुआ और कहा, “मैंने द्रौपदी के लिए जो किया वह पर्याप्त नहीं है।” भक्तों के द्वारा थोड़ी सी भक्ति दर्शाने पर वे उनके प्रति ऋणी हो जाते हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/24/krishna-leela-47-english/

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