कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ४८ – पांडव दूत – भाग १

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कृष्ण द्वारा प्रकट किए सबसे अद्भुत गुणों में से एक है आश्रित पारतन्त्र्य- भक्तों के वचनों का पूर्णतः पालन करना। इन गुणों को हम दो प्रकार से जान सकते हैं – प्रथम, पांडवों के लिए दूत बनकर जाना और द्वितीय, अर्जुन का सारथी बनना। आइए पांडवों के दूत बनकर जाने के विषय में जानें।

पांडव बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास में रहे और तत्पश्चात् धृतराष्ट्र से अपना राज्य लेने की प्रार्थना की। अपनी संतान के प्रति स्नेह के मोह के कारण दुर्योधन की तरफदारी की, दुर्योधन ने पांडवों को धरती का छोटा टुकड़ा देने के लिए भी मना कर दिया।

पांडवों और कौरवों में युद्ध होने वाला था। कृष्ण को भी यही सम्भावना थी। उनके दिव्य हृदय में भी यही विचार था कि किसी प्रकार से युद्ध हो जाए और उसमें सभी बुरी शक्तियों का विनाश हो जाए। इसलिए उन्होंने कहा, “मैं जाऊंगा और शांति सुनिश्चित करुंगा।‌” कृष्ण गये और युद्ध सुनिश्चित किया। उन्होंने पांडवों के हृदय में उनको दूत के रूप में भेजने का विचार डाला। श्री रामावतार के समय भगवान ने हनुमान जी को दूत बनाकर भेजा था। हनुमान जी ने उस कार्य को पूर्ण किया और प्रशंसा भी हुई। यह देखकर भगवान ने सोचा, “किसी अन्य अवतार में हमें दूत बनकर जाना चाहिए और ऐसे ही प्रसिद्धि प्राप्त करनी चाहिए” और कृष्णावतार में यही किया।

आऴ्वारों के द्वारा गाए गए पासुरों में, नम्माऴ्वार् और तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने भगवान के द्वारा की गई पांडव दूत की लीला का बहुत आनन्द लिया है। नम्माऴ्वार् तिरुवाय्मोऴि में वर्णन करते हैं, “नाडुडै मन्नर्क्कुत् तूदु सॆल् नम्बिक्कु” (वे पांडवों की ओर से दूत के रूप में गये, जो उस राज्य के नेता थे और ऐसा करके वे (कृष्ण) पूर्ण हुए।) तिरुमङ्गै आऴ्वार् अपनी पेरिय तिरुमोऴि में वर्णन करते हैं, “मूत्तवऱ्-कु अरसु वेण्डि मुन्बु तूदु एऴुन्दरुळि” (हे जो पहले एक दूत के रूप में गये थे, धर्म पुत्र, जो ज्येष्ठ पुत्र थे, उनको राज्य देने की इच्छा से) और “मुन्नोर् तूदु वानरत्तिन् वायिल् मोऴिन्दु अरक्कन् मन्नूर् तन्नै वाळियिनाल् माळा मुनिन्दु अवने पिन्नोर् तूदु आदि मन्नर्क्कागिप् पॆरुणिलत्तार् इन्नार् तूदनेन निन्ऱान् ऎव्वुळ् किडन्दाने” (श्री रामावतार में, श्रीराम (चक्रवर्ती तिरुमगन्) ने हनुमान जी के मुख से संदेश देने के लिए अद्वितीय शब्दों की जानकारी दी और उन्हें वहाँ भेजा; उन्होंने दयापूर्वक अपना क्रोध प्रकट किया ताकि रावण, जो लंका में दृढ़तापूर्वक रहता था, बाण से उसका विनाश हो जाए; वही एम्पेरुमान् कृष्णावतार में पाण्डवों के दूत बनकर खड़े हो गए, जो मूलतः राजा हैं, ताकि इस विशाल पृथ्वी के निवासी कह सकें कि “वे पांडवों के दूत हैं” और खड़े थे; वे अब तिरुवेव्वुळ् में विश्राम कर रहे हैं।)

सार-

  • उस समय दूत बनकर जाना कुत्ते का कार्य माना जाता था तब भी, अपने भक्त पांडवों के भगवान ने दूत बनकर जाने का निर्णय किया। यह उनकी परम सौलभ्यता मानी जाती है।
  • एम्पेरुमान् स्वेच्छा से पांडव दूत बनकर गये इसका कारण यह था कि यदि कोई और दूत बनकर चला जाता और शांति सुनिश्चित कर देता, तब पृथ्वी का भार कम करना कठिन हो जाता। उनका दिव्य विचार था कि दूत बनकर जाएं, युद्ध सुनिश्चित करें, सभी बुरी शक्तियों को एकत्र कर उनका विनाश कर दिया जाए।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/24/krishna-leela-48-english/

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