श्रीवचन भूषण – सूत्रं ७१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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अवतारिका

श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी इस शंका को स्पष्ट करते हैं, “किन्तु, क्योंकि चेतन में कर्तृत्व (कर्ता होना) और भोक्तृत्व (भोक्ता होना) है, जो कि ज्ञानार्थ (ज्ञाता होना) का प्रभाव है, इसलिए वह आत्म-प्रयास में संलग्न होने और आत्म-आनंद की खोज करने के लिए योग्य है। अब, इन दो विषयों से वैराग्य कैसे हो गा?”

सूत्रं – ७१

स्वयत्न निवृत्ति पारतंत्र्य फलम्; स्वप्रयोजन निवृत्ति शेषत्व फलम्

सरल अनुवाद

स्वयत्न निवृत्ति (स्व प्रयास से मुक्त होना) परतंत्रता/पारतंत्र्यम् (भगवान पर पूर्ण निर्भरता) का परिणाम है; स्वप्रयोजन निवृत्ति (आत्म-आनंद से मुक्त होना) शेषत्वम् (भगवान के प्रति दासता, जहाँ उसका एकमात्र उद्देश्य भगवान को आनंद देना है) का परिणाम है।

व्याख्या

स्वयत्न निवृत्ति …

अर्थात् – जहाँ कर्तृत्वम का अवकाश है, जो कि ज्ञातृत्वम का प्रभाव है, वहीं यह स्वयत्न निवृत्ति, अर्थात भगवान को पाने के लिए स्व प्रयास न करना है, जो पारतंत्र्य का परिणाम है, जहाँ चेतन का अस्तित्व आदि भगवान के अधीन है; इसी प्रकार, जहाँ भोक्तृत्वम् का अवकाश है, वहीं यह स्वप्रयोजन निवृत्ति अर्थात भगवान को आनंद देने के अलावा किसी भी वस्तु में रुचि न लेना है, जो शेषत्व का परिणाम है, जहाँ चेतन को केवल भगवान को महिमा प्रदान करनी चाहिए। इसके साथ, जैसा कि हम स्पष्ट रूप से समझते हैं, पारतंत्र्य और शेषत्व आत्मा के लिए स्वाभाविक होते हुए, ये दोनों (स्वयत्न निवृत्ति और स्वप्रयोजन निवृत्ति) स्वाभाविक रूप से घटित होंगे।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/24/srivachana-bhushanam-suthram-71-english/

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