श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि इसका क्या अर्थ है, “जब यह (भगवान तक पहुँचने के साधन के रूप में अपने शरीर को त्यागना) नियम के रूप में आता है तो इसे पूरी तरह से त्यागना पड़ता है और जब यह प्रेम से आता है तो इसे छोड़ा नहीं जा सकता”।
सूत्रं – ८७
उपायत्व अनुसंधानम् निवर्तकम्; उपेयत्व अनुसंधानम् प्रवर्तकम्।
सरल अनुवाद
इन कार्यों को साधन के रूप में सोचने से इनको हम त्याग करने की ओर अग्रसर होंगे; इन्हें लक्ष्य के रूप में सोचने से इनका अनुसरण करने की ओर अग्रसर होंगे।
व्याख्या
उपायत्व …
उपायत्व अनुसंधानम् निवर्तकम्
जब कोई व्यक्ति शरीर त्यागने को भगवान तक पहुँचने का साधन मानता है, तो वह विचार उसे ऐसे कर्म से विरत कर देता है।
उपेयत्व अनुसंधानम् प्रवर्तकम्
जब कोई व्यक्ति इसे प्रेम से किया गया कार्य मानता है, क्योंकि वह शरीर त्यागने के ऐसे कार्य को लक्ष्य मानता है और सोचता है कि “भगवान को हुई क्षति का साक्षी बनने की अपेक्षा शरीर त्यागना श्रेष्ठ है”, तो ऐसा विचार उसे ऐसे कार्य में संलग्न कर देगा।
वैकल्पिक व्याख्या।
जब यह नियमपूर्वक घटित होता है, तो साधन के रूप में भगवान का विचार उसे कार्य से विरत कर देता है; जब यह प्रेम से घटित होता है, लक्ष्य के रूप में भगवान का विचार उसे कार्य में संलग्न कर देता है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/13/srivachana-bhushanam-suthram-87-english/
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