श्री यामुनाचार्यजी का वैकुण्ठगमन
यामुनाचार्यजी ने जब सुना की रामानुजाचार्य ने यादवप्रकाश के यहाँ का अध्ययन छोड दिया है तो उन्होने अपने शिष्य महापुर्णाचार्य को काञ्ची जाकर वरदराज भगवान को आलवन्दार स्तोत्र का पाठ सुनाने की आज्ञा की।
महापुर्ण स्वामीजी आचार्य आज्ञानुसार भगवान को पाठ सुना रहे थे तो जलसेवा करते हुये रामानुजाचार्य को यह सुनाई पडा।
रामानुजाचार्य ने आश्चर्यान्वित हो महापुर्ण स्वामीजीसे इस स्तोत्र के प्रणेता के बारेमें पूछा।
महापुर्ण स्वामीजी से यामुनाचार्यजी का नाम सुनकर रामानुजाचार्य को उनके दर्शन की ईच्छा हुयी और वे काञ्चीपूर्ण स्वामीजी की आज्ञा लेकर श्रीरंगम के लिये प्रयाण किये।
रंगनाथ भगवान ने सोचा की यदि रामानुजाचार्य और यामुनाचार्यजी दोनों मिलजावें तो यह लीलाविभूति ही खाली होजायेगी (अर्थात् सभी जीव वैकुण्ठ चले जायेंगे)। ऐसा सोचकर उन्होने यामुनाचार्यजी को परमपद देदिया।
रामानुजाचार्य जब आये तो वें यामुनाचार्यजी के पार्थिव के दर्शन करके अति दु:खी हुवे।
यामुनाचार्यजी की तीन उँगलीयाँ मुडी हुयी थी। वह देखकर रामानुजाचार्य ने तीन प्रतिज्ञा की:
1⃣ मैं वैष्णव मत का अवलम्बन करके अज्ञान मोहित संसारियोंको पंचसंस्कार संपन्न, द्रविडवेद पारंगत एवं प्रपत्ति धर्म संलग्न करके उनकी संसार सागरसे सदा रक्षा करुँगा।
2⃣ मैं संपूर्ण उपनिषतत्वोंका संग्रह करके श्रीभाष्य की रचना करुँगा।
3⃣ पुराणरत्न श्री विष्णुपुराण के रचयिता श्री पराशर ॠषि का नाम किसी महाप्राज्ञ श्रीवैष्णव को दूँगा।
यह तीन प्रतिज्ञा सुनकर यामुनाचार्यजी की तीनों ऊँगलियाँ सीधी होगयी।
तत्पश्चात् रामानुजाचार्य काञ्ची आगये।