लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ – १५

 श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ

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१४१-तामस पुरुषर्गळोट्टै सहवासम् सर्वेश्वरनुक्कु त्याग हेतु। सत्वनिष्टरोट्टै सहवासम् ईश्वरनुक्कु स्वीकार हेतु।

तिरुमऴिसै आऴ्वार् जो परम सात्विक हैं (और अति  श्रद्धेय हैं) ने स्पष्टीकरण किया कि प्रत्येक को देवतान्तर से बचना है भले ही उसके लिए कुछ भी करना पड़े

तामसिक (अज्ञानी) जनों का संग करने के कारण एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) ही हमें भटका देते हैं। और सात्विक (ज्ञानवान श्रीवैष्णव) जनों का संग करने से एम्पेरुमान् हमें स्वीकारते हैं।

अनुवादक टिप्पणी -एम्पेरुमान् सदैव जीवात्मा का मार्गदर्शन करते हैं। परंतु जब जीवात्मा अज्ञानियों का संग करता है तो उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता तो यह जीवात्मा के लिए पतन का कारण होगा। देवतान्तर (अन्य देवताओं) को साधारणतः तामसिक पुरुष मानने का कारण है कि ये संसार से बंधे हुए हैं और उनका विचार है कि वे दूसरों को आशीर्वाद देने के योग्य हैं। जबकि श्रीवैष्णव (जो शुद्ध हैं) का संग करने से वह भगवान के समीप ले जाएगा, इससे उत्थान होगा।

तिरुमऴिसै आऴ्वार् नान्मुगन् तिरुवन्दादि ६८ पासुरम् में वर्णन करते हैं कि श्रीवैष्णव कभी भी देवतान्तरों की आराधना नहीं करते।-तिरुवडि तन् नामम् मऱन्दुम् पुऱम् तोऴा मान्दर्)

तिरुमङ्गै आऴ्वार ने इस नियम की पेरिय तिरुमोऴि ८.१०.३ में तिरुकण्णपुरम्  पदिगम (दशक) में बहुत सुन्दर प्रस्तुति की है ।

मटृमोर् देय्वम् उळदेन्ऱु इरुप्पारोडु उट्रिलेन्
उट्रदुम् उन् अडियार्क्कु अडिमै
मट्रेल्लम् पेसिलुम् निन् तिरुवेट्टेऴुत्तुम्
कटृ नान् कण्णपुरत्तुऱै अम्माने।

हे तिरुक्कण्णपुरम् के नाथ! मैं इस प्रकार के किसी भी व्यक्ति समुदाय से संग नहीं करुँगा जो आप श्रीमन्नारायण के अतिरिक्त अन्य को भगवान मानते हैं। तिरुमन्त्रम् (अष्टाक्षर) को आत्मसात करने के पश्चात्, मैं दासों का दास हूँ यह मेरा दृढ़ निश्चय है।

यहाँ हमें यह ज्ञात होता है कि आऴ्वार् कहते हैं कि “मैं अन्य देवताओं के भक्तों का संग नहीं करूँगा” उनका कहना केवल यह नहीं है कि “मैं देवतान्तरों का संग नहीं करुँगा” उनका कहने का अर्थ है कि “मैं आपके दासों का दास ही रहूँगा” वह केवल यह नहीं कहते कि “मैं आपकी सेवा करुँगा “।

पिळ्ळै लोकाचार्य ने श्रीवचनभूषणम् में श्रीवैष्णवों की महिमा की मनोहरता दर्शायी है। २२१ वे सूत्रम् में वह कहते हैं:- 

वेदगप् पोन् पोले इवर्गळ् पक्कल् सम्बन्धम्।

रासायनिक शास्त्री एक पदार्थ के माध्यम से लोहे को सोने में परिवर्तित कर देता है। उसी प्रकार भागवतों के साथ संबंध रखने से किसी को अपवित्र अवस्था से पवित्र अवस्था में बदल देता है और भगवान की अनुकम्पा पाने के योग्य बना देता है।

मामुनिगळ् ने ऐसे ही नियम की व्याख्या अपने उपदेस रत्तिन् मालै के पासुरम् ६९ और ७० में की है। इन पासुरम् का तात्पर्य यह है –

  • पासुरम ६९- जिस प्रकार मनोहर सुगन्ध वाली वस्तु के संपर्क में आने से दूसरी वस्तु में सुगंध आ जाएगी उसी प्रकार श्रीवैष्णवों के जो कि बहुत सात्विक स्वभाव के हैं के साथ सम्बन्ध होने से दूसरों में भी वही सात्विक गुण आ जाएँगे।
  • पासुरम ७०- जिस प्रकार बहुत दुर्गन्धित वस्तु के संपर्क से दूसरी वस्तु दुर्गन्ध युक्त हो जाएगी उसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति से सम्बन्धित दूसरे व्यक्ति में भी वे अवगुण आ जाएँगे।

१४२नित्यसूरिगळ् तिरळिले अव्वोलक्कत्तिन् नडुवेयिरुक्कुम् इरुप्पैक् काण्गैयिरे प्राप्यमागिऱदु ।

परमपदनाथ नित्यमुक्तों से परिपूर्ण

नित्यमुक्त पार्षदों से सुसेवित परमपद दिव्य नित्यानन्दमय मण्डपम् में सुखासीन श्रीमन्नारायण (श्री वैकुण्ठनाथ भगवान) के दर्शन का पूर्णानन्द लेना ही उपेय प्राप्ति है।

अनुवादक टिप्पणी – जैसे कि विष्णु सूक्तम् में कहा गया है, “सदा पश्यन्ती” ही परम उपेय है। भगवान का दिव्य मङ्गल विग्रह इतना सुन्दर है कि नित्यसूरी/नित्यमुक्त एक क्षण के लिए भी अपने नेत्रों को झपकते नहीं। परमपद में प्रत्येक पार्षद एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के दिव्यमङ्गल विग्रह, कल्याण गुणों आदि का परमानन्द प्राप्त करने में व्यस्त हैं और पूर्ण श्रद्धा से कैङ्कर्य करते हैं।

१४३- स्वरूपज्ञानम् पिऱन्दविडत्तिल् स्वरूपविरोधियाग प्रवर्त्तिक्कप् पोगादिऱे।

अनुवादक टिप्पणी -स्वरूपम् – वास्तविक स्वरूप। जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप का अर्थ है कि उसे भगवान का अत्यंत परतन्त्र (पूर्ण आश्रित स्थिति) समझना है और जीवात्मा शरीर में विद्यमान आत्मा है परन्तु उससे भिन्न है। स्वरूप विरोधी का अर्थ है कि जो जीवात्मा के स्वरूप के विपरीत है और यह जीवात्मा को वास्तविक स्वरूप (भगवद् भागवत् कैङ्कर्य करना) के अनुभव और अभ्यास में बाधा उत्पन्न करते हैं।

नीचे दिए गए विरोधियों को हटाने की आवश्यकता है:-

  • देहात्म अभिमानम् -आत्मा और शरीर को एक मानना और शरीर को महत्ता देते हुए जीवन जीना। इस विचार को हटाने के लिए यह समझना कि जीवात्मा आत्मा है जो शाश्वत/स्थायी है और शरीर अनित्य/अस्थाई है, इस बाधा को पार कर।
  • अन्य शेषत्वम् – स्वयं को अन्य देवताओं का दास समझना – जीवात्मा का स्वामी केवल भगवान (श्रीमन्नारायण) ही है। इसीलिए अन्य देवताओं के प्रति दासता नहीं करनी चाहिए। भगवान के दिव्य मंङ्गलकारी वास्तविक स्वरूप जो सभी जड़ और चेतन का स्वामी है यह जानकर, इस बाधा पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • स्व स्वातन्त्रयम् -जीवात्मा का स्वंय को स्वतंत्र (स्वाधीन) मानना। अन्य शेषत्वम् को त्यागने के पश्चात् भी कोई स्वयं को स्वयं का स्वामी मान सकता है। इसको समझकर कि भगवान ही प्रत्येक वस्तु के नियन्त्रण हैं, इस बाधा को दूर किया जा सकता है।

पेयाऴ्वार् ने मुन्ऱाम् तिरुवन्दादि पासुर १४ में भगवद्विषयम् की महत्ता और जिज्ञासा को उजागर कर, उसकी फलश्रुति को प्रस्तुत किया है 

माऱ्‌पाल् मनम् चुऴिप्प मङ्गैयर् तोळ् कै विट्टु
नूऱ्‌-पाल् मनम् वैक्क नोय्विदाम्
नाऱ्‌पाल् वेदत्तान् वेङ्गडत्तान्
विण्णोर् मुडि तोयुम् पादत्तान् पादम् पणिन्दु।

चारों वेदों का विषय तिरुवेङ्कटमुडैयान् (तिरुपति बालाजी) है जिनका निवास तिरुवेङ्कट में है और नित्यसूरियों के शीर्ष भगवान के चरण कमलों से शोभामान हो रहे हैं। जब कोई भगवान के चरण कमलों में शरणागत हो जाता है और अपनी बुद्धि को तिरुवेङ्कटमुडैयान् (तिरुपति बालाजी) पर एकाग्र करता है, ऐसा करने से वह सांसारिक वासनाओं (स्त्री आलिंगन आदि) को त्याग देगा और धर्मग्रंथों का अध्ययन सरलता से करेगा।

१४४- सदाचार्यन् अरुगिलिरुन्दु श्रिय:पतियोऴिय इव्वात्म वस्तुवुक्कुत् तञ्जमाय् इरुप्पारिल्लै एन्ऱु उपदेशित्ताल् अत्तनै पोदुम्।

एक श्रेष्ठ आचार्य का शिष्य होना पर्याप्त है जो सदा अपने शिष्य को यह निर्देश देता है कि श्रीमन्नारायण ही पूर्णाश्रय हैं और यह योग्यता किसी और में नहीं है।

अनुवादक टिप्पणी -आचार्य शास्त्र अध्ययन करके उसका स्वयं पालन करते हुए दूसरों को इसका पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। श्रेष्ठ आचार्य अर्थात् वह  जो विष्णु और वैष्णवों की सेवा में लगे रहते हैं और वे केवल जीवात्माओं के उद्धार के लिए ध्यान केंद्रित करते हैं जिससे उन्हें भगवान के नित्य कैङ्कर्य करने के लिए प्रेरित किया जा सके। यदि कोई व्यक्ति ऐसे आचार्य की शरण में आता है और अमूल्य निर्देशों को स्वीकार करता है कि “श्रीमन्नारायण ही सबके स्वामी और मोक्ष धाम (आश्रय) हैं” और जो कोई इसे सहज स्वीकार कर लेता है और आचार्य के द्वारा बताए नियम का पालन करता है, यह उस जीवात्मा को स्वत:ही उज्जीवित करेगा। श्रीमन्नारायण का उपाय (साधन) और उपेय (लक्ष्य) होने का सिद्धांत द्वय महामंत्र में पूर्णतः समझाया गया है, इसलिए हमारे पूर्वाचार्यों के लिए इस मन्त्र के प्रति परम श्रद्धा है।

१४५-आऴ्वार्गळ् “वऴुविला अडिमैसेय्यवेण्डुम् नाम्” एन्ऱु अदु तन्नैये चोल्ला निऱ्‌पर्गळ् प्राप्ति पलमान कैङ्कर्य रुचियाले।

जीवात्मा के स्वरूप के उज्जीवन के लिए उपयुक्त कारण है कैङ्कर्य, जिसके प्रति आऴ्वारों की गहन निष्ठा थी और इस कारण वे सदा भगवान को शुद्ध सेवा प्रदान करने की महत्ता को दर्शाते हैं।

अनुवादक टिप्पणी -आऴ्वार सदा निर्विघ्न/निष्कलंक कैंङ्कर्य करने पर ध्यान देते थे, वे सदा एम्पेरुमान् से प्रार्थना करते कि हमें निर्विघ्न/निष्कलंक कैंङ्कर्य प्रदान करो। एक प्रश्न सामने आता है “हमारे कैङ्कर्य करने में कौन से दोष आ सकते हैं?” मुमक्षुप्पडि में द्वय महामंत्र के द्वितीय भाग में नमः शब्द की व्याख्या करते हुए द्वय प्रकरण के अन्त में पिळ्ळै लोकाचार्य ने समझाया है। यह पिळ्ळै लोकाचार्य की सर्वसम्मत व्याख्या है जिसको मामुनिगळ् (श्री वरवरमुनि जी) की दिव्य व्याख्या की सहायता से विशेष/पूर्ण सुगमता से समझा जा सकता है।आइए अब समझते हैं।

  • सूत्रम् १७८- नम: कैङ्कर्यत्तिल् कळै अऱुक्किऱदु” नमः हमारे कैङ्कर्य में होने वाले अपराध को (स्वयं उग जाने वाले खरपतवार) को दूर कर देता है, यहाँ मामुनिगळ् दर्शाते हैं कि नमः को साधारणतः अहंकार और ममकार को समाप्त करने के लिए समझाया जाता है। श्रीमन्नारायण के लिए कैङ्कर्य करने के लिए इस संदर्भ को द्वय महामंत्र के द्वितीय भाग में समझाया है कि नमः उस दृष्टिकोण को हटा देता है जो ऐसे कैङ्कर्य करने के लिए हानि पहुँचाने वाले हैं।
  • सूत्र १७९-कळैयावदुतनक्केन्नप् पण्णुमदु – स्वयं सन्तुष्टि के लिए कैङ्कर्य करना यहाँ अपराध/दोष है। कोई भी कैङ्कर्य करने का केंद्र भगवान को मानना है, यदि उसमें आत्म आनन्द हो तो भी दोष का कारण है।
  • सूत्र १८०-इदिले अविद्यातिगळुम् कऴियुण्णुम्। इसके अतिरिक्त नमः शब्द अविद्या, कर्म, जन्मादि, अज्ञान, पुण्य-पाप द्वारा प्राप्त कर्म, जन्मादि के दुष्चक्र को दूर करता है।
  • सूत्र १८१- उनक्के नामाट्चेय्वोम् एन्नुम्पडिये आगवेणुम्। आण्डाळ् ने तिरुप्पावै के पासुरम् २९ में यह दर्शाया है कि “हम केवल आपके मङ्गल के लिए सेवा करेंगी।” कैङ्कर्य कभी भी स्वेच्छा पूर्ण करने के लिए नहीं करना चाहिए, न ही एम्पेरुमान् के साथ स्वेच्छा पूर्ण करने हेतु, यह तो केवल एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) की इच्छा पूर्ण करने हेतु करना चाहिए।

१४६ – संसारम् त्याज्यम्, सर्वेश्वरन् उद्देश्यन् एन्गिर ज्ञानम् पिरन्दु भगवत् समाश्रयणम् पण्णिनवर्गळ् “भेषजम् भगवत्प्राप्ति” एन्ऱु भगवत् प्राप्तियळविले निऱ्‌-पर्गळ्।

तिरुमालिरुञ्चोलै अऴगर्

जो कोई यह समझता है कि “संसार का त्याग करना है और एम्पेरुमान् ही उपेय हैं” वे यह भी  समझते हैं कि संसार रूपी रोग से निवारण के लिए एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के प्रति पूर्ण शरणागत होना होगा। उन्होंने स्वयं भगवान को औषधि माना है और अन्त में परमपद में भगवान तक पहुँचने के परम लक्ष्य में दृढ़ हैं।

अनुवादक टिप्पणी -इस सिद्धांत को पेरियाळ्वार् ने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ५.३.६ में बहुत सुन्दर व्याख्या की है।

एरुत्तुक् कोडियुडैयानुम् पिरमनुम् इन्दिरनुम् 
मटृम् ओरुत्तरुम् इप्पिरवि एन्नुम् नोय्क्कु मरुन्तरिवारुमिल्लै
मरुत्तुवनाय् निन्ऱ मामणिवण्णा मऱु पिऱवि तविर्त् तिरुत्ति 
उन् कोईल् कडैप् पुगप्पेय् तिरुमालिरुञ्जोलै एन्दाय्।

हे मेरे परमपिता परमात्मा जो तिरुमालिरुञ्जोलै (अऴगर् एम्पेरुमान्)! रुद्र जिसके ध्वज में बैल का चिह्न है, ब्रह्मा (जो बहुत ज्ञानवान हैं-तब भी भगवान के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं रखते) इन्द्र जो स्वर्ग का राजा है और कोई भी संसार रूपी रोग का निवारण नहीं कर सकता है। आप आचार्य (आध्यात्मिक चिकित्सक) कृपया मेरे इस रोग का उपचार करें और कैङ्कर्य में संलग्न करें ।

पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने इस पासुरम् की गहन व्याख्या की है आईए उसके मुख्य संदर्भ को जानते हैं।

  • यह संसार अपने आप में ही एक व्याधि है। सामान्यतः संसार में चार व्याधियों को जाना जाता है -जन्म (जीवन), मृत्यु (मरण), जरा (बुढ़ापा), व्याधि (रोग)। जन्म ही मूल कारण है दूसरी व्याधियों का- यदि हम इस संसार में जन्म लेने को रोकने के योग्य हैं, तो इससे हमें मुक्ति मिल जाएगी।
  • बैल को अज्ञानता का सर्वोत्तम उदाहरण माना गया है। जबकि रुद्र के ध्वज में बैल का चिह्न है इसलिए उसे तामस देवता माना गया है।
  • ब्रह्मा बहुत ज्ञानी है फिर भी भगवान के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं है -इसलिए वह संसार की व्याधि का उपचार नहीं कर सकते।
  • इन सब देवताओं को संसार वर्त्तकर/वर्धन माना जाता है -जो इस संसार में हमारे बंधन को बढ़ाते हैं। इस तथ्य को दृढ़ता से कहा गया है कि जब कृष्ण रुद्र से प्रार्थना के लिए कैलाश गए (क्योंकि रुद्र ने भगवान से एक वरदान मांगा था कि भगवान रुद्र से कुछ मांगे) उसने दर्शाया कि घण्टा कर्ण (और उसके भाई) को केवल भगवान श्रीमन्नारायण ही आशीर्वाद देकर मोक्ष प्रदान कर सकते हैं।
  • भगवान को औषधि, चिकित्सक और आनन्ददायक अमृत के रूप में आऴ्वारों द्वारा अन्य स्थानों पर अलङ्कृत किया है। भगवान के एक ही समय में ये तीनों होने का गुण किसी दूसरे तत्व में नहीं देखा जा सकता।
  • अन्तत: यह ज्ञात होता है कि भगवान के मंदिर में एक उत्तम जीवन जीना ही लक्ष्य है, जैसे कि पेरियाऴ्वार् स्वयं पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ५.१.३ में वर्णित करते हैं “उन् कोयिलिल् वाऴुम् वैट्टणवन् एन्नुम् वन्मै कण्डाये” -अपना पूर्ण जीवन भगवान की सेवा में व्यतीत करनेवाला एक श्रीवैष्णव बनना ही परम लक्ष्य है। वाऴ्च्चि (वाऴुम्) का अर्थ है उज्जीवन, जो केवल एम्पेरुमान् के चरण कमलों के अतिरिक्त कहीं नहीं है।

१४७सर्वेश्वरन् प्राप्यनानाल् अर्च्चिरादिगतियोडु देशविशेषत्तोडु वाचियऱ प्राप्यान्तर्गतमिऱे।

नीचे का भाग लीला विभूति है (मुमुक्षु का नेतृत्व करते हुए विभिन्न देवता), विरजा नदी, उसके ऊपर परमपद है।

जैसे कि सर्वेश्वरन् (परमपिता परमात्मा) प्राप्य लक्ष्य है, अर्चिरादि मार्ग (वह मार्ग जो भगवान की ओर जाता है) और परमपदम् (जहाँ श्रीमन्नारायण अपनी दिव्य पत्नियों, नित्यसूरियों, मुक्तात्माओं के साथ रहते हैं) भी उस लक्ष्य‌ के सहभागी हैं।

अनुवादक मार्गदर्शन -प्राप्यम् का अर्थ है पुरुषार्थम् – वह जो किसी जन द्वारा इच्छित/प्राप्त किया जाता है। कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु व्याख्या अवतारीका में पुरुषार्थम् के तीनों स्तरों को ज्ञात किया गया है।

  • अधमम्- निम्न- अचित पर आधारित हैं- भौतक/सांसारिक सुख- ये अस्थिर और महत्वहीन हैं।
  • मध्यम- मध्य- यह चित (स्वयं) पर आधारित है- स्थायी और आनन्दमय होते हुए कैवल्यम् (स्वयं का आनन्द लेना) के अवस्था में चाहे वह इस संसार से वैराग्य प्राप्त कर लें, तब भी भगवान के दिव्य और मङ्गल गुणों का आनन्द लेने की तुलना में यह महत्वहीन है।
  • उत्तमम्- सबसे ऊँचा/सर्वोच्च- यह ईश्वर (भगवान) पर आधारित है- भगवान के लिए कैङ्कर्य ही परम लक्ष्य माना जाता है, क्योंकि भगवान मङ्गल गुणों के भंडार हैं और श्रद्धापूर्वक भगवान का कैङ्कर्य जीवात्मा के लिए आनन्दमय और स्वाभाविक है।

इसीलिए भगवान को सर्वश्रेष्ठ आनन्ददायक परम लक्ष्य माना जाता है।

जब एक मुमुक्षु (जीवात्मा जो मोक्ष प्राप्त करना चाहता है) इस संसार में अपनी देह का त्याग कर देता है, तो आतिवाहक (वो देवताएँ जो विभिन्न लोकों के नियंत्रक हैं) जीवात्मा को अर्चिरादि गति/पथ के माध्यम से विरजा नदी तक ले जाते हैं जो संसार और परमपदम् के बीच में बहती है। अर्चिरादि अर्थात् “अर्चिस् से आरम्भ होना” इसमें अर्चि, अहस, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, संवत्सर, वायु, सूर्य, चन्द्र, विद्युत,  वरुण, इन्द्र और ब्रह्मलोक के नियन्त्रक देवता सम्मिलित हैं। जीवात्मा इन लोकों से यात्रा करते हुए मूल प्रकृति को पार करता है, अन्त में विरजा नदी के तट पर पहुँचकर नदी पार करने के पश्चात्, उसे एक दिव्य आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है और वह परमपद में भगवान के पास पहुँचता है और भगवान के प्रति नित्य कैङ्कर्य करने लगता है। छांदोग्य, वाजनेय और कौशीदकी उपनिषदों में दिए गए वर्णन से यह ज्ञात होता है कि अर्चिरादि मार्ग के माध्यम से यह यात्रा सबसे अधिक आनन्दमय है। इसको नम्माऴ्वार् ने अपने तिरुवाय्मोऴि १०.९ में (चूऴ् विशुम्बणिमुगिल्) के पदिगम् (दशक) में, पिळ्ळै लोकाचार्य ने भी अर्चिरादि नामक अद्भुत रहस्य ग्रन्थ में जीवात्मा की यात्रा भौतिक संसार से लेकर परमपद तक को वर्णित किया है।

एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य जी) ने श्री वैकुण्ठ गद्यम् में दिव्य और अद्भुत रहस्यों को विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। वे परमपद के परिवेश की व्याख्या करते हैं कि वह परिवेश सबसे शान्त और आनन्दमय है जो जीवात्मा के लिए पवित्रता से भगवान के कैङ्कर्य करने के लिए अनुकूल है क्योंकि वहाँ सब कुछ आध्यात्मिक है। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने भी अर्चिरादि नामक ग्रन्थ में परमपद का बहुत अद्भुत वर्णन किया है।

उपरोक्त से यह ज्ञात होता है कि एम्पेरुमान् के लिए कैङ्कर्य करना ही हमारे लिए परम लक्ष्य को प्राप्त करना है। परमपद जहाँ हम एम्पेरुमान् के लिए शाश्वत कैङ्कर्य करते हैं और वह मार्ग जो हमें परमपद तक ले जाता है, इन्हें प्राप्त करना भी परम लक्ष्य है ।

ऊपर के चित्र की व्याख्या:-

  • सबसे नीचे के भाग में,
    • सबसे पहले जीवात्मा आचार्य और भागवतों से मिलता है।
    • दूसरे भाग में जीवात्मा शरीर त्यागते हुए दर्शाया है।
    • आगे का प्रत्येक भाग प्रत्येक लोकम्/देवता को दर्शाता है- अर्चिस, अहस आदि। जीवात्मा प्रणव (ओंकार) रथ में यात्रा करता है।
    • अन्त में मूल प्रकृति (सप्त आवरण) को दिखाया गया है।
  • उससे ऊपर, आगे विरजा नदी है जिसमें हँस पक्षी हैं– जीवात्मा उसमें डुबकी लगाता है और उसे एक अप्राकृत शरीर प्राप्त होता है।
  • नदी (विरजा नदी) पार करने के बाद अमानवन् जीवात्मा को स्पर्श करता है और उसे परमपद के अन्दर जाने की स्वीकृति देता है।
  • तब नित्यसूरियों द्वारा जीवात्मा का अभिवादन होता है और अप्सराओं (भगवान के दिव्य दास जो सुंदर स्त्रियों का रूप धारण करते हैं) द्वारा अलङ्कृत किया जाता है।
  • उसके पश्चात् जीवात्मा नित्यमुक्तों के साथ मुख्य द्वार तक पहुँचता है जो जीवात्मा के आने पर उत्सव मनाते हैं।
  • अन्ततः वह मुख्य द्वार में प्रवेश करता है और मणिमण्डपम् (जहाँ एम्पेरुमान् दिव्य महिषियों के साथ बैठते हैं) में प्रवेश करता है और भगवान उसे स्वीकारते हैं। ( इस चित्र में वर्णित नहीं है, १४२ के चित्र में देखने को मिलता है)

१४८- उपासना पलमाय् वरुमवैडैय प्राप्यान्तर्गतमागक् कडवदु साध्य विवृत्तिक्कुडलाय् वरुमवैडैय पलत्तुक्कु उडलागक् कडवदु आगैयाले प्राप्य भूमि अद्देसमे अङ्गे कोण्डुपोय्च् चेर्क्कुम् कडकनवने।

उपासना का फल जो वेदान्त में वर्णित है परम लक्ष्य/कैङ्कर्य का भाग है। जीवात्मा की वास्तविक वृत्तिके आधार पर उसका फल कैङ्कर्य ही है। जो लक्ष्य प्राप्ति में सहायक है वह कारण/उपाय हैं। इसीलिए अन्त में पहुँचने का स्थान तो परमधाम ही है, जो हमें वहाँ तक पहुँचाते हैं वे स्वयं भगवान हैं।

अनुवादक टिप्पणी – लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जो अभ्यास किया जाता है उसका फल उस लक्ष्य का भाग ही है। इसको जानने के लिए पहले वाले सूत्र को देखें।

१४९- अनुकूलरिले ओरुवनुक्कोरु नन्मैयुण्डानाल् अदु तन्नताग निनैत्तिरुकैयुम् अनर्त्तम् वन्दाल् अदु तनक्कु वन्ददाग निनैत्तिरुकैयुम् आगिर इव्विरण्डुम् उण्डानालिरे वैष्णवत्वम् उण्डायिट्रावदु।

श्रीवैष्णव होने का अर्थ है जो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य से ओतप्रोत है और जो दूसरे श्रीवैष्णव का दु:ख और सुख आपस में बाँटे और ऐसे जानें जैसे स्वयं के साथ अनुभव हुआ हो।

अनुवादक टिप्पणी – अनुकूलर् का अर्थ है जो सामान्यतः एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के प्रति अनुकूल हो, निष्ठा रखते हो।  जो श्रीवैष्णवों का सुख दु:ख बांटे वहीं श्रीवैष्णवम है।

कुछ पासुरों में आऴ्वारों ने दो प्रकार के चरित्रों को उजागर किया है। भगवान के द्वारा गजेन्द्राऴ्वान की सुरक्षा करना और उसकी सेवा को स्वीकारना और भगवान द्वारा प्रह्लादाऴ्वान की रक्षा करना। हमारे पूर्वाचार्यों ने दर्शाया है, आऴ्वारों की अनुभूति है कि जब भगवान गजेन्द्राऴ्वान और प्रह्लादाऴ्वान की सहायता करते हैं तो आऴ्वारों को अनुभव होता है कि भगवान उनकी सहायता कर रहे हैं, वे बहुत आनन्दित होते हैं जब भगवान अपने दास की सुरक्षा करते हैं।

१५०- त्रैलोक्यत्तैयुम् कैयडैप्पाक्किनालुम् रक्ष्यम् शुरुङ्गि रक्षत्त्व पारिप्पे विञ्जि निऱ्‌-कुम्।

नीर्वण्णर्- तिरुनीर्मलै

तीनों लोकों का उद्धार करने के पश्चात भी भगवान की जीवात्माओं के उज्जीवन करने की इच्छा बहुत बड़ी है और भगवान द्वारा संरक्षित किया जानेवाला छोटा ही होगा।

अनुवादक टिप्पणी – जीवात्मा का प्राकृतिक स्वरूप (यथार्थ स्वरूप) भगवान से सुरक्षा के लिए प्रार्थना करना है (सुरक्षा के लिए प्रार्थना शरणागति के माध्यम से यह उपाय/साधन नहीं है- कुछ ऐसा मानते हैं)। भगवान तो स्वत:ही जीवात्मा की सुरक्षा करते हैं (यह जीवात्मा के चुने कर्म पर आधारित है)। श्रीमद्रामायण में सीता पिराट्टि के कथन वर्णित हैं कि “आनृसम्स्यम् परो धर्म:” दूसरों के प्रति करुणा भाव रखना बहुत महत्वपूर्ण गुण है। काकासुर के द्वारा घोर अपराध करने पर भी श्रीराम जी ने अपनी करुणामय स्वरूप के कारण क्षमा कर दिया, यह “कृपया पर्यपालयत्” अर्थात् दयापूर्वक सुरक्षा। 

इन नियमों को आण्डाल् नाच्चियार् ने तिरुप्पावै पासुर ८ में वर्णित किया है, पासुर के अन्त में कहा रही हैं कि (देवादि देवनै सेन्ऱु नाम् सेवित्ताल् आ आ एन्ऱु आराय्न्दु अरुळेलोर् एम्बावाय्) जब हम भगवान की उपासना करते हैं तब स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण अपने भक्तों को संरक्षित कर, उत्सुकता पूर्ण कल्याण करते हैं। पेरियवाच्चान् पिळ्ळै, अऴगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् और आई जनन्यचार्य -इस सिद्धांत को समझाने के लिए श्रीमद्रामायण से उद्धरण श्लोकों की सहायता से इन तीन टीकाकारों ने तिरुप्पावै का सटीक व्याख्यानम् किया है। तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने २.४.६ पासुर में तिरुनीर्मलै पदिगम में इस नियम को वर्णित किया है।

पारार् उलगुम् पनिमाल् वरैयुम् कडलुम् शुडरुम् इवै उण्डुम् 
एनक्कु आरादेन् निन्ऱवन् एम्पेरुमान् 
अलै नीर् उलगुक्कु अरसागिय अप्पेरानै मुनिन्द मुनिक्करैयन्
पिऱरिल्लै नुनक्केनुम् एल्लैयिनान् नीरार् पेरान् नेडुमाल् अवनुक्कु इडम् मामलैयावदु नीर्मलैये।

महाप्रलय के समय, भगवान इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने अंदर समाहित करते हैं और उनको जगद् रक्षणम् होकर ऐसी प्रलय से संरक्षित रखते हैं। यहां तिरुमङ्गै आऴ्वार् कहते हैं “ये भूलोक, पर्वत, महासागर, सूर्य आदि को अपने अंदर समाहित करने (संरक्षण के लिए) के पश्चात् भी भगवान संतुष्ट नहीं होते और अधिक से अधिक जीवात्मा के संरक्षण के लिए करुणा कटाक्ष करते हैं। भगवान इस भूलोक में परशुराम के स्वरूप में (स्वरूप-आवेशावतार – जब एम्पेरुमान् स्वयं को जीवात्मा के रुप में प्रकट करते हैं) अवतरित हुए और कार्तवीर्यार्जुन (जो स्वयं का शक्ति आवेश अवतार है- जहां एम्पेरुमान् जीवात्मा पर अपनी शक्ति प्रकट करते हैं) और ऐसे कई राजा का वध किया जो अभिमानी थे। ऐसे एम्पेरुमान् जिनका अपने अंशावतार के साथ कोई तुलना नहीं है, उन्होंने तिरुनीर्मलै दिव्यदेशम् में नीर्वण्णर् के स्वरूप में प्रकट हुए।”

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/09/divine-revelations-of-lokacharya-15/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
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