श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9” पर हिन्दी में देख सकते है।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ३०
६५) समर्पण विरोधी – अर्पण करने में बाधाएं
श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी, श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी
समर्पण का अर्थ देना या अर्पण करना है। साधारणतया बड़े व्यक्ति जैसे भगवान, आचार्य, आदि को अर्पण करने को “समर्पण” कहते हैं। वैदिक रीतियों में सामान्यतया यह देखा गया है कि जब भी हम किसी श्रीवैष्णव को कुछ अर्पण करते हैं तो हम कहते हैं “श्रीवैष्णवेभ्यो सम्प्रदात्ते – न मम”। इसका अर्थ हैं “यह श्रीवैष्णवों को दे दिया गया है और अब यह मेरा नहीं है”। इस भाग में आत्म समर्पण पर विस्तार और स्पष्टता से चर्चा की गयी है। आत्म समर्पण का अर्थ भगवान के चरण कमलों में स्वयं को अर्पण करना। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते हैं “एनधावी तन्तोलिन्तेन… इनि मिल्वतेनबथुण्डे” – मैंने स्वयं को अर्पण कर दिया है … कुछ वापस नहीं आयेगा और स्वयं को भगवान को अर्पण कर देते हैं। आल्वारों के पथ पर चलते हुए श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्तोत्र रत्न के श्लोक में कहते हैं “तदयं तव पादपद्मयोः अहमध्यैव मया समर्पित:” और स्वयं को भगवान के चरण कमलों में अर्पण कर देते हैं। अनुवादक टिप्पणी: कण्णिनुण्शिरुत्ताम्बु के ५वें पाशुर में श्रीमधुरकवि स्वामीजी कहते हैं “नम्बिनेन् पिरर्नन्पोरुल तन्नैयुम” – मैं स्वयं से जुड़ा था (नन्पोरुल – आत्मा) जो भगवान की संपत्ति है (इसलिये इसे “पिरार नन्पोरुल” कहते हैं जहाँ पिरार भगवान को संबोधित करता है)I जीवात्मा भगवान की संपत्ति है। भगवान स्वामी हैं और जीवात्मा संपत्ति। अगर यह स्थिति है तो कैसे जीवात्मा भगवान को अर्पण कर सकता है। हमारे पूर्वाचार्य इस कार्य को बड़ी सुन्दरता से कहते हैं कि यह इस प्रकार हुआ कि रात को भगवान के आभूषण चुराना और सबेरे वहीं आभूषण लेकर भगवान के निकट बड़े उत्साह के साथ जाकर भगवान को अर्पण करना जैसे कि हम स्वयं की कोई वस्तु दे रहे हैं और उनकी नहीं। फिर आल्वार और आचार्य भी ऐसा करते हैं। इसे हमारे पूर्वाचार्यों ने बड़ी सुन्दरता से समझाया है। श्रीसहस्रगीति में आल्वार पहले स्वयं को भगवान को अर्पण करते हैं परन्तु तत्पश्चात अपनी गलती स्वीकार कर भगवान से कहते हैं “एनधावियार? यान आर? थनध नी कोण्डाक्किनैये” – “मैं कौन हूँ? मैं पहले ही आपका हूँ”। आप अपनी स्वयं की संपत्ति अब स्वीकार कर रहे हैं। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी अपने व्याख्या में समझाते हैं कि अगर समर्पण नहीं हैं तो वह सर्व मुक्ति प्रसंगम की ओर ले जाता है (भगवान को सभी को परमपदधाम लाना पड़ेगा क्योंकि किसी को शरणागति करने की कोई आवश्यकता नहीं है)। परन्तु अगर हम आत्म समर्पण करते हैं तो इसका अर्थ भगवान की संपत्ति भगवान को ही अर्पण करना हैं। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी एक भाव समझाते हैं कि – संसार को देखते हुए प्रपन्न कभी कभी बहुत भय महसूस करते हैं इसलिये वों स्वयं को भगवान को अर्पण करते हुए यह ज़ोर देते हैं कि वे भगवान के शरण हो गये हैं। इसे भ्रम परिस्थिति की तरह समझाते हैं। परन्तु भगवान को देखते ही उनका भय दूर हो जाता हैं – क्योंकि उनको यह स्मरण करवाया जाता है कि वों भगवान कि संपत्ति है और वों (भगवान) अपने सभी विषयों कि रक्षा करने में सक्षम हैं और इसलिये उन्हें यह अहसास होता है भगवान की संपत्ति भगवान को अर्पण कर उन्होंने एक बहुत बड़ी भूल की है और अपने आत्म समर्पण के लिये प्रायश्चित करता है। जब तक इस संसार में हैं तो यह निरन्तर होता रहता हैं – क्योंकि वें संसार और भगवान दोनों ही देखते हैं। यही तत्व श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्तोत्र रत्न के ५२वें श्लोक में समझाकर अर्पण करते है परन्तु फिर ५३वें श्लोक में वे भगवान से पूछते हैं “अथवा किम नु समर्पयामि” – आ! मैं कौन हूँ? मैं आपको क्या अर्पण कर रहा हूँ? मैं आपको कुछ भी अर्पण करने में स्वतन्त्र नहीं हूँ आप तो पहले ही मेरे स्वामी हैं। श्रीपेरियावाचन पिल्लै अपने व्याख्या में इस श्लोक को समझाते हैं। अत: हम यह देख सकते हैं कि जीवात्मा के लिये आत्म समर्पण सही नहीं हैं फिर यह भय/अज्ञानता के कारण करते हैं और एक बार जीवात्मा के स्वभाव को भगवान की संपत्ति है यह जानने के पश्चात प्रायश्चित करता है।
- अहंकार (देह को आत्मा मानना) और ममकार (भगवान की संपत्ति को स्वयं का मानना) जो जीवात्मा को अपनी संपत्ति भगवान और भागवतों को अर्पण करने से रोकता है, बाधा हैं। स्वयं को स्वतन्त्र मानना बहुत बड़ा अपचार है। सच्ची बात है कि “सबकुछ/सभीजन भगवान के आधीन हैं”। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में कहते हैं “याने एन्नै अरियगिलाते याने एन्तनते एन्रिरुन्तेन” – मैं पहले यह नहीं जानता था कि मैं कौन हूँ और मैं यह सोचता था कि मैं स्वतन्त्र हूँ – जीवात्मा के प्रति सच्चा ज्ञान पाने की यह स्थिति है। इसी पाशुर में आगे कहते हैं “याने नी एन्नुडैमैयुं निये” – में आपकी संपत्ति हूँ और मेरा शरीर भी आप ही की संपत्ति हैं – जीवात्मा के सच्चे स्वभाव को जानने के पश्चात की यह स्थिति है। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी का सभी को सबसे पहला उपदेश यह है “नीर नुमतु एनरीवै वेर मुथल मायत्तु” – हमको हमसे सम्पूर्णता से अहंकार और ममकार को मिटाना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: आध्यात्मिक यात्रा में सबसे पहली शिक्षा है आत्मा देह से अलग है यह समझना है। हम नित्य आत्मा हैं और हमारे इस शरीर से भिन्न हैं। अधिकतर जन आत्मा और शरीर में भेद नहीं करते हैं और केवल शरीर यात्रा को ही सब कुछ मान लेते है। दूसरी बात हमें यह समझना चाहिये कि भगवान श्रेष्ठ स्वतन्त्र हैं और वे सभी के मालिक हैं। इस पूरे सृष्टी में हमारा कुछ भी नहीं हैं। अगर इन दोनों तत्त्वों में सही तरह से समझ गये हो तो हम स्वाभाविकता से भगवान जो सभी के स्वामी हैं उनके आनन्द के लिये कार्य करेंगे। अहंकार और ममकार यह दोनों हमारे आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा हैं। भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में अर्जुन को भगवान के प्राप्ति का सच्चा ज्ञान को स्पष्टता से समझाते हैं। २.१२ में वे आत्मा देह से भिन्न हैं इससे प्रारम्भ करते हैं और आगे कहते है आत्मा कई हैं और हर आत्मा दूसरे से भिन्न हैं और भगवान ही सर्वश्रेष्ठ हैं। आचार्य से शरणागति प्राप्त करने के पश्चात भी इन दो बाधाओं से बहुत बार हम घबरा जायेंगे। हमें यह निरंतर स्मरण रखना चाहिये कि हम जीवात्मा हैं देह से अलग और भगवान पर निर्भर। इस निरंतर द्रढ़ता के साथ हम स्वयं को अच्छे स्वभाव में रख सकते हैं।
- स्वयं का समझकर कुछ पकड़ना, यह जानने के बाद भी कि हम भगवान के दास हैं। यह बाधा है। एक बार भगवान के सेवक हूँ ऐसा सच्चे स्वभाव का ज्ञान हो जाये तो स्वाभाविक रूप से जो हमारा है वह भगवान का ही है। इसलिये बिना हिचकिचाहट के उसी क्षण सब कुछ भगवान को अर्पण कर देना चाहिये।
- यह सोचकर कि हम मालिक हैं और भगवान को अर्पण कर रहे हैं बाधा है। भगवान ही सब के मालिक हैं यह सत्य है। स्वयं को स्वामी मानना मन की विशुद्ध स्थिति है और यह मानना कि सबकुछ भगवान का है मन की स्पष्ट स्थिति है।
- यह न जानना कि हमारी पिछली अज्ञान स्थिति जिसमें भगवान कि सम्पत्ति चुराई है (आत्मा और देह को स्वयं के उपभोग के लिए उपयोग करना) यह वैसा ही है जैसे भगवान को कुछ अर्पण कर यह सोचना कि वह मेरी ही सम्पत्ति है, यह बाधा है। स्वयं को भगवान को अर्पण करना वैसा ही है जैसे उसी मन्दिर से रात में बहुमूल्य आभूषण को चुराना और दूसरे दिन वहीं आभूषण भगवान को अर्पण करना। अनुवादक टिप्पणी: शास्त्रानुसार सबसे बड़ा पाप/चोरी स्वयं को स्वतंत्र समझना और उसके अनुसार कार्य करना – इसे महाभारत में इस तरह समझाया गया हैं “किम तेन न कृतं पापं चोरेण आत्मापहारिणा” – आत्मा जो भगवान की संपत्ति है उसे स्वयं का मानता है वह सब प्रकार के पाप/चोरी किये समान है। अर्पण करने से पूर्व या अर्पण करने के पश्चात अगर यह विचार आए कि आत्मा स्वयं की है तो यह गलत है।
- स्वयं को यह सोचकर अर्पण नहीं करना कि “यह तो भगवान की संपत्ति है तो मैं कैसे उसे स्वयं को अर्पण करूँ?” हालाँकि हमारे पूर्वाचार्यों ने स्वयं को अर्पण किया है। हमारे पूर्वाचार्यों ने आत्म समर्पण किया था। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी कहते “अहं अध्यैव मया समर्पित:”। हालाकि आत्मा भगवान की है फिर भी हमें उसे भगवान को अर्पण करना हीं पड़ेगा। परन्तु अगले श्लोक में वे स्वयं इसपर यह कहकर पश्चाताप करते हैं “अथवा किम णु समर्पयामि”। यहाँ वे कहते हैं कि अगर एक बार उन्हें यह अहसास हो जाता है कि मेरे स्वामी भगवान हीं हैं तो मैं कैसे स्वयं को उन्हें अर्पण करूँ? श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रागीति में पहिले आत्म समर्पण कर फिर प्रायश्चित करते हैं “एनधावी तंतोलिन्तेन …इनि मिल्वतेनबथुण्डे” और कहते हैं “एनधावियार? यान आर? तंध नी कोण्डाक्किनैये”। इस संदर्भ में व्याख्यान के चक्रवर्ती श्रीपेरियावाचान पिल्लै स्वामीजी स्तोत्र रत्न की व्याख्या में समझाते हैं कि “संसार भीतियाल समरप्पीक्कैयुं, स्वरुप याधात्म ज्ञानत्ताल अनुसयिक्कैयुं. इरण्डुम् यावनमोक्षं अनुवर्त्तिक्कक कडवतु” – संसार से डर कर भगवान को स्वयं को अर्पण करना और फिर स्वयं के सच्चे स्वभाव को जानकार पश्चाताप करना, यह क्रम संसार से मुक्त होंगे तब तक चलता रहेगा – इससे बच नहीं सकते हैं। श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि प्रपत्ती को उपाय मानना और सिद्धोपाय निष्ठा प्रकरण में ऐसे तत्त्वों में अभाव देखना। सूत्र १४६ में वों समझाते हैं कि “प्रपत्ती को उपाय” मानना भी गलत है क्योंकि भगवान ही उपाय हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी गद्यत्रय में कहते हैं जहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी पहिले प्रपत्ती करते हैं और फिर भगवान से अपनी गलती की क्षमा माँगते हैं – तो हम अपने सभी पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से यह देख सकते हैं कि स्वयं को पहिले भगवान को अर्पण करना और फिर उसके लिये पश्चाताप करना चाहिये।
- यह न समझना की भगवान स्वयं की सम्पत्ति को स्वीकार कर रहे हैं बाधा हैं। क्योंकि भगवान सभी के स्वामी हैं वह केवल अपनी सम्पत्ति को स्वीकार कर रहे हैं – इसे सही नहीं समझना बाधा है।
- स्वयं या अन्यों से “यह मेरा हैं” उसे अर्पण करना बाधा हैं। जैसे पहले कहा गया है भगवान ही सभी के स्वामी हैं। यह सोचना कि मैं मालिक हूँ और भगवान को अर्पण कर रहा हूँ, यह सही नहीं है। फिर भी हमें स्वयं को भगवान को प्रेम से अर्पण करना चाहिये। भगवान भगवद्गीता में कहते हैं जो भी मुझे प्रेम से अर्पण करता है मैं उसे खुशी से स्वीकार करता हूँ। इसलिये जो भी हम अर्पण करते हैं उसे प्रेम से अर्पण करना चाहिये न कि घमण्ड से की मैं आपको कुछ अर्पण कर रहा हूँ। इस तरह के दोषपूर्ण स्वामीत्व की कोई भी वस्तु जीवात्मा के स्वभाव के अनुकूल न हो और ऐसी वस्तुओं को यहाँ दण्डित किया जाता है।
- यह मानना कि भगवान पूरी तरह संतुष्ट और आत्मनिर्भर नहीं हैं और यह सोचकर उन्हें अर्पण करना कि उन्हें हमसे कुछ चाहिये यह बाधा है। भगवान को अवाप्त समस्त कामन (वह जिनकी इच्छाएं पहले ही पूरी हो चुकी हैं) कहते हैं। फिर भी उनके भक्त प्रेम से उन्हें जो भी कुछ अर्पण करते हैं वे उसे खुशी से स्वीकार करते हैं।
- यह मानना कि हम कुछ अर्पण कर रहे हैं वे भगवान के पास नहीं है, बाधा है। हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि “उसके पास यह वस्तु नहीं है। मैं यह इसलिये ताकि भगवान इसके मालिक बन जायें”।
- यह न सोचना कि सभी में वह हीं है और वह केवल हमारी सेवा को पूर्ण करने हेतु हमारे अर्पण को स्वीकार करता है और हमें ऊपर उठाता है। यह बाधा है। हमें यह न सोचना चाहिये कि “देहिमे – ददामि ते” (मैं आपको कुछ प्रदान करता हूँ और बदले में आप भी कुछ मुझे प्रदान कीजिए) – यह मन की परिस्थिती संभ्रम हैं। जब लोग कष्ट में होते हैं तब वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि “कृपया मुझे इस दुख से छुटकारा प्रदान करें मैं बदले में यह काम कर दूँगा” – इसे सामान्यता संस्कृत में प्रार्थना कहते हैं। परन्तु भगवान की एक ही इच्छा है कि हम उनकी शरणागति स्वीकार करें और उनके प्रति पवित्र भक्ति रखें। फिर भी हमें प्रेम से अपनी सामर्थ्यानुसार उन्हें अर्पण करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: इस तरह की सांसारिक प्रार्थना जीवात्मा के सांसारिक कष्ट के निवारण के लिये सही नहीं है। हमें भगवान और भागवतों के पास नित्य कैंकर्य के लिये प्रार्थना करनी चाहिये क्योंकि जीवात्मा के स्वभाव के लिये यही सही है। अपने आध्यात्मिक प्रगति के लिये कोई भी भौतिक उद्देश की प्रार्थना हमें कठिनाई की ओर लेजाती है।
- भगवान से हमने लाभ प्राप्त किया इसलिये उन्हें कुछ अर्पण करना। अनुवादक टिप्पणी: भगवान को भक्ति कृषक कहते हैं। वह जीवात्मा में भक्ति का बीज लगाते है, कर्म के लिये स्थान उपलब्ध करवाते हैं, मार्गदर्शक के रूप में शास्त्र प्रदान करते हैं, आचार्य से मिलाते है, भागवत सम्बन्ध प्रदान करते है, बाधाओं से छुड़ाते है, आदि और जीवात्मा का पोषण करते है और अन्त में जीवात्मा को परमपदधाम में लाते हैं। जीवात्मा इस कृपा को कभी भी लौटा नहीं सकता है। इसलिये जीवात्मा केवल आश्चर्य कर सकता है कि कैसे वह भगवान के उपकार को लौटा सकता है।
- भगवान द्वारा किये गये हमारे प्रति उपकार को कैसे चुकाना है, इससे घबराना नहीं चाहिए। कण्णिनुण्शिशिरुत्ताम्बु के १०वें पाशुर में श्रीमधुरकवि स्वामीजी कहते हैं “मुयलहिन्नेन उन्तन्मोयकलर्क्कन्बैये” – मैं आपके चरण कमलों में प्रेम से सेवा करना चाहता हूँ परन्तु आपके उपकारों के अनुरूप कुछ भी कर नहीं पा रहा हूँ – इसलिये श्रीमधुरकवि स्वामीजी बहुत चिन्तित हैं और वे श्रीशठकोप स्वामीजी से प्रार्थना के बदले में कुछ भी नहीं कर पा रहे है। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी भगवान के प्रति अपनी दिव्य भावना इस तरह प्रगट करते है “एनधावी उल कलंत पेरूनल्लुतविक कैम्मारु” – आप बेड़े प्रेम से मुझसे घुल मिल गये परन्तु मैं कैसे आपके उपकार का बदला चुका पाऊंगा।
- आत्म समर्पण करते समय यह मानना कि हम स्वयं आत्मा के स्वामी हैं, बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हम इस पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। आत्मा भगवान की सम्पत्ति है और भगवान अपनी सम्पत्ति स्वीकार कर रहे हैं।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
आधार: https://granthams.koyil.org/2014/07/virodhi-pariharangal-31/
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