श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
अब श्रीरङ्गम् मंदिर पर वर्णन करना
उस समय में महात्मा जन जो श्रीरङ्गम् में निवास करते थे वें प्रति दिन “श्रीमन् श्रीरङ्गश्रियम् अनुपद्रवाम् अनुदिनं सम्वर्धय ” इस श्लोक का उच्चारण करते थे (बिना किसी बाधा के श्रीरङ्गम् का धन (सेवा का) बढ़ता रहे) और इसके साथ में श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी का मङ्गळाशासन “तिरुप्पल्लाण्डु” (श्रीरङ्गनाथ भगवान हमेशा रहे), श्रीपरकाल स्वामीजी का श्रीरङ्गम् पाशुर “एऴै एदलन” (यह नीच कुल के हिन व्यक्ति …), श्रीशठकोप स्वामीजी के ७.४.१ पाशुर “आऴि एऴ शङ्गुम्” (भगवान के दिव्य शंख और चक्र कि वृद्दि हो …), भगवान का मङ्गळाशासन (प्रशंसा करना) करना और उनके शरण होना। उनके मङ्गळाशासन के फल स्वरूप भगवान ने उन्हें एक परम वैष्णव भक्त राजा जिसका नाम गोपणार्य था प्रदान किया जो शेञ्जि (तिरुवण्णामलै) में राज्य करता था जो तिरुपति गया वहाँ श्रीरङ्गनाथ भगवान (उत्सव मूर्ति) कि पूजा किए और लौटते समय बड़ी दया से श्रीरङ्गनाथ भगवान को शेञ्जि के समीप अपने गाँव सिङ्गरायपुरम लेकर आगये। वें पूर्ण भक्ति से श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करते थे और जिन्होंने श्रीरङ्गम् पर कब्जा किया उन पर आक्रमण करने हेतु एक उचित समय कि प्रतिक्षा कर रहे थे। सिङ्गरायपुरम नम्बी ने एक उचित समय पर आक्रमण करने के लिए हरी झंडी दी। गोपणार्य अपनी अप्राप्य सैन्य शक्ति के साथ जाकर श्रीरङ्गम् को आक्रमणकारी से मुक्त कर श्रीदेवी और भूदेवी सहित श्रीरङ्गनाथ भगवान का प्रतिष्ठापन पेरिया पेरुमाळ के सन्निधि में किया वैसे हीं जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं
आनीयानीलशृंङ्गत्युदिरचित जगद्रञ्जनातञ्चात्रेश सेञ्जयाम्
आराद्य कन्चित् समयमत निहद्धयोत्तनुषठान् तुरुष्कान् ।
लक्ष्मी क्षमाप्यामुपाप्यां सह निजनिलयेऽस्थापयत् रङ्गनाथम्
सम्यक्चर्यां सपर्यामकृत निजयशो दर्पणो गोपाणार्यः ॥
(गोपणार्य जिनका दर्पण कि तरह चमकती प्रसिद्धि हैं, कृपा से कुछ समय के लिए श्रीरङ्गनाथ भगवान को तिरुमला से उनके स्थान शेञ्जि लाये जिन्हें अंजनाचलम भी कहा जाता हैं क्योंकि वह संसार को आनन्द प्रदान करता हैं उनके काली चोटी पर चमक के कारण; वहाँ कुछ समय भगवान कि पूजा करने के पश्चात तुर्की के आक्रमणकारी को अपने धनुष बाण से मार डाला और श्रीरङ्गनाथ भगवान को श्रीदेवी और भूदेवी सहित उनके मूल निवास श्रीरङ्गम् में प्रतिष्ठापित कर दिव्य पूजा किये)।
जैसे इस पाशुर में कहा गया हैं “कोङ्गुम कुडन्दैयुम कोट्टियूरुम पेरुम एङ्गुम तिरिन्दु विळयाडुम …” (हर जगह खेलना जैसे कोंगु नाडु [तमिऴ नाडु का पश्चिमी क्षेत्र], तिरुक्कोट्टियूर, तिरुप्पेर, आदि) और “मयलमिगु पोऴिल्सूऴ मालिरुञ्चोलै ” (तिरुमालिरुञ्जोलै जो बागों से घिरा हैं जिसके पास माहन मुग्द करनेवाले गुण हैं), “विरयार पोऴिल वेङ्गडम ” (तिरुमला जिसमे पूर्ण सुगंधित बगीचे हैं), श्रीरङ्गनाथ भगवान इन सभी स्थानों पर गये और सभी दुश्मनों को मिटाने के पश्चात पुन: श्रीरङ्गम् लौटे जैसे इस पाशुर में कहा गया हैं “कोयिऱपिळ्ळै इङे पोदराये ” (ओ मंदिर के निवासी यहाँ पाधारों!) सकाप्तम १२९३ में साल परीथापी संवत्सर विशाखा महिने के १७वें दिन श्रीरङ्गम् भी अयोध्या के समान उत्सव मना रहा हैं जैसे कहा गया हैं “रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान्” (श्रीराम ने पुन: माता सीता को जीता और अपना राज्य पाया)। वह दृष्टि को निहारना था जैसे यहाँ कहा गया हैं “तिरुमगळोडु इनिदु अमर्न्द सेल्वन ” (भगवान श्रीमहालक्ष्मीजी सहित उपायुक्त रिती से बैठते हैं), “वीऱ्ऱिरुन्द मणवाळर मन्नु कोयिल ” (यह मंदिर था जहाँ अऴगियमणवाळन (श्रीरङ्गनाथ) निवास कर रहे थे), अऴगियमणवाळन अम्माजी (श्रीदेवी और भूदेवी) के साथ सेरपाण्डियन (वह दिव्य सिंहासन जिस पर श्रीरङ्गनाथ भगवान अम्माजी सहित विराजमान हैं) पर विराजमान है, श्रीरङ्गम् पर प्रभुत्व के साथ अपना शासन प्रगट किया।
श्रीवैष्णव जो बहुत दूर स्थानों पर रहते थे वों इस घटना को सुनकर उन्मत्त महसूस किये जैसे कहा गया हैं
बहूनिनाम वर्षाणि गतस्य सुमत्वनम्।
श्रुणोम्यहं प्रीतिकारं ममनाथस्य कीर्तनम्॥
(मैंने यह महान संदेश सुना कि श्रीरङ्गनाथ भगवान बहुत समय जंगलों में रहने के पश्चात कृपाकर लौट गये), यह माना कि यह उनका भाग्य हैं कि श्रीरङ्गनाथ भगवान बहुत समय पश्चात लौटे। तुरंत सभी भागवत वहाँ पहुँचकर श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा किये और बहुत प्रसन्न हुए जैसे कहा गया हैं “प्रह्रुष्टम् उतितोलोक” (लोग बहुत प्रसन्न हुए)। भगवान भी जैसे श्रीरामायण के एक श्लोक में कहा गया हैं “विज्वरःप्रमुमोतह ” (ताप और चिंता से मुक्त होने के पश्चात होनेवाली खुशी) सभी कि ओर शीतलता से देखे और उन पर अपनी कृपा बरसाये। उन्होंने दक्षीण कि ओर देखा और अपनी कृपा अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ नायनार पर बरसाये।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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