कष्ण लीलाएँ और उनका सार – ५६ – महाभारत युद्ध – भाग ३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः

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कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ योद्धा द्रोण को मारने की विधि पांडवों को सिखाई। द्रोण को अपने पुत्र अश्वत्थामा से बहुत प्रेम था। यदि वह मारा गया तो द्रोण स्वयं ही शक्तिहीन हो जाएगा। परन्तु वह चिरञ्जीव है, जिसकी आयु बहुत लम्बी है। उसे आसानी से मारा नहीं जा सकता था। इसलिए कृष्ण ने उन्हें एक युक्ति सुझाई कि वे अश्वत्थामा नामक हाथी को मारकर इस माध्यम से द्रोण को मार सकते हैं। युक्ति अनुसार भीम ने अश्वत्थामा नामक हाथी को मार दिया और द्रोण को बताया कि अश्वत्थामा मारा गया। जबकि द्रोण यह सुनकर चिंतित हो गए, परन्तु युधिष्ठिर के मुख से सुनकर समाचार की पुष्टि की क्योंकि युधिष्ठिर सत्यवादी हैं और द्रोण उनके कथन पर विश्वास करेंगे। युधिष्ठिर से पूछे जाने पर बिना किसी विकल्प के कहा, “हाँ! यह सत्य है।” यह सुनकर द्रोण ने अपने हथियार त्याग दिए। द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उसी समय द्रोण को मार डाला। इस प्रकार द्रोण मारा गया। यह सुनकर अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हुआ और सबसे शक्तिशाली नारायण अस्त्र चलाया। कृष्ण ने सभी को उसके आगे शीर्ष झुकाने को कहा, ऐसा करने पर अस्त्र ने बिना क्षति पहुँचाए उन्हें अकेला छोड़ दिया।

तत्पश्चात् कर्ण सेनापति बना। उसने पांडव सेना को बहुत क्षति पहुँचाई। तब तक भीम ने दु:शासन को मार डाला और उसका रक्त द्रौपदी को दिया। उसने उस रक्त केशों पर लगाया और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

कृष्ण की मन्त्रणा अनुसार कुंती ने कर्ण को अपना पुत्र होने के बारे में जानकारी दी और पांडवों का वध न करने का अनुरोध किया। तब उसने प्रतिज्ञा की कि वे अर्जुन के अतिरिक्त किसी और को नहीं मारेंगे। अन्त में अर्जुन ने उसे ही मार डाला।

अन्तिम अठारहवें दिन भीम और दुर्योधन के बीच भीषण युद्ध हुआ। कृष्ण ने भीम को संकेत दिया कि वह दुर्योधन की जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाले।भीम ने अनुसरण करते हुए उसी प्रकार दुर्योधन को मार डाला।

तत्पश्चात् अश्वत्थामा पाण्डवों के शिविर में आया और उप पांडवों (पांडवों के पांच पुत्र) को पांडव समझकर मार डाला। इस प्रकार पांडवों और कौरवों में से कुछ को छोड़कर अधिकांश योद्धा इस युद्ध में मारे गये।

नम्माऴ्वार् ने तिरुवाय्मोऴि वर्णन किया है कि भगवान ने इस अद्भुत युद्ध में कैसे योगदान दिया, “तीरप्पारै याम् इनि एङ्गुम् नाडुदुम्? अन्नैमीर्! ओर्प्पाल् इव्वोण्णुदल् उ नल् नोय् इदु तेऱिनोम् पोर्प्पागु तान सेय्दु अन्ऱैवरै वेल्वित्त मायप्पोर्त तेर्प्पागनार्क्कु इवळ् सिन्दै तुऴाय्त् तिसैक्किन्ऱदे” ((सखी कहती हैं) हे माता! जब उनका (परांकुश नायकि) का रोग निवारण नहीं हुआ तो रोग निवारक को कैसे ढूँढे जो उपचार कर सके? जाँच करने पर स्पष्ट हुआ कि इस सुन्दर मस्तक वाली यह बाला इस प्रशंसनीय रोग से ग्रस्त है। उसका हृदय व्याकुल हो गया और वह उस (कृष्ण) के लिए अपना मानसिकता खो बैठी, जो युद्ध के समय अर्जुन के रथ के सारथी के रूप में खड़ा था; उस दिन युद्ध की क्षमता रखने वाले तथा छलपूर्वक अद्भुत कार्य करने वाले भगवान कृष्ण स्वयं पाँचों पांडवों को विजयी बनाने में लगे हुए थे।)

सार-

  • कृष्ण पांडवों के रक्षक, मन्त्री और मित्र बने, उचित मन्त्रणा दी और महाभारत युद्ध का संचालन करके पृथ्वी का भार समाप्त किया।
  • द्रौपदी का दु:ख दूर करने के लिए उन्होंने महान युद्ध किया। यदि कोई उनके भक्तों के प्रति अपराध करता है, तो अपराधियों को दण्ड देने के लिए वे महान कार्य करते हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2023/11/01/krishna-leela-56-english/

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