श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः
युद्ध समाप्त हो गया और युधिष्ठिर का राज्याभिषेक स्वयं कृष्ण की देखरेख में हुआ और पुनः द्रौपदी और पांडवों के लिए सभी प्रकार की शुभकामनाएं आई।
युद्ध के समय अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। पांडवों से अत्यंत क्रोधित अश्वत्थामा ने पांडवों के परिवार में आनेवाली अद्वितीय संतान को गर्भ में ही मार डालने का क्रूर विचार किया। उन्होंने गर्भ में पल रहे भ्रूण पर अपाण्डवास्त्र (जिसे ब्रह्मास्त्र भी कहा जाता है) चलाया। वह उसके गर्भ में प्रवेश कर भ्रूण को नष्ट कर दिया, जले हुए रूप में गर्भ से बाहर गिरा दिया।
जैसे ही उत्तरा ने कृष्ण की स्तुति की, कृष्ण ने उस भ्रूण को स्पर्श कर पुनः जीवित कर दिया। वह बालक राजा परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कृष्ण के दिव्य चरणों के स्पर्श पुनः जीवित होने के कारण उसकी कृष्ण के प्रति बहुत भक्ति थी।
युधिष्ठिर ने कुछ समय तक राज्य किया और फिर परीक्षित को राजा बनाकर स्वर्ग चले गये। उनके भाई और द्रौपदी भी उनके पीछे चले गये।
तत्पश्चात् परीक्षित ने धर्मानुसार राज्य किया। एक बार जब वे आखेट के लिए गए तो उन्हें बहुत भूख -प्यास लगी। वे एक ऋषि के आश्रम में गए और भोजन मांगा। ऋषि के ध्यानार्थ होने के कारण कोई उत्तर नहीं दिया। परीक्षित क्रोधित हो गए और ऋषि के गले में एक मरा हुआ सर्प माला के रूप में डालकर आश्रम की ओर चले गए। ऋषि के पुत्र ने यह सब देखा और श्राप दिया कि जो ऐसा करेगा, वह एक सप्ताह के भीतर मृत्यु को प्राप्त होगा। ऋषि जिन्होंने तपोबल से सिद्धि प्राप्त की हुई थी पुत्र से क्रोध में कहा, “परीक्षित एक अच्छे व्यक्ति हैं। तुमने उन्हें अनजाने में की हुई त्रुटि के लिए श्राप दिया है।” इसके पश्चात् परीक्षित को सारी घटनाओं की जानकारी हुई तब अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ और सोचा, “हमें यह एक सप्ताह बहुत अच्छे ढंग से व्यतीत करने चाहिए।” उन्होंने तुरन्त अपने पुत्र जन्मेजय को राजा बनाया और ऋषियों की तालाश में वन को चले गए। उस समय व्यास ऋषि के पुत्र शुक भी वहाँ आ पहुँचे। परीक्षित पूर्ण शरणागत हो गये और भोजन, निद्रा आदि की चिंता किए बिना श्री मद्भागवत के माध्यम से कृष्ण की पूरी कथा का श्रवण किया। अन्ततः वे सद्गति को प्राप्त हुए।
आऴ्वारों में पेरियाऴ्वार् ने अपने पेरिय तिरुमोऴि में दर्शाया है कि कृष्ण ने परीक्षित की कैसी रक्षा की, “मरुमगन् तन् सन्ददियै उयिर् मीट्टु” (कृष्ण ने अपने फुफेरे भाई की संतति को बचाया) और “उत्तरै तन् सिऱुवनैयुम् उय्यक्कॊण्ड उयिराळन्” (जिन्होंने उत्तरा के पुत्र का उद्धार किया)।
सार-
- भगवान ने न केवल पांडवों पर कृपा की बल्कि उनके वंशजों पर भी कृपा की। यह भगवान द्वारा न केवल अपने भक्तों पर बल्कि उनके वंशजों पर भी कृपा करने का एक उदाहरण है।
- मृत्यु का सामना कभी भी हमें करना पड़ सकता है इसलिए हमें अपना समय केवल भगवद् विषय में ही व्यतीत करना चाहिए। परीक्षित ने यह सिद्ध किया।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
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