श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहे कि श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र बड़ी दया से श्रीरन्ङ्गनाथ् भगवान कि आज्ञा से रचि गई हैं इसलिये उपर कि घटना किसी के भी मन में श्ंखा उत्पन्न करती हैं। इससे तो बेहतर होगा कि शिक्षित जनों से अपनी शंखा को दूर करना चाहिये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीवचन भूषण पर अपनी व्याख्या इस तरह लिखे हैं;
“सांसारियों को जो हानि हुई हैं उसे देखते हुए और उन्हें उपर उठाने के लिये श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी अपने ज्ञान कि कृपा से कई प्रबन्ध कि रचना किये। गूढ कालक्षेपों को स्मरण करते हुए जिसे पूर्वाचार्यों ने बड़ी गुप्त रीति से दिये हैं, यह निश्चित करके कि उन्होंने अपने पहिले कि कार्य के अर्थों को दोहराये नहीं और भगवान उन्हें कृपा कर करने को कहे और श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर श्रीवचन भूषण प्रबन्ध कि रचना किये”।
कांची के श्रीवरदराज भगवान ने बड़ी कृपा से नम्बी को देखे जो मणप्पाक्कम में निवास कर्ते थे और उनके स्वप्न में कुछ अर्थो का निर्देश दिये। उन्होंने नम्बी को एक दिन “आप दो नदियों के मध्य में विराजमान हो जाइए और हम तुम्हें आगे के अर्थ स्पष्ट रूप से वहीं बतायेंगे”। नम्बी भी श्रीरङ्गम् पहुँच (कोळ्ळिडम् और कावेरी नदी के मध्य में) प्रति दिन भगवान कि पूजा करने लगे। वें दूसरों को सुनाये बिना मन्दिर (काटऴगियसिङ्गर् मन्दिर) के एक हीं स्थान पर वही अर्थ दोहरा रहे थे जो उन्हें श्रीवरदराज भगवान ने कहा था। अनायास श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी अपने शिष्यों सहित उस स्थान पर पहुँच गये। वें अपने शिष्यों को शास्त्र के गूढ़ार्थ सिखाने लगे। यह देखते हुए कि यह अर्थ उन अर्थों के समान हैं जिसे श्रीदेवराज भगवान ने उन्हें सुनाया श्रीमणप्पाक्कम नम्बी अपने स्थान से बाहर आकर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। वें श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी से पूछे कि “आप हीं वें हैं?” [अर्थ- आप हीं श्रीदेवराज भगवान हैं] और श्रीदेवराज भगवान ने उन्हें जो दिशा निर्देश दिया उसे पूरा स्वामीजी को कहा और भगवान ने उन्हें क्या करने को कहा। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी उनके शब्दों को सुनकर प्रसन्न हुए और नम्बी को शिष्य रूप में स्वीकार किया और उन्हें भी सभी गूढ़ार्थ सिखाया। एक दिन भगवान उनके स्वप्न में आये और श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी को सूचना देने को कहे कि यह उनका निर्देश हैं और यह सब लिखने को कहा ताकि यह अर्थ कभी कोई भूले नहीं। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी इसे भगवान का निर्देश मानकर स्वीकार किया” (यहाँ तक श्रीवचन भूषण शास्त्र के प्रस्तावना व्याख्या पर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शब्द हैं)।
श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् कृपा कर कुछ प्रबंधों जैसे तिरुप्पावै पर व्याख्या लिखे। यह ध्यान में रखते हुए जीयर (अपने सम्प्रदाय में जीयर शब्द श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को संभोधित हैं) अपने प्रबन्ध उपदेश रत्नमाला में लिखे “तम्सीराल वैयगुरविन तम्बि मन्नु मणवाळमामुनि सेय्युम अवैतामुम सिल” (अपने करुणामय गुण से श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के अनुज श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् ने कुछ व्याख्याओं कि रचना किये)।
इस प्रकार जब श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी और श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् संसार के मोह माया को त्याग कर रहते थे श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् श्रीवैकुंठ को पधार गये। बिछड़ने से श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी को बहुत दु;ख हुआ और अपने गोद में श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् का मस्तक रखा और कहे “अगर महान मुडुम्बै वंश के श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् भी श्रीवैकुंठ पधार गये तो आठ शब्दोंवाले अष्टाक्षर मंत्र (तिरुमंत्र) का आंतरिक अर्थ कौन बताएगा और माम शब्द (जैसे भगवान कृष्ण ने श्रीभगवद गीता के १८.६६ में कहा हैं मामेकं शरणं व्रज) का अर्थ भी?”।
श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् कि तनियन
द्राविडाम्नाय हृदयं गुरुपर्वक्रमागतम्
रम्यजामातृदेवेन दर्शितं कृष्णसूनुना
(दिव्य ग्रंथ आचार्य हृदयम कि रचना श्रीअऴगियमणवाळ नायनार् ने कि है जो श्रीकृष्णपाद स्वामीजी के पुत्र हैं जिन्हें कृष्णा भी कहा जाता हैं)।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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