श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीशैलेश स्वामीजी का वैभव
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के परमपद प्रस्थान के पश्चात श्रीशैलेश स्वामीजी कि माताजी जो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कि शिष्या भी थी उनके वियोग को सहन न कर सकी और उन्होंने भी परमपद कि ओर प्रस्थान किया। श्रीशैलेश स्वामीजी अपनी मामी के यहाँ पले बड़े। श्रीशैलेश स्वामीजी लौकिकी ज्ञान से परिचित थे और तमिऴ भाषा में भी प्रवीण थे। उनके वैदीक और लौकिक ज्ञान का पता चलने के पश्चात पाण्डय देश के राजा ने उन्हें मन्त्री और पुरोहित नियुक्त किया।
श्रीकूर कुलोत्तम दास ने श्रीशैलेश स्वामीजी को सुधार कर फिर से संप्रदाय में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक दिन पालकी में बैठकर जब वें राज दरबार में जा रहे थे तब श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित तिरुविरुत्तम से पहिला पाशुर श्रीशैलेश स्वामीजी को गाकर श्रवण कराया। उसके अर्थो में रुचि के कराण श्रीशैलेश स्वामीजी ने श्रीकूर कुलोत्तम दास को इसके बारे में पूछा। श्रीकूर कुलोत्तम दास ने उन्हें रहस्य बताने से दो टूक से इनकार किया। क्योंकि श्रीशैलेश स्वामीजी पर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कि विशेष कृपा थी उन्हें श्रीकूर कुलोत्तम दास का नकारने का थोड़ा भी ग़ुस्सा नहीं आया। अपनी तिरुमाळिगै में पहुँचने पर उन्होंने यह बात अपनी मामि को बताया। मामि ने पहिले के दिनों में उनका श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य चरणों में अपना सम्बन्ध बताया। श्रीशैलेश स्वामीजी भी श्रीकूर कुलोत्तम दास से भेंट करने में बहुत इच्छुक थे और पुनः उनके दिव्य चरणों के शरण होना चाहते थे।
उस समय सिंगप्पिरान को “तिरुमणत्तूण नम्बी” कहकर बुलाते थे। उनके प्रति प्रेम के कारण कई श्रीवैष्णव उन्हें कई अच्छे शब्द कहे; उन्होंने कहा “क्योंकि आप सभी बहुत शब्द कह रहे है इसीलिए मैं कुछ भी स्पष्ट से समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि कोई एक जो अच्छी तरह से बोल सकते हैं वें स्पष्टता से कहे”। तब उन्होंने श्रीशैलेश स्वामीजी जो एक अच्छे वक्ता ऐसे जाने जाते थे उनसे कहने को कहा । उन्हें सुनने के पश्चात तिरुमणत्तूण नम्बी बहुत प्रभावित हुए और उन्हें सम्प्रदाय के प्रवर्तकार (पारंपरिक तत्वज्ञान को आगे बढ़ाने का निमित) बनाना चाहते थे। उन्होंने श्रीकूर कुलोत्तम दास (जो तब तक श्रीरङ्गम जा चुके थे) को मिलके अपनी इच्छा प्रगट कि। श्रीकूर कुलोत्तम दास ने कहा कि वें श्रीशैलेश स्वामीजी को पुनः सम्प्रदाय में लाएंगे और मदुरै के लिये प्रस्थान किये। एक दिन जब श्रीशैलेश स्वामीजी हाथी पर सवार होकर जा रहे थे तब श्रीकूर कुलोत्तम दास ने उन्हें देखा और एक टीले पर चढे ताकि श्रीशैलेश स्वामीजी उन्हें देख सके। श्रीशैलेश स्वामीजी ने जैसे हीं उनका दर्शन किया उन्हें श्रीकूर कुलोत्तम दास में अपने आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य जैसे प्रतीक हुवे और उन्होने हाथी नीचे उतर कर श्रीकूर कुलोत्तम दास को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। स्वामीजी ने उन्हे उठाकर गले लगाया और उनकी प्रशंसा कि। तत्पश्चात श्रीशैलेश स्वामीजी श्रीकूर कुलोत्तम दास को अपने स्थान में ले गये, उनका स्वागत कर उनका सम्मान किया और उन्हे उपदेश देने को कहा। श्रीकूर कुलोत्तम दास ने श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के अंतिम दिनों को बड़ी सविस्तार से स्मरण किया। फिर श्रीशैलेश स्वामीजी ने श्रीकूर कुलोत्तम दास पर कृपा कर उन्हे उनके स्थान पर निवास करने को कहा और जब वें अपने लीलाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण करेंगे तभी सुबह आने को कहा । फिर उन्होंने श्रीकूर कुलोत्तम दास के लिए एक तिरुमाळिगै का प्रबंध किया ताकि वें आराम से रह सके।
प्रति दिन सुबह श्रीकूर कुलोत्तम दास श्रीशैलेश स्वामीजी के पास आते और श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य द्वारा रचित रहस्य के अर्थों (गूढ़ार्थ) को उन्हें सिखाते। स्वामीजी भी बड़े आदर से यह सीखते। एक दिन जब श्रीकूर कुलोत्तम दास रहस्य पर कालक्षेप कर रहे थे तो राज्य के कार्य में कुछ पूर्वव्यस्तता के कारण उन्होंने श्रीकूर कुलोत्तम दास को बिना सुने उन्हें सहन करने को कहा। अगले दिन श्रीकूर कुलोत्तम दास नहीं आये। उसके अगले दिन भी स्वामीजी नहीं आये तो श्रीशैलेश स्वामीजी ने स्वामीजी क्यों नहीं आ रहे हैं यह पता लगाने के लिए अपने सैनिक भेजे। सनिकों ने आकर कहा कि उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। तत्पश्चात श्रीशैलेश स्वामीजी श्रीकूर कुलोत्तम दास स्वामीजी के तिरुमाळिगै में गए और बहुत समय तक साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। नायनार ने तब उन्हें कहा कि उन्होंने उन्हें क्षमा कर दिया हैं और क्योंकि अन्य शिष्यों के लिए कालक्षेप समापन में था तो उन्होंने श्रीशैलेश स्वामीजी को रूक कर प्रसाद पाने को कहा।
जैसे हीं श्रीशैलेश स्वामीजी ने प्रसाद पाया वें परमसात्विक (समस्त वस्तुओं से निरत होना) हो गये और “कूर कुलोत्तम दास नायन तिरुवडिगळे शरणम” (केवल श्रीकूर कुलोत्तम दास नायनार के दिव्य चरण कमल हीं शरण है) ऐसे बार बार कहते रहे। इतना ही नहीं वें राज दरबार में आने के पश्चात भी इसे दोहराते रहे। दरबार के अन्य अधिकारीयों ने रानी के पास जाकर बताया कि स्वामीजी अनोखे ढंग से बर्ताव कर रहे। रानी ने उन्हें बुलाया और जब रानी ने उनका स्वागत किया तब उनके प्रशंसा के बदले में उन्होंने “कूर कुलोत्तम दास नायन तिरुवडिगळे शरणम” कहा। क्लेश के साथ रानी ने उनसे कहा “हम, मेरे बच्चे और मैं सभी आप पर निर्भर हैं जब तक बच्चे उस उम्र तक न पहुंचे जहां वें इस राज्य का कार्यभार स्वयं न संभाल सके। परन्तु अब यह परिस्थिति इस तरह बदल गई हैं”। उन्होंने रानी को यह कहकर दिलासा दिया कि “शोक न करे। आपका पुत्र परिपक्व हो गया हैं। मुझे नायन के दिव्य चरण कमलों कि पूजा करनी हीं होगी। मुझे मत रोको। मैं राज्य के कार्य भार के विषय में पूछते रहूँगा और जब भी राजकुमार को आवश्यकता होगी उन्हें सलाह देता रहूँगा”। उन्होने कुछ समय तक वहाँ रहकर श्रीकूर कुलोत्तम दास से अध्ययन किया और राज्य का कार्य मे भी मदत कि। तत्पश्चात वें सिक्किलि (आज के समय का सिक्किल किडारम) कि ओर प्रस्थान किये जो दिव्य धाम तिरुप्पुल्लाणी के समीप हैं जहां श्रीकूर कुलोत्तम दास निवास करते थे और एक गुरुकुलवासम (अपने आचार्य के वंशज के साथ रहकर सीखना) प्रारम्भ किया। क्योंकि श्रीकूर कुलोत्तम दास ने उन्हें सभी रहस्य का अध्ययन करवाया जो उन्होंने अपने आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी से सीखा था इसलिये दास नायन को कूरकुलोत्तमदासम उदारम (श्रीकूर कुलोत्तम दास कि महानुभावता) कहा गया है।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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