लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य श्रीसूक्तियाँ – १७

 श्री: श्रीमते शठकोपाय नम:। श्रीमते रामानुजाय नम:। श्रीमद् वरवरमुनये नमः। श्रीवानाचलमहामुनये नमः।

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ

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१६१प्रणवार्थमुम् नमच्छब्दार्थमुम् व्यापकत्वमुम् अव्यापक्त्वमुम् अल्लाद व्यापक मन्दिरङ्गळिलुम् उण्डु।

“ओ३म (ॐ)” का अर्थ है जीवात्मा भगवान का दास है। “नमः” का अर्थ है “मैं स्वयं का दास नहीं हूँ”। इनका और भगवान की सर्वव्यापकता का अन्य व्यापक मन्त्रों में भी वर्णन है।

अनुवादक टिप्पणी – मन्त्र सामान्यतः तीन भागों से बना है – प्रणवम्, नमः और भगवान का तिरुनामम् (दिव्य नाम)। यहाँ तिरुमन्त्रम् (अष्टाक्षरी) की महिमा प्रकट की गई है। आइए हम पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी की मुमुक्षुप्पडि का आनन्द लें, मामुनिगळ की दिव्य व्याख्यान के साथ, जिसमें इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से समझाया गया है।

  • सूत्रम् ८-  भगवन् मन्त्रङ्गळ् तान् अनेकङ्गळ् – जिस प्रकार भगवान के असंख्य कल्याण गुण हैं और वे उन असंख्य गुणों को असंख्य अवतारों में प्रकट करते हैं, ऐसे दिव्य मङ्गल गुणों/स्वरूपों पर ध्यान केंद्रित करने वाले मन्त्र भी असंख्य हैं।
  • सूत्रम्९ – अवैतान् व्यापकङ्गळ् एन्ऱुम् अव्यापकङ्गळ् एन्ऱुम् इरण्डु वर्क्कम्। ये मन्त्र दो प्रकार के हैं:
    • व्यापक मन्त्रम्- वह मन्त्र जो भगवान के नित्य स्वरूप और उनकी सर्वव्यापकता पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • अव्यापक मन्त्रम्- वह मन्त्र जो एक विशेष अवतार (अवतरित) अथवा गुण (गुणवत्ता) पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • सूत्रम् १०- अव्यापकङ्गळिल् व्यापकङ्गळ् मून्ऱुम् श्रेष्ठङ्गळ्। व्यापक मन्त्र अव्यापक मंत्र की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं। जैसा कि विष्णु गायत्री नारायण, वासुदेव और विष्णु मन्त्रों को प्रकट करती है – ये तीन मन्त्र अन्य सभी मन्त्रों पर महत्व रखते हैं। ये तीनों मंत्र भगवान की सर्वव्यापकता को प्रकट करते हैं।
  • सूत्र ११ – इवै मून्ऱिलुम् वैत्तुक्कोण्डु पेरिय तिरुमन्त्रम् प्रधानम्। इन तीन व्यापक मन्त्रों में से- नारायण मन्त्र (अष्टाक्षरी) निम्नलिखित कारणों से सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि –
    • जैसे विष्णु गायत्री में सबसे पहले इसको पढ़ा जाता है।
    • यह सबसे सटीक माध्यम से श्रीमन्नारायण की सर्वव्यापकता को पूर्णतः प्रकाशित करता है।
    • जबकि शास्त्र यह प्रमाणित करता है कि अष्टाक्षरम् मन्त्र से उच्च कोई मन्त्र नहीं है।
  • सूत्रम् १२- मट्रवै इरण्डुक्कुम् अचिष्ट परिग्रहमुम् आपूर्त्तियुम् उण्डु– यहाँ नारायण मन्त्र की महत्ता और वासुदेव/विष्णु मन्त्र की पराकाष्ठा सीमित प्रकट होती है।
    • “नारायण” शब्द भगवान के स्वरूप (यथार्थ स्वरूप), रूपम् (रूप), गुण (कल्याणकारी गुण) आदि प्रकट करता है। अन्य दो मन्त्र मुख्यतः केवल स्वरूप (व्याप्ति/सर्वव्यापकता) पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    • अन्य दो मन्त्रों का उपयोग कुदृष्टियों (वे जो वेदों की अनुचित व्याख्या करते हैं) द्वारा भी किया जाता है और अधिकतर अनुचित व्याख्या की जाती है।

१६२नम्माचार्यर्गळ् पोनदु पोदुमिऱे नमक्काधरिक्क वेण्डुवतु।

हमें अपने आचार्यों द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना है। इतना ही पर्याप्त है।

अनुवादक टिप्पणी इसको दो भिन्न दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।

  • सामान्य संदर्भ – हमारे पूर्वाचार्यों पर एम्पेरुमान् की पूर्ण कृपादृष्टि है और वे अत्यावश्यक सिद्धांतों से पूर्ण परिचित हैं। उन्होंने हमें पालन करने के लिए प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन किया है। उन्होंने व्यवहारिकता से यह दर्शाया कि विभिन्न परिस्थितियों में स्वयं को कैसे संचालित किया जाए। इनका हमारे पूर्वाचार्यों ने अपने कई ग्रन्थों में विस्तृत विवरण किया है और हमारे लिए ये ग्रंथ अध्ययन करने और अनुसरण करने के लिए उपलब्ध हैं। हमारे पूर्वाचार्यों की जीवन शैली को जानने के लिए इसे देखें –https://granthams.koyil.org/anthimopaya-nishtai-hindi/, https://granthams.koyil.org/srivaishnava-lakshanam-hindi/
  • तिरुमन्त्रम् संदर्भ (१६१वीं प्रविष्टि के प्रवाह में) – तिरुमन्त्रम् की महिमा को प्रकट करने के पश्चात्, पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी सूत्र १३ में व्यक्त करते हैं, “वेदों, ऋषियों, आऴ्वारों और आचार्यों का तिरुमन्त्रम् के प्रति बहुत निष्ठा भाव था” और इस कारण अन्य मन्त्रों की तुलना में इसका विशेष महत्व है। और हमारे आचार्यों का तिरुमन्त्रम् के प्रति अनन्य अनुराग था, इसलिए हमें भी अपने ध्यान को तिरुमन्त्रम् में पूर्ण केन्द्रित करना चाहिए।‌ मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि स्वामी जी) ने इस सूत्र को कई प्रमाणों के साथ विस्तृत विवरण किया है। जबकि तिरुमन्त्रम् में भी, हमारे आचार्यों ने इसके पाठ (जाप) की तुलना में तिरुमन्त्रम् के अर्थ ज्ञान पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। तिरुवाय्मोऴि १.२.१० के व्याख्यानम् में –“एण् पेरुक्कन् नलत्तु ओन्पोरुळीऱिल वण् पुगऴ् नारणन् तिण् कऴल् सेरे” नम्पिळ्ळै ने बहुत सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है कि अन्य जन तिरुमन्त्रम् का उपयोग जाप, होम इत्यादि के लिए करते हैं, हमारे आचार्यों ने केवल तिरुमन्त्रम् के महत्वपूर्ण सिद्धांत के पालन पर ध्यान केंद्रित किया है जो जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप के लिए उपयुक्त है, अर्थात् जीवात्मा ( एम्पेरुमान्) भगवान का दास है और उसका अस्तित्व केवल भगवान के लिए कैङ्कर्य करने में है।

१६३ – अवनैप् पॆरवेणुमॆन्ऱिरुप्पार् आसैप्पडुवदुम् अवळ् मुन्नागवाय्, पॆट्रपिन् कैङ्कर्यम् पण्णुमदुमिरुवरुमान चेर्त्तियिलेयायिरुक्कुमिऱे।

जो भक्तजन भगवान तक पहुँचने की इच्छा रखते हैं, वे पिराट्टि के माध्यम से (श्रीमन्नारायण) उनके पास पहुँचते हैं। भगवान के पास पहुँचने पर वहाँ एक साथ दिव्य दम्पति की सेवा करते हैं। यह पक्का प्रमाण है।

अनुवादक टिप्पणी -द्वय महामन्त्र तिरुमन्त्रम् का विस्तृत रूप है। हमारे पूर्वाचार्य द्वय महामंत्र पर एकाग्र थे क्योंकि यह भगवान और पिराट्टि के बीच का सम्बन्ध और उनके प्रति हमारे दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण करता है। द्वय महामंत्र के दो भाग हैं।

  • प्रथम भाग में, हम श्रीमहालक्ष्मी जो भगवान की अभिन्न अङ्ग हैं के पुरुषकार (अनुशंसा) से भगवान के समीप जाते हैं और इस अनुरोध के फलस्वरूप हम एम्पेरुमान् के चरणकमलों के प्रति शरणागत होते हैं और भगवान को अपना एकमात्र आश्रयदाता स्वीकारते हैं।
  • दूसरे भाग में हम आत्म-आनन्द की इच्छा के बिना दिव्यदम्पति के मुखोल्लास के लिए शाश्वत कैङ्कर्य प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं।

आऴ्वारों ने ऐसे निर्देशों के बहुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं: 

  • जब (श्रीराम) ने वन में जाने का निश्चय किया तब इळैय पेरुमाळ् (लक्ष्मण) ने सीता पिराट्टि (माता जी) के पुरुषकारम् से श्रीराम जी को आत्मसमर्पण कर दिया। जब वे वन में थे तब उन्होंने केवल दिव्य दम्पति की पूर्ण सेवा करके उनके मुखोल्लास करने को स्पष्ट किया।
  • नम्माळ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी जी) ने तिरुवाय्मोऴि ६.१०.१० (अगलगिल्लेन्) पासुरम् में द्वय महामंत्र के प्रथम भाग को प्रकट किया।
  • नम्माऴ्वार् ने तिरुवाय्मोऴि १०.१०.७- (कोलमलर्प्पावैक्कु अन्बागिय एन् अन्बेयो) में द्वयमहामन्त्र के दिव्यार्थ को प्रकट किया। क्योंकि एम्पेरुमान् का पिराट्टि के साथ अत्याधिक प्रीति है, उनको मेरे प्रति भी बहुत प्रीति है (जिनके पुरुषकार से मुझे भगवान तक पहुँचाया)।
  • तिरुमङ्गै आऴ्वार् (मातृत्व भाव में) ने पेरिय तिरुमोऴि २.७.१ “तिवळुम्” में दर्शाया है कि परकाल नायकी तिरुविडवॆन्तै एम्पेरुमान् के पास जाती है, यह जानते हुए कि श्री महालक्ष्मी सदैव उनके साथ हैं और‌ वह एम्पेरुमान् को परकाल नायकी को स्वीकार करने के लिए बाध्य करेंगी।

१६४स्वरूपम् भगवत् पारतन्त्रियम् एन्ऱऱिन्ताल् शीरिय प्रयोजनम् कैङ्कर्यमिऱे।

पेरिय तिरुवडि (गरुडाऴ्वार्) और तिरुवड़ि (हनुमान)-एक उत्तम उदाहरण एम्पेरुमान् की सेवा में।

जब किसी को यह ज्ञात हो जाता है कि “मेरा स्वरूप भगवान को ही पूर्णतः समर्पित है,” फलस्वरूप भगवान की सेवा प्राप्त करना है। यह पूर्णतः प्रमाणित है।

अनुवादक टिप्पणी -पारतन्त्रियम् का अर्थ है “किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता के बिना,” कैङ्कर्यम् अर्थात् सेवा। जीवात्मा प्रत्येक परिस्थिति में भगवान पर स्वाभाविक और पूर्ण आश्रित है। प्रत्येक वस्तु -चेतन और अचेतन -पूर्णतया भगवान के मुखोल्लास के लिए उपस्थित हैं। आइए इस संदर्भ में पेरियवाच्चान् पिळ्ळै के जीवन की कुछ घटनाएँ देखें।

  • वार्तामाला १४- जब कुछ श्रीवैष्णव उनसे पूछते हैं “क्या हम भगवान की लीला और इरक्कम् (कृपा-दया) का लक्ष्य हैं?” पेरियवाच्चान् पिळ्ळै उत्तर देते हैं “यदि हम इस भौतिक संसार में अपने आनन्दवर्धन के लिए (भौतिक कार्य कलाप, वासना सुख, आदि) में लगे हुए हैं, तब हम भगवान की लीला के पात्र बन जाते हैं; यदि हम इस भयानक भव सागर में स्वंय को बंधक बना समझते हैं और इन घोर दुःखों से निवारण के लिए उत्सुक हैं,तब हम भगवान की दया का पात्र बन जाते हैं” किसी भी प्रकार से हम एम्पेरुमान् पर आश्रित हैं और उनके आनन्द का लक्ष्य हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने इस विषय पर प्रकाश डाला है कि हमें भगवान के प्रति दास होने के यथार्थ स्वरूप को जानना और उचित सेवा करना ही लाभदायक है।
  • वार्तामाला-४८- एक श्रीवैष्णव ने पेरियवाच्चान् पिळ्ळै से पूछा कि “पारतन्त्र्यम् का स्वरूप क्या है?” उन्होंने उत्तर दिया “अपनी पूर्ण क्षमताओं को समर्पित करने के पश्चात् भगवान (सर्वशक्तिमान) की शरण ग्रहण करना, उपाय में स्वातन्त्रयम् का कण मात्र भी न होना (मैंने भगवान की दया प्राप्त करने हेतु कुछ प्रयत्न किया है -कण भर भी इस भाव का न होना) और भगवान के कैङ्कर्य के प्रति अधिक निष्ठा होनी चाहिए”।

१६५रामावतारत्तिल् मेय्युम् कृष्णावतारत्तिल् पॊय्युमिऱे आश्रितर्क्कुत् तञ्जम्।

वे लोग जो भगवान के प्रति पूर्ण शरणागत हैं, उनके लिए श्रीराम द्वारा बोले गए सत्यवचन और कृष्ण के द्वारा बोले गए मिथ्यवचन ही आश्रय हैं।

अनुवादक टिप्पणी -रामावतार में, एम्पेरुमान् सदैव सत्य बोलते हैं। एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य) ने अपने शरणागति गद्यम् में पेरिय पेरुमाळ् के स्वयं कहे वचनों को प्रकट करते हैं “रामो द्विर् ना बिभाषते”- “मेरे रामावतार में यदि मैंने एकबार वचन दे दिया तो उन शब्दों के पालन से पीछे नहीं हटता”, और राम चरम श्लोक प्रकट करते हैं, जहाँ श्रीराम स्वयं घोषित करते हैं कि “यदि कोई एकबार मेरे शरणागत हो जाता है तो मैं उसकी रक्षा करुँगा -यह मेरी प्रतिज्ञा है”। इसीलिए एम्पेरुमान् के भक्त श्रीराम के सत्य और रक्षा करनेवाले शब्दों पर आश्रित हैं।

कृष्णावतारम् में, भगवान ने कई झूठ बोले- परन्तु उनके झूठ उनके भक्तों के लिए बहुत मीठे हैं। उनकी दिव्य लीलाएँ, कभी-कभी शास्त्र के विपरीत लगती है फिर भी उनके भक्त उसका आनंद लेते हैं क्योंकि ये सब उनके (कृष्ण के) द्वारा किया गया है। आइए प्रमाण सहित देखते हैं।

  • एम्पेरुमान् (कण्णन्/श्रीकृष्ण) ने स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता ४.९ में वर्णित किया है कि “जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यो वेत्ति तत्वत: त्यक्त्वा देहम् पुनर्जन्म नैति माम् एति सोर्जुन” – ओह अर्जुन! जो मेरे दिव्य अवतार और लीलाओं की वास्तविकता जानता है, वे एक बार इस जीवन में शरीर त्यागने के बाद दोबारा इस संसार में कभी भी जन्म नहीं लेंगे।
  • आण्डाळ् नाचियार् की महिमा को नाचियार् तिरुमोऴि १४.३ में अलङ्कृत किया गया है “मालाय्प् पिऱन्द नम्बियै माले सेय्युम् मणाळनै एलाप् पोय्गळ् उरैप्पानै इङ्गे पोतक् कण्डोमे।”– भगवान के जो कल्याण गुण हैं गोपियों के प्रति प्रेम दर्शाने के लिए ही प्रकट होते हैं और अपने प्रति गोपीकाओं की प्रीति और पोषण करने के लिए दर्शाते हैं। जब भी आवश्यकता होती है वे बहुत मीठे झूठ बोलते हैं। पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने बहुत सुन्दर प्रस्तुति की है कि उसके झूठ गोपीकाओं के लिए श्रीकृष्ण को प्राप्त करने हेतु उपाय है और जीवात्मा के लिए जो कल्याणकारी है। उन्होंने इस पासुर व्याख्यान में इस सटीक पासुर (१६५) को प्रस्तुत किया है।
  • नम्माऴ्वार् ५.३.५ “कडियन् कॊडियन् नॆडियमाल्…….ऎन् नॆञ्जुम् अवन् ऎन्ऱे किडक्कुम् ऎल्ले।– भले ही कण्णन् एम्पेरुमान् (श्रीकृष्ण) कठोर हृदय के हों क्रूर हैं परन्तु मेरे हृदय में सदैव उन्हीं के लिए विसरित है, क्योंकि यही मेरा स्वभाव है। यदि भगवान में कुछ दोष भी हों, फिर भी मेरे लिए आनन्द वर्धक हैं।
  • कूरताऴ्वान्, ने अपने अतिमानुषस्तवम् में, इस सिद्धांत का बहुत अद्भुत वर्णन किया है। ३४ से ५८ श्लोक में उन्होंने कृष्णावतारम् की महिमा को विस्तृत विवरण किया है। उन्होंने कहा कि जब हम किसी सामान्य व्यक्ति में दोष देखते हैं तो, उसके प्रति घृणा होती है। परंतु जब हम भगवान में दोष देखते हैं तो ये अत्यंत दिव्य होने के कारण हम भगवान के समीप आ जाते हैं (उपासक बन जाते हैं)। उदाहरणतः सामान्यतया चोरी करना एक पाप कर्म है और चोर की निन्दा की जाती है। परन्तु जब भगवान श्रीकृष्ण मख्खन चुराते हैं तो प्रत्येक को उनके साथ अनुराग हो जाने के कारण उनकी सौलभ्यता (सरलता) देख कर मोहित हो जाता है।

इस प्रकार हमारे आऴ्वार् आचार्यों ने एम्पेरुमान् के विभिन्न अवतारों में की गई लीलाओं का आनन्द लिया 

१६६उगन्दारै अऴिक्कैयिऱे भातगमावदु; विरोधिगळै अऴिक्कुमतु उपकारमिऱे।

यदि भगवान उनका विनाश करते हैं जिनकी उनके प्रति अत्यधिक इच्छा है -यह प्रतिकूल है। परन्तु भगवान के प्रति अत्यधिक निष्ठा रखने वालों के शत्रुओं का विनाश करना अनुकूल है। यह सटीक प्रमाणित है।

अनुवादक टिप्पणी -एम्पेरुमान् से अलग होने पर आऴ्वारों को असहनीय वेदना का अनुभव होता है, इस प्रकार वे पूर्ण असहाय और शिथिल अवस्था में हो जाते हैं। वे भगवान से एक क्षण के लिए भी दूर नहीं रह सकते। तब वे एम्पेरुमान् से इस के बारे में पूछते हैं कि उन्हें इतना कष्ट और उनका विनाश क्यों किया। दूसरी ओर, यदि भगवान ऐसे भक्तों के एम्पेरुमान् तक पहुँचने में आने वाली बाधाओं को नष्ट कर देते हैं तो यह अनुकूल है। भगवान तक पहुँचने में यह संसार का दुष्चक्र सबसे बड़ी बाधा है और भक्तों का संसार से सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तब वे प्रसन्न होते हैं, और एम्पेरुमान् का नित्य कैङ्कर्य करने के लिए परमपद पहुँच जाते हैं।

१६७ब्रह्महत्यैक्कु प्रायश्चित्तम् पण्णिनाल् गोहत्यैक्कु प्रायश्चित्तम् पण्णवेण्डिवरुमिऱे। अङगन् वेणडाविऱे भगवतनुग्रहम् कोण्डु कार्यम् कोळ्ळुमिडत्तिल्।

ब्राह्मण की हत्या करने के पश्चात्, जब व्यक्ति को कृत्य पर ग्लानि होती है और ऐसी हत्या के प्राप्त पाप को मिटाने के लिए प्रायश्चित करता है। यदि वह गौ हत्या करता है, तो इस पाप को मिटाने के लिए प्रायश्चित्त करना पड़ता है- पहले का प्रायश्चित काम नहीं आएगा। जब एम्पेरुमान् का जीवात्मा पर अनुग्रह होता है और जीवात्मा एम्पेरुमान् के प्रति पूर्ण शरणागत हो जाता है, एम्पेरुमान् उसके सारे पापों को मिटाने में सक्षम हो जाते हैं।

अनुवादक टिप्पणी -यह ईडु व्याख्यानम् में तिरुवाय्मोऴि के ९.८.१ “अऱुक्कुम् विनै” पासुरम् में वर्णित है। इस पासुर में नम्माऴ्वार ने प्रकाशित किया है कि “जो भगवान को अपने हृदय में दृढ़ता पूर्वक विराजते हैं उनके सभी पाप (और पुण्य) नष्ट हो जाएँगे”। व्याख्यान में नम्पिळ्ळै ने कण्णन् एम्पेरुमान् (श्रीकृष्ण) के चरम श्लोक “सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि”, जहाँ वे कहते हैं कि सब पापों का नाश हो जाएगा। नम्पिळ्ळै समझाते हैं कि जब हम स्वयं के बल पर अपने पापों का नाश करने की चेष्टा करते हैं, तब एक के बाद एक करना पड़ता है। परन्तु जब भगवान आशीर्वाद देते हैं तो एक ही समय में सारे पापों का विनाश हो जाता है। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि के सूत्र २५५ में “मोक्षयिष्यामि” शब्दकी महत्ता को दर्शाते हैं। “इष्यामि” का अर्थ है कि भगवान कह रहे हैं “मुझे कोई प्रयास नहीं करना और तुम्हें भी कोई प्रयास नहीं करना, तुम मेरे शरणागत हो यह देख कर पाप स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे।”

आण्डाळ् नाचियार् ने तिरुप्पावै के ५वें पासुर “पोय पिऴैयुम् पुगु तरुवान् निन्ऱनवुम् तीयिनिल् तूसागुम् “ में दर्शाया है कि निरन्तर भगवान की महिमा का गान करते और निरन्तर भगवान के ध्यान मग्न होकर, भूतकाल और भविष्य के सारे पाप नष्ट हो जाएँनगे।

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी सूत्र १४६ में वर्णित किया है कि एम्पेरुमान् की शरण में जाने से सभी दोष एक साथ नष्ट हो जाते हैं। व्याख्यान में,मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) वर्णन करते हैं कि “सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि “और एम्पेरुमानार् की शरणागति गद्यम् में प्रार्थना है कि प्रपत्ति करने के पश्चात् सारे पापों को नष्ट कर दिया जाए।

१६८आश्रितरक्षणत्तुक्कुम् तत्प्रतिकूल निरसनत्तुक्कुमडि श्रिय:पतियागै।

क्योंकि भगवान श्रीमहालक्ष्मी के दिव्य पति हैं, वे अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और अपने भक्तों के शत्रुओं का विनाश करते हैं।

अनुवादक टिप्पणी – भगवान के दो प्रकार के गुण हैं:-

  • स्वरूप निरूपक धर्म -भगवान के ऐसे गुण जो भगवान की पहचान केलिए आवश्यक हैं जिनके बिना भगवान की कल्पना करना कठिन होगा। इसमें सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् (शाश्वत, परम ज्ञान,‌ असीमित), उभय विभूति नाथत्वम् (अलौकिक और भौतिक दोनों लोकों के नाथ), श्रिय: पतित्वम् (श्री महालक्ष्मी के दिव्य पति होने के नाते), सर्व कारणत्वम् (सभी कारणों के कारण), अनन्त शायित्वम् (सर्पासन पर लेटे हुए), पुण्डरिकाक्षत्वम् (कमल नयन), गरुड़ वाहनत्वम् (गरुड़ाऴ्वार् वाहन के रूप में) आदि। इनमें से श्रिय: पतित्वम् गुण की महत्ता अधिक है- तिरुमऴिसै आऴ्वार् कहते हैं कि “तिरुविल्लात् तेवरैत्त तेऱेन्मिन् तेवु” – जिनका श्रीमहालक्ष्मी के साथ सम्बन्ध नहीं है उनको मैं भगवान नहीं मानूँगा।
  • निरूपित स्वरूप विशेषण – नित्य तत्वों के अतिरिक्त गुण -जैसे कि सौलभ्यम् (सरलता- आसानी से प्राप्त होने वाला), सौशील्यम् (उदार), वात्सल्यम् (मातृत्व सहनशीलता) इत्यादि।

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि में तिरुमन्त्रम् प्रकरणम् में वर्णित करते हैं कि पिराट्टि का विराजमान होना आवश्यक है जब एम्पेरुमान् किसी की रक्षा/मङ्गल करते हैं। वे आगे उद्धृत करते हैं कि पिराट्टि कभी भी एम्पेरुमान् से अलग नहीं हैं -पिराट्टि हमें सुनिश्चित करती हैं कि एम्पेरुमान् सदैव रक्षा करेंगे। तिरुमन्त्रम् में पिराट्टि के बारे में प्रत्यक्ष स्पष्ट वर्णन नहीं है -इसलिए वह कहते हैं कि पिराट्टि की उपस्थिति निहित है।

  • सूत्र ४०- क्योंकि पिराट्टि का होना आवश्यक है जब भगवान रक्षा करते हैं, श्रीमहालक्ष्मी की उपस्थिति निहित है। मामुनिगळ् ने (श्रीवरवरमुनि) बहुत सुन्दर प्रस्तुति की है “लक्ष्मया सह‌ ऋषिकेशो देव्या कारुण्य रूपया; रक्षकस् सर्वसिद्धान्ते वेदान्तेपि च गीयते”– जिस प्रकार पिराट्टि (जिनका हृदय करुणा से भरा हुआ है) पोषण करती हैं और भगवान की कृपा को प्रकट करती हैं, भगवान के स्वातन्त्रयम् को अपने वश में करने, जीवात्मा के पापों को क्षमा करवाने और उसे स्वीकार करवाने के लिए उसकी उपस्थिति आवश्यक है।
  • सूत्रम् ४१ – भगवत् सेनापति मिश्रर् कहते हैं “यदि वह उनके वक्षस्थल को त्यागकर देती हैं तो वह अकारम् में भी दिखाई नहीं देंगी” – आप्त वचनम् (विश्वसनीय स्रोत)‍। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी भगवत् सेनापति मिश्रर् को उद्धृत करते हैं जो वर्णन करते हैं कि पिराट्टि कभी भी भगवान के वक्षस्थल को नहीं त्यागती जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ६.१०.१० में देखा गया है “अगलगिल्लेन् इऱैयुम्”– पिराट्टि कह रही हैं “मैं एक क्षण के लिए भी नहीं जाऊँगी”। भले ही अकारम् में पिराट्टि को प्रत्यक्ष वर्णित नहीं है, तब भी उनको विद्यमान समझना चाहिए।

इसीलिए एम्पेरुमान् अपने श्रिय: पतित्वम् के कारण ही अपने भक्तों की सुरक्षा सदैव ही करते हैं। अपने भक्तों के शत्रुओं का नाश करते हुए, भगवान की कृपा प्रकट होती है। जब ऐसे पापकर्मियों का नाश हो जाता है तब भगवान कृपावश उनको फिर से ऐसे बढ़ने वाले पापकर्म करने से रोकते हैं। इस कारण से भगवान की कृपा (जो पिराट्टि की करुणा से पोषित है) का प्राकट्य होता है।

१६९ब्राह्मणर्क्कु सन्ध्यावन्दनम् पोले इडैयर्गळुक्कु पशु मेय्क्कै। जात्युचित धर्ममागैयाले तविर ओण्णादिरुक्कुमिऱे।

जिस प्रकार ब्राह्मणों के लिए संध्यावंदन करना है वैसे ही गोपों (ग्वालों) के लिए गाय चराना है। क्योंकि यह  अपने वर्ण के धर्मानुसार आवश्यक है जिसको छोड़ा नहीं जा सकता। यह सिद्ध है।

अनुवादक टिप्पणी -श्रीमन्नारायण के लिए वर्णाश्रम धर्म अत्यावश्यक है। श्रीमन्नारायण के भक्तों के रूप में प्रत्येक को भगवान के आदेशों-निर्देशों का पालन करना चाहिए। भगवान स्वयं कहते हैं:-

श्रुति: स्मृति: ममेव आज्ञा यस्ताम् उल्लङ्घ्य वर्त्तते आज्ञाच्छेदि मम द्रोही मद् भक्तोपि न वैष्णव:

सरलानुवाद: श्रुति (वेद) और स्मृति (धर्म शास्त्रादि) मेरे आदेश हैं और उनका पालन करना होगा। जो पालन नहीं करते वे धर्मद्रोही कहलाएँगे, भले ही वे मेरे भक्त हैं उन्हें वैष्णव नहीं कहा जाएगा।

भले कुछ भी हो नित्य कर्म अनुष्ठानम् तो करना ही होगा।

श्री वैष्णवों के लिए ये महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं:-

  • कर्मानुष्ठानम तीन प्रकार के हैं:-
    • नित्यकर्म- प्रतिदिन (दैनिक) क्रियाएं जैसे सन्ध्यावन्दनम्, समिता दानम् (ब्रह्मचारियों के लिए), औपासनम् (गृहस्थों के लिए) इत्यादि।
    • नैमित्तिक कर्म- आवधिक/विशिष्ट गतिविधियाँ जैसे पितृ तर्पणम् आदि।
    • काम्य कर्म- वे कर्म जो भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं जैसे कि ज्योतिष्टोमम् (स्वर्ग जाने के लिए) आदि।
  • प्रत्येक नित्य कर्म या नैमित्तिक कर्म एम्पेरुमान् के कैङ्कर्य की भांति करना चाहिए। कोई भी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा से नहीं करना चाहिए।
  • श्रीवैष्णव प्राय: काम्या कर्मों में लिप्त नहीं होते।
  • जब भगवत्, भागवत्, आचार्य कैङ्कर्य होता है तो उन्हें कर्मानुष्ठानम् की प्रार्थमिकता दी जाती है। एक बार भट्टर् नम्पेरुमाळ् के साथ तिरुवालवट्ट कैङ्कर्य कर रहे थे, संध्याकाल श्रीवैष्णवों में से एक ने उन्हें संध्यावंदन के बारे में जानकारी दी। भट्टर् उत्तर देते हैं कि “भगवत् कैङ्कर्य में संलग्न होने पर संध्यावंदन न करने पर भी कोई दोष नहीं है”। एक बार कैङ्कर्य पूर्ण होने पर हमें तब कर्मानुष्ठानम् के लिए जाना है।
  • नायनार् आचार्य हृदयम् ३१ में वर्णन करते हैं “अत्ताणिच् चेवकत्तिल् पोदुवानतु नऴुवुम्” – जब श्रीवैष्णव कैङ्कर्य में संलग्न होता है वह सामान्य धर्म से मुक्त हो जाता जैसे सन्ध्यावन्दनम्, अग्नि कार्यम् आदि।
  • मामुनिगळ् के व्याख्यान सार्थक और अद्भुत हैं – वे कहते हैं कि जीवात्मा का यथार्थ  स्वरूप प्रत्यक्ष एम्पेरुमान् की सेवा करना है- वर्ण और आश्रमानुसार जो सामान्य धर्म है वे भगवान के लिए अप्रत्यक्ष कैङ्कर्य है क्योंकि हम समझते हैं कि, सभी देवताओं में भगवान अन्तर्यामी हैं और श्रुति/एम्पेरुमान् हमें इन कर्मानुष्ठानों को करने का निर्देश देते हैं, जब कैङ्कर्य होता है तो अन्य लोग पीछे हट जाते हैं। मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) आगे कहते हैं – वे पीछे हट जाते हैं, तो हमारे पूर्वाचार्य सामान्य धर्म में संलग्न क्यों देखा गया है? मूलतः “हमें ऐसे क्यों करना चाहिए?” वे बहुत ही अद्भुत उत्तर देते हैं कि हमारे पूर्वाचार्यों ने अत्यंत करुणावश होकर ऐसे कइयआ-यदइ श्रीवैष्णव,जो स्वयं भगवान के अनन्य भक्त हैं कर्मानुष्ठान का पालन नहीं करते हैं, जिसका निर्देश स्वयं भगवान ने दिया है -अन्य लोग भी कर्मानुष्ठानम् छोड़ कर पतित बन जाएँगे- इसलिए हमारे पूर्वाचार्यों ने सामान्य धर्म का पालन किया (विशेष धर्म में कोई हस्तक्षेप/विरोध नहीं करते हुए)

ऐसा ही सिद्धांत सिरिय तिरुमडल् में वर्णित है “वारार् वनमुलैयाळ् मत्तारप्पट्रिक्कोण्डु” – यहाँ पेरियवाच्चान् पिळ्ळै एक प्रश्न पूछते हैं कि यशोदा के पास इतनी परिचारिकाओं के होने पर भी क्यों वह स्वयं मक्खन निकालने के लिए दही को मथती थी। स्वयं ही इसका ‌बहुत अद्भुत उत्तर देते हैं कि यह उनके वर्ण (वैश्य) और आश्रम (गृहस्थ) दोनों धर्म हैं, इसलिए वह इसे नहीं छोड़ सकती। इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए कहा कि “केवल धनवान होने पर अपने स्थान पर किसी और को संध्यावंदन के लिए नियुक्त नहीं कर सकते”। अत: संध्यावंदन प्रत्येक श्रीवैष्णव के लिए अनिवार्य है, और केवल कैङ्कर्य करने में व्यस्त होने से कुछ देरी हो सकती है।

१७०भगवत्विषयम् तान् स्पर्शवेदियायिरुक्कुमिऱे।

जब भगवान के साथ सम्बन्ध बना लेते हैं तो असात्विक व्यक्ति भी सात्विक हो जाता है। जब कोई प्रपन्न बन जाता है (भगवान को उपाय मानना), भगवान, जो उस प्रपत्ति का उद्देश्य है, प्रपन्नों पर कोई उन्नयन लागू नहीं करते हैं जो उनके प्रति‌ समर्पण कर रहे हैं। यह सिद्ध है।

अनुवादक टिप्पणी -यह इस व्याख्या को पहले ४४ सूत्र में देख चुके हैं। तिरुमङ्गै आऴ्वार् पेरिय तिरुमोऴि ११.३.५ में उद्धृत करते हैं “तम्मैये ऒक्क अरुळ् सॆय्वर्” -भगवान मुक्तात्मा को उनके गुण प्रदान करते हुए आशीर्वाद देते हैं।

माणिक्क मालै में पेरियवाच्चान् पिळ्ळै बहुत सुन्दर समझाते हैं कि ईश्वर तत्व (भगवान) और अचित्त तत्वम् (वस्तु) की समानता दर्शाते हैं । दोनों में एक समान गुण हैं। जब हम वस्तु/भौतिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध रखते हैं, तो यह हमें प्रत्येक वस्तु से दूर कर देगा और हम भौतिक सुखों से जुड़ जाएँगे और देहात्म अभिमानी बन जाएँगे (अर्थात् आत्मा अब यह सोचने लगेगी कि वह देह के समान है)। इसी प्रकार जब हम भगवान के साथ सम्बन्ध रखते हैं तो हमें दिव्य गुणों को प्रदान करने की कृपा करते हैं और अन्य विषयों से दूर कर देंगे। इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि “जिसका ध्यान तिरुमन्त्रम् पर केंद्रित है, वह अज्ञानियों का संग नहीं करेगा।”

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/10/divine-revelations-of-lokacharya-17/

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